मित्रों इस संसार में सब को खुश करना असम्भव है. जो क्रांतिकारी होता है वह रास्ता खुद बनाता है. मुकाम तक पहुँचने के लिए उसे सहयोग की आवश्यकता अवश्य होती है. लेकिन यदि सहयोग नहीं मिलता, लोग उसके मक़सद को नहीं पाते, सहयोग की जगह उस क्रांतिकारी पर पत्थर बरसाते है, उसे ज़हर पिलाते है सूली/फाँसी पर लटकाते है फ़िर भी उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता. वह आगे बढ़ता चला जाता है. इस लिए कि उसे विश्वास होता है कि वह जो कुछ कर राहा है अपने लिए नहीं बल्कि उन लोगों के जिनकी आँखो पर पट्टी बँधी है और उन्हें पता नहीं है कि वे कहाँ भटक रहें है. ऐसे क्रांति कारी गाली सुनेंगे , पत्थर खाएंगे, ज़हर पीयेंगे , सूली पर चढेगे लेकिन गाली देने वालों, पत्थर मारने वालों, ज़हर पिलाने वालों, सूली पर चढाने वालों के प्रति कुत्सित भाव नहीँ रखेंगे. एक कहावत है कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है लेकिन माता कुमाता नहीँ हो सकती. महात्मा बुद्ध ने पत्थर खाये , ईसा मसीह को सूली पर चढ़ा दिया गया, सुकरात को ज़हर का प्याला दिया गया, राजा राम मोहन रॉय गालियाँ सुनते रहें लेकिन सती प्रथा के अंत के लिए समर्पित रहें, लेकिन इन क्रान्ति कारियों के चेहरे पर ज़रा सी भी शिकन नहीं आई. जब भी परिवर्तन होता है परिवर्तन कर्ता को मुसीबतों का सामना करना पड़ता है. परिवर्तन वही लाता है जिसके अंदर मुसीबतों को झेलने का साहस होता है. हमें मुफ्त और खैरात की आदत पड़ चुकी है. आज तक हमारी इस कमजोरी का कुछ चतुर लोग फायदा उठाते रहें है. नोट बंदी चतुराई का काम नही है यह जोखिम भरा काम है. यह लोक लुभावन वाला फैसला नहीं है. यह फैसला अपने आप में अद्वितीय है. अच्छी नियत से लिए गये फैसले का परिणाम अच्छा होगा ऐसा मुझे लगता है. इसका अहसास हमें तभी होगा जब हम राजनीति के चश्मे से इसे न देखे.
The World through my lens...
This is my personal blog where I put my thoughts and views over various topics.
Monday, 12 December 2016
Sunday, 11 December 2016
अर्थशास्त्र नोट बंदी का.
माफ़ कीजिए मैं अर्थशास्त्री नहीं हूँ, लेकिन अर्थशास्त्र का सामान्य और व्यवहारिक ज्ञान मुझे अवश्य है. मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि टी वी पर जिन लोगों को नोट बंदी पर बहस करते हम देख और सुन रहे है,उनमें से अपवाद स्वरूप ही सही अर्थ में अर्थशास्त्री है. मेरी समझ से टीवी पर बहस करने वाले लोगों का अर्थशास्त्र ज्ञान मात्र अपना हित साधन तक सीमित है. जिन लोगों ने खेत में कभी पैर नहीं रखा होगा वे भी किसानों के दुःख दर्द की बात कर रहे हैं. जो गाँव कभी नही रहे वे भी कह रहे हैं कि गाँव के लोगों को बहुत परेशानी हो रही है. ऐसे लोगों को पता नही है कि गाँव में रोज़मर्रा का खर्च कैसे चलता हैं. जो लोग गाँव में नहीं रहें या कभी खेत में पैर नहीं रखा उन लोगों को मैं बताना चाहता हूँ कि गाँव में खाने पीने के लिए दुकान पर निर्भर नहीं रहना होता. उन्हें किसी भी चीज़ के लिए रोजाना भुगतान नहीं करना पड़ता. हप्ते, पन्द्रह दिन या महीने में उन्हें दुकान से खरीदी गयी चीजो का भुगतान करना होता हैं. उनका बिल भी बहुत अधिक नहीं होता. गाँव के लोग पंद्रह दिन में एक बार लाइन में खड़े हो गये तो उन्हें ख़ास परेशानी नहीं झेलनी पड़ती. कुछ लोग गला फाड़ फाड़ कर चिल्ला रहें हैं कि नोट बंदी की वजह से किसान बहुत परेशान हैं. उनके पास बीज और खाद खरीदने के लए पैसे नहीं हैं.जहाँ तक बीज का प्रश्न हैं, मेरा अनुभव यह कहता हैं कि अधिकाँश किसानों को बीज के लिए बाजार का चक्कर नहीं लगाना पड़ता. खेत की पैदावार से ही वे अगली फसल के लिए बीज सुरक्षित रख देते हैं. अब प्रश्न उठता है खाद का. मेरा अनुभव यह कहता है कि खाद की ज़रूरत सभी फसलों के लिए नहीं पड़ती. इसकी ज़रूरत मुख्य रूप से गेहूँ की बुवाई में पड़ती हैं. गेहूँ की बुवाई अक्टूबर के पहले सप्ताह से शुरू हो जाती हैं और दिसम्बर के पहले हप्ते तक चकती. रवी की बुवाई के लिए किसान पहले से ही पैसे इत्यादि की व्यवस्था करके रखता हैं. आग लगने पर वह कुआँ नहीं खोदता. अतः मुझे नहीं लगता कि नोट बंदी की वज़ह से बुआई पर कोई खास असर पडा है. बल्कि यह कहा जा सकता है कि कोई असर नही पड़ा है. यदि नोट बंदी का बुवाई पर असर पड़ा होता तो इस साल पिछले साल की अपेक्षा अधिक बुवाई नही हुई रहती.अब मै गाँव में रहने वाले उस वर्ग की चर्चा करना चाहता हूँ जिसके पास खेत नहीं है मगर उनकी जीविका खेती पर ही निर्भर करती है. इस वर्ग के लोग किसानों की मदद करते हैं. उनका काम सेवा क्षेत्र में आता हैं. सेवा क्षेत्र वर्ग में लुहार, बढ़ई, नाई , धोबी, कुम्हार इत्यादि आते हैं. इनको इनकी सेवाओं के बदले किसानों से अनाज मिलता हैं. इनकी माली हालत मध्यम दर्जे के किसान की हैं. गाँव में यदि किसी के पास पैसा नहीं हैं बल्कि अनाज है तो वह अनाज देता हैं और उसके बदले कोई और चीज़ ले लेता हैं. अतः गाँव में किसी के पास अनाज हैं और पैसा नहीं हैं तो उसका काम चल जाता हैं.किसानों में छोटे और मझोले किसानों की संख्या ज्यादा हैं. बड़ी जोत वाले किसान मुट्ठी भर हैं. इन्हीं लोगों के पास अतिरिक्त अनाज पैदा होता हैं. दुर्भाग्य से इन्हीं किसानों के बारे में बात की जाती हैं. किसानों का यह वर्ग मुखर हैं. दिल्ली जाकर धरना प्रदर्शन यही वर्ग करता हैं. बेचारे छोटे और मझोले किसानों के पास तो साल भर पेट भरने का भी अनाज पैदा नहीं होता. अनाज मंडी क्या होती हैं वे यह भी नहीं जानते. दुर्भाग्य से जब किसानों की बात होती है तो बड़ी जोत की कीसानो की ही बात होती. देश की अस्सी प्रतिशत जनता अभी भी गाँवो में रहती हैं. यदि अपवादों को छोड़ दिया तो कहा जा सकता है कि देश के नब्बे प्रतिशत लोगों को कोई ख़ास परेशानी नोट बंदी की वज़ह से हुई. यह परेशानी कैंसर से मुक्ति के लिए मरीज़ रेडिओ के शॉक की तरह हैं. दोस्तों नोट बंदी से सबको परेशानी है. लेकिन इतनी बड़ी परेशानी नहीं है कि इसी सहा न जा सके.
Sunday, 27 November 2016
My views on demonetization
8 नवम्बर के रात के 8 बजे के बाद सम्पूर्ण देश में हलचल मची हैं. ऐसा क्यों हैं सबको पता हैं. तबसे से ले कर अब तक केन्द्र की सरकार कुछ लोग सवालों की बौछार कर रहे हैं. कुछ नेता गण कह रहे हैं कि सरकार के नोट बंदी से जनता त्राहि त्राहि कर रही है.
सरकार ने नोट बंदी का फैसला क्यों किया, अब सबको पता चल गया हैं. नोट बंदी का फैसला नकली नोट, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद और आतंकवाद के खात्मे के लिए किया गया हैं. देश में जितना रूपया नकद के रूप में था उनमें से पाँच सौ और एक हजार के नोटो की संख्या करीब 85% थी. ये नोट बड़ी संख्या में किसके पास थे? ये नोट क्या देश के उन 20 करोड़ लोगों के पास थे जो भूखमरी के शिकार हैं? मेरा उत्तर हैं नही. ऐसे लोग मेहनत मज़दूरी करके जो कुछ कमाते हैं रोज़ नूंन तेल आटा खरीद कर भरपेट आधा पेट खाना खाते हैं. मज़दूरी भी पाँच सौ रूपये से कम ही होती हैं. यदि अपवादों को छोड़ दिया जाय तो देश के करीब 20 करोड़ लोग बचत करने की स्थिति में नहीं होते.
जहाँ तक किसानों की बात हैं तो आज भी देश की करीब 60% जन संख्या खेती पर निर्भर करती हैं. इस बार खरीफ की फसल अच्छी हुई हैं. मतलब यह हैं खेती करने वाले लोगों और खेती पर निर्भर मजदूरों के घर में खाने के लिए काफी अनाज. गाँव की दुकानों से उधार सामान ही जाता हैं. महीने पंद्रह दिन पर भुगतान किया जाता हैं. मतलब यह कि रोज़मर्रा की चीजो के लिए भी गाँव मे कोई दिक्कत नहीं हैं.
हाँ किसानों के पास पैसे का अभाव है. यदि वे अपनी पैदावार बेच दिये होते तो उनके मुनाफाखोर व्यापारियों का काला धन अवश्य खप गया होता. इसी तरह से फैक्टरी मे काम करने वाले मज़दूरों के पास भी पैसा नही हैं क्योंकि जिन स्रोतों ( काला धन) का इस्तेमाल उन्हें वेतन के रूप होता उसी स्रोत को बँद कर दिया है.
आज के दिन सरकारी कर्मचारियों -कार्यरत या सेवा निवृत, का भुगतान नकद मे नहीं होता. प्राइवेट कम्पनियों में काम करने वालों का वेतन भी उनके खाते मे जाता हैं. उन्हें भी कोई खास परेशानी नहीं हैं.
परेशानी यदि हैं तो किसको हैं? परेशानी हैं मुनाफाखोर व्यापारियों भवन निर्माण कर्ताओं को , राजनीतिक पार्टियों को, आतंक वादियों को, नक्सलियों को. इनका जो पैसा किसानो और मजदूरों के पास आता था वह अब नहीं आ रहा हैं. इसी तरह से बैंको में जो भीड़ हो रही हैं वह नकदी की कमी के कारण नही बल्कि उन लोगों की वजह से हो रही हैं जो येन केन प्रकारेण काले धन को सफेद करने में जुटे हैं. इस लिए मेरा मानना यह है कि काले धन की वजह से जो तकलीफ हैं उसके सामने लाइन मे खड़े होने वाली तकलीफ नगण्य हैं.हमें याद रखना चाहिए कि आई एफ़ सी के गोदामों मे अनाज सड़ रहे थे और देश की 20 करोड़ जनता भूखों मर रही थी. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद भी वह अनाज गरीबों को नहीं दिया. शोर मचाने वालो के लिए लाइन मे खड़ा होना तो तकलीफदेह है लेकिन सर्दी मे लाखो लोगों का ठिठूरना, गर्मी मे लाखो लोगों का प्यास से तड़पाना, बरसात मे लाखों घरों का उजडना तक़लीफ़ देह नही हैं. वाह रे संगदिल नेता! और वाह रे ऐसे नेताओं के समर्थक!
सरकार ने नोट बंदी का फैसला क्यों किया, अब सबको पता चल गया हैं. नोट बंदी का फैसला नकली नोट, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद और आतंकवाद के खात्मे के लिए किया गया हैं. देश में जितना रूपया नकद के रूप में था उनमें से पाँच सौ और एक हजार के नोटो की संख्या करीब 85% थी. ये नोट बड़ी संख्या में किसके पास थे? ये नोट क्या देश के उन 20 करोड़ लोगों के पास थे जो भूखमरी के शिकार हैं? मेरा उत्तर हैं नही. ऐसे लोग मेहनत मज़दूरी करके जो कुछ कमाते हैं रोज़ नूंन तेल आटा खरीद कर भरपेट आधा पेट खाना खाते हैं. मज़दूरी भी पाँच सौ रूपये से कम ही होती हैं. यदि अपवादों को छोड़ दिया जाय तो देश के करीब 20 करोड़ लोग बचत करने की स्थिति में नहीं होते.
जहाँ तक किसानों की बात हैं तो आज भी देश की करीब 60% जन संख्या खेती पर निर्भर करती हैं. इस बार खरीफ की फसल अच्छी हुई हैं. मतलब यह हैं खेती करने वाले लोगों और खेती पर निर्भर मजदूरों के घर में खाने के लिए काफी अनाज. गाँव की दुकानों से उधार सामान ही जाता हैं. महीने पंद्रह दिन पर भुगतान किया जाता हैं. मतलब यह कि रोज़मर्रा की चीजो के लिए भी गाँव मे कोई दिक्कत नहीं हैं.
हाँ किसानों के पास पैसे का अभाव है. यदि वे अपनी पैदावार बेच दिये होते तो उनके मुनाफाखोर व्यापारियों का काला धन अवश्य खप गया होता. इसी तरह से फैक्टरी मे काम करने वाले मज़दूरों के पास भी पैसा नही हैं क्योंकि जिन स्रोतों ( काला धन) का इस्तेमाल उन्हें वेतन के रूप होता उसी स्रोत को बँद कर दिया है.
आज के दिन सरकारी कर्मचारियों -कार्यरत या सेवा निवृत, का भुगतान नकद मे नहीं होता. प्राइवेट कम्पनियों में काम करने वालों का वेतन भी उनके खाते मे जाता हैं. उन्हें भी कोई खास परेशानी नहीं हैं.
परेशानी यदि हैं तो किसको हैं? परेशानी हैं मुनाफाखोर व्यापारियों भवन निर्माण कर्ताओं को , राजनीतिक पार्टियों को, आतंक वादियों को, नक्सलियों को. इनका जो पैसा किसानो और मजदूरों के पास आता था वह अब नहीं आ रहा हैं. इसी तरह से बैंको में जो भीड़ हो रही हैं वह नकदी की कमी के कारण नही बल्कि उन लोगों की वजह से हो रही हैं जो येन केन प्रकारेण काले धन को सफेद करने में जुटे हैं. इस लिए मेरा मानना यह है कि काले धन की वजह से जो तकलीफ हैं उसके सामने लाइन मे खड़े होने वाली तकलीफ नगण्य हैं.हमें याद रखना चाहिए कि आई एफ़ सी के गोदामों मे अनाज सड़ रहे थे और देश की 20 करोड़ जनता भूखों मर रही थी. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद भी वह अनाज गरीबों को नहीं दिया. शोर मचाने वालो के लिए लाइन मे खड़ा होना तो तकलीफदेह है लेकिन सर्दी मे लाखो लोगों का ठिठूरना, गर्मी मे लाखो लोगों का प्यास से तड़पाना, बरसात मे लाखों घरों का उजडना तक़लीफ़ देह नही हैं. वाह रे संगदिल नेता! और वाह रे ऐसे नेताओं के समर्थक!
Sunday, 23 October 2016
चीन और पाकिस्तान:
चीन और पाकिस्तान:
चीन का मतलब क्या है? पाकिस्तान का मतलब क्या हैं ? चीन या पाकिस्तान का मतलब क्या वहाँ की सरकारो से है या वहां के लोगों से हैं ? मेरी समझ से चीन या पाकिस्तान का मतलब वहां के लोगों से है न कि वहां की सरकारों से या इन देशों की भौगोलिक सीमाओं से. उसी तरह से भारत का मतलब भारत के लोगों से है न कि भारत की सरकार से. यदि चीन और पाकिस्तान भारत की राह मे कांटे बिछा रहें हैं तो उसका सीधा तात्पर्य यह है कि वहां के लोग भारत की सरकार की राह मे नहीं बल्कि भारत की जनता की राह मे कांटे बिछा रहे है. चूंकि पाकिस्तान के कलाकार भी पाकिस्तान के लोगों मे शामिल है इस लिए पाकिस्तान जो कुछ हमारे साथ कर रहा उसके लिए प्रत्यक्ष रूप से भले न सही लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से वे भी ज़िम्मेदार है. यदि पाकिस्तान हमसे दुश्मनी देश करता है तो इसका अर्थ यह है कि वहां की जनता जिसमें वहां के कलाकार भी शामिल है हमसे दुश्मनी कर रही है. क्या ऐसी जनता के हित का ख़याल रखना तर्क संगत है ? पाकिस्तान के कलाकार जो भारत से पैसा कमाते है उस पैसे से पाकिस्तान की सरकार की कमाई होती है और उस कमाई का इस्तेमाल हमें चोट पहुँचाने के लिए क्या नहीं होता ? यकीकन ऐसा होता है. इस स्थिति मे पाकिस्तान का खजाना हमारा फिल्म जगत क्यों भरता है ? क्यों पाकिस्तानी कलाकारों के लिए हमारा फिल्म जगत पलक पावडे बिछाता है? क्यों हम पाकिस्तान से कला और कलाकारों का आयात करते है ? जब चाइनीज सामानों के बहिष्कार की बात हो रही है तो पाकिस्तानी सामानों, कलाओं का बहिष्कार क्यों नहीं ? यदि फिल्म जगत अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए पाकिस्तान की अर्थ व्यवस्था को मज़बूत बनाता है तो क्या फिल्म जगत अपने ही देश के लिए खतरा पैदा नहीं करता ? मैं समझता हूँ कि इन प्रश्नों मे ही उत्तर अंतर्निहित है. इस लिए जब तक पाकिस्तान हमारे साथ अपने रवैये मे बदलाव नहीं करता तब तक न फिल्म जगत को पाकिस्तानी कलाकारों का आयात नहीं करना चाहिए जबकि हमारे देश मे ही कलाकारों की भरमार है.
चीन का मतलब क्या है? पाकिस्तान का मतलब क्या हैं ? चीन या पाकिस्तान का मतलब क्या वहाँ की सरकारो से है या वहां के लोगों से हैं ? मेरी समझ से चीन या पाकिस्तान का मतलब वहां के लोगों से है न कि वहां की सरकारों से या इन देशों की भौगोलिक सीमाओं से. उसी तरह से भारत का मतलब भारत के लोगों से है न कि भारत की सरकार से. यदि चीन और पाकिस्तान भारत की राह मे कांटे बिछा रहें हैं तो उसका सीधा तात्पर्य यह है कि वहां के लोग भारत की सरकार की राह मे नहीं बल्कि भारत की जनता की राह मे कांटे बिछा रहे है. चूंकि पाकिस्तान के कलाकार भी पाकिस्तान के लोगों मे शामिल है इस लिए पाकिस्तान जो कुछ हमारे साथ कर रहा उसके लिए प्रत्यक्ष रूप से भले न सही लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से वे भी ज़िम्मेदार है. यदि पाकिस्तान हमसे दुश्मनी देश करता है तो इसका अर्थ यह है कि वहां की जनता जिसमें वहां के कलाकार भी शामिल है हमसे दुश्मनी कर रही है. क्या ऐसी जनता के हित का ख़याल रखना तर्क संगत है ? पाकिस्तान के कलाकार जो भारत से पैसा कमाते है उस पैसे से पाकिस्तान की सरकार की कमाई होती है और उस कमाई का इस्तेमाल हमें चोट पहुँचाने के लिए क्या नहीं होता ? यकीकन ऐसा होता है. इस स्थिति मे पाकिस्तान का खजाना हमारा फिल्म जगत क्यों भरता है ? क्यों पाकिस्तानी कलाकारों के लिए हमारा फिल्म जगत पलक पावडे बिछाता है? क्यों हम पाकिस्तान से कला और कलाकारों का आयात करते है ? जब चाइनीज सामानों के बहिष्कार की बात हो रही है तो पाकिस्तानी सामानों, कलाओं का बहिष्कार क्यों नहीं ? यदि फिल्म जगत अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए पाकिस्तान की अर्थ व्यवस्था को मज़बूत बनाता है तो क्या फिल्म जगत अपने ही देश के लिए खतरा पैदा नहीं करता ? मैं समझता हूँ कि इन प्रश्नों मे ही उत्तर अंतर्निहित है. इस लिए जब तक पाकिस्तान हमारे साथ अपने रवैये मे बदलाव नहीं करता तब तक न फिल्म जगत को पाकिस्तानी कलाकारों का आयात नहीं करना चाहिए जबकि हमारे देश मे ही कलाकारों की भरमार है.
Saturday, 8 October 2016
Surgical Strike - 2
उन्नत किश्म की बंदूक हैं. उसमें गोली भरी है. बंदूक मेरे हाथ में है. मेरी अंगुलियाँ बंदूक के ट्रिगर पर है. दुश्मन मेरे सामने खड़ा हैं -सीना ताने हुए , आँखें तरेरते हुए. उसे देख कर या किसी और आशंका से मेरी उंगलिओ में कम्पन शुरू हो जाती हैं. ट्रिगर पर मेरी पकड़ ढीली पड़ जाती है. ट्रिगर नहीं दब पाता. मैं बंदूक को ज़मीन पर रख देता हूँ. दुश्मन मेरे ऊपर अट्टहास करता है. उसका दुस्साहस बढ़ जाता है.
सवाल है कि क्या मैं बुजदिल नही हूँ ? क्या मेरे परिवार के लोग मुझ पर शर्मिंदा नहीं होंगे ? मेरी बुज्दीली पर क्या मेरे परिवार वाले अपना सर नहीं पिटेंगे ?
मेरी जगह आप हैं. आपने दुश्मन को सुधरने का अवसर दिया. गिले शिकवे भुला कर दोस्ती का हाथ बढ़ाया. अपने आस पास के लोगों के दिल में आपने जगह बनाई. दुश्मन को गले लगाते हुये आप सावधान रहै कि वह कभी भी छूरा भोंक सकता हैं. आप अपनी शक्ति बढ़ाते रहें. आप सही समय का इंतजार करते रहे. आपने चालाकी की. आप ने दुश्मन पर उसी बंदूक से उस समय गोली दागी जब वह सोया था. आपके सामने सीना तानकर खड़े होने और आँखे तरेरने का उसे मौका ही नहीं मिला.
सवाल यह है कि क्या आपके परिवार वाले आपके ऊपर गर्व नहीं करेंगे ? क्या आपके परिवार वाले आपकी सूझ बूझ सोच और कौशल का गुणगान नहीँ करेंगे, जश्न नहीं मनाएंगे?
बंदूक तो एक ही हैं. सवाल यह है कि ट्रिगर दबाने वाला कौन है? सब कुछ निर्भर करता हैं उस शख्श के ऊपर जिसके हाथ में बंदूक हैं.
यही स्थिति सेना का हैं. सेना वह बंदूक है जिसके ट्रिगर पर सरकार का हाथ है. उक्त उदाहरण में मेरी जगह विगत कुछ सरकारें थी और आप की जगह 1965, 1971 और 1999 में जो सरकारें थी वे थी और वर्तमान सरकार है. उदाहरण में जिस तरह आपके परिवार के लोग जश्न मनाएंगे उसी तरह उक्त सरकारों के परिवारों की तरह वर्तमान सरकार का परिवार अर्थात वह पार्टी जश्न मना रही है और श्रेय ले रही है तो यह स्वाभाविक है. यदि उदाहरण में मेरा परिवार जलन की वजह से आप पर उंगली उठा रहा है तो वह सरासर गलत हैं.
मुझे आशा है कि मेरी मित्र समझ गए होगे कि मेरे कहने का अर्थ क्या हैं. सेना वही है. सेना की कमान सरकार के हाथ में है. सेना की गति सरकार के निर्णय पर आधारित है. सर्जिकल स्ट्राइक का फ़ैसला सरकार का था और उस फैसले को अंजाम देने का काम सेना ने किया. यह इतनी सामान्य सी बात हैं कि इसको समझने के लिए ज्यादा माथापच्ची करने की ज़रूरत ही नहीं हैं. किसी भी दृष्टि से इसका पूरा श्रेय बर्तमान सरकार को जाता हैं. स्वाभाविक हैं सरकार की किसी उपलब्धि पर सबसे अधिक खुशी उस पार्टी को होती हैं जिसकी सरकार होती है.
सवाल है कि क्या मैं बुजदिल नही हूँ ? क्या मेरे परिवार के लोग मुझ पर शर्मिंदा नहीं होंगे ? मेरी बुज्दीली पर क्या मेरे परिवार वाले अपना सर नहीं पिटेंगे ?
मेरी जगह आप हैं. आपने दुश्मन को सुधरने का अवसर दिया. गिले शिकवे भुला कर दोस्ती का हाथ बढ़ाया. अपने आस पास के लोगों के दिल में आपने जगह बनाई. दुश्मन को गले लगाते हुये आप सावधान रहै कि वह कभी भी छूरा भोंक सकता हैं. आप अपनी शक्ति बढ़ाते रहें. आप सही समय का इंतजार करते रहे. आपने चालाकी की. आप ने दुश्मन पर उसी बंदूक से उस समय गोली दागी जब वह सोया था. आपके सामने सीना तानकर खड़े होने और आँखे तरेरने का उसे मौका ही नहीं मिला.
सवाल यह है कि क्या आपके परिवार वाले आपके ऊपर गर्व नहीं करेंगे ? क्या आपके परिवार वाले आपकी सूझ बूझ सोच और कौशल का गुणगान नहीँ करेंगे, जश्न नहीं मनाएंगे?
बंदूक तो एक ही हैं. सवाल यह है कि ट्रिगर दबाने वाला कौन है? सब कुछ निर्भर करता हैं उस शख्श के ऊपर जिसके हाथ में बंदूक हैं.
यही स्थिति सेना का हैं. सेना वह बंदूक है जिसके ट्रिगर पर सरकार का हाथ है. उक्त उदाहरण में मेरी जगह विगत कुछ सरकारें थी और आप की जगह 1965, 1971 और 1999 में जो सरकारें थी वे थी और वर्तमान सरकार है. उदाहरण में जिस तरह आपके परिवार के लोग जश्न मनाएंगे उसी तरह उक्त सरकारों के परिवारों की तरह वर्तमान सरकार का परिवार अर्थात वह पार्टी जश्न मना रही है और श्रेय ले रही है तो यह स्वाभाविक है. यदि उदाहरण में मेरा परिवार जलन की वजह से आप पर उंगली उठा रहा है तो वह सरासर गलत हैं.
मुझे आशा है कि मेरी मित्र समझ गए होगे कि मेरे कहने का अर्थ क्या हैं. सेना वही है. सेना की कमान सरकार के हाथ में है. सेना की गति सरकार के निर्णय पर आधारित है. सर्जिकल स्ट्राइक का फ़ैसला सरकार का था और उस फैसले को अंजाम देने का काम सेना ने किया. यह इतनी सामान्य सी बात हैं कि इसको समझने के लिए ज्यादा माथापच्ची करने की ज़रूरत ही नहीं हैं. किसी भी दृष्टि से इसका पूरा श्रेय बर्तमान सरकार को जाता हैं. स्वाभाविक हैं सरकार की किसी उपलब्धि पर सबसे अधिक खुशी उस पार्टी को होती हैं जिसकी सरकार होती है.
Thursday, 6 October 2016
Surgical Strike - 1
एल ओ सी में सर्जिकल ऑपरेशन का सबूत माँगने वालों देश तुम लोगों से पूछ रहा है कि भारत सरकार सेना के निर्देश का पालन करती है या सेना भारत सरकार के निर्देश का पालन करती है ? 1947 में काश्मीर में सेना स्वयं गई थी या नेहरू जी के आदेश पर गई थी. 1971 में पाकिस्तान के साथ लोहा लेने का फैसला इंदिराजी की सरकार का था या सेना का ? श्रीलंका में हमारी सेना अपनी मर्ज़ी से गई थी या तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गाँधी जी के निर्देश पर गई थी ? लेकिन आप लोगों से तो सवाल ही पूछना बेकार है. इन प्रश्नों का आप कुछ भी जवाब दें सकते हो. जिस समय आप किसी विषय पर बोलते हो उस संयम आपका सारा ध्यान अपने हित साधन पर रहता है. आपकी बातों से भले देश का अहित हो रहा हो लेकिन आप वहीं कहेंगे जिससे आप के क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति हो. आप अपने व्यवसाय को बचाने के लिए दुश्मन देश से हाथ मिला सकते है. हैं तो आप कूप मंडूक लेकिन अग्रेजो की विरासत को कंधो पर लादकर अपने आपको सर्व ज्ञाता समझते है. क्या बेचते है अजित डोवाल आपके सामने ! बजाय डोवाल के सरकार को तो आपसे सलाह लेनी चाहिए !
मेरा सवाल इतना सरल है कि सरल हृदय का कोई भी आदमी सरलता से जवाब दें सकता है. सरल जवाब यह है कि हमारे देश की सेना बेहद अनुशासित है. वह जो भी क़दम उठाती है राष्ट्र पति जी के नाम पर उठाती है जो सेना के उच्चतम कमांडर है. भारत सरकार ने सेनाध्यक्ष राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहार इत्यादि विशेषज्ञों से सलाह लिया और उसके उपरांत सर्जिकल स्ट्राइक की सलाह राष्ट्रपति जी को दिया. यह किसी पार्टी का फैसला नही बल्कि सरकार का फैसला था. भारत सरकार सुरक्षा के मामले में कोई भी फ़ैसला सुरक्षा तंत्र से जुड़े हुये अधिकारियों की सलाह के बगैर नहीँ ले सकती. सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत किसने इकट्ठे किए होगे? जाहिर है कि सेना ने. यदि सेना सलाह देती है कि सबूत को सार्वजनिक करना सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक है तो क्या सरकार मनमानी कर सकती है ? कदापि नहीं. सरकार ने यदि किसी से कहा कि उसने सर्जिकल स्ट्राइक करवाया है तो उसको आधार सेना की रिपोर्ट है. सरकार को घेरने के लिए , उसको नीचा दिखाने के लिए आप सेना की रिपोर्ट पर ही सवाल खड़े कर रहें हैं ? क्या समझा जाय आपको ? मुझे तो यह भी लगता है कि जब सरकार कहेगी कि देश हित सबूतों को सार्वजनिक करना उचित नहीं हैं तो आप यह माँग कर सकते हैं जिसने सरकार से यह कहा है वह सरकार की भाषा बोल रहा है. आप जिस पार्टी की सरकार उस पर अपनी भड़ास निकाले लेकिन उस सरकार को काम करने दें जिसे देश की जनता ने चुन कर भेजा हैं. देश के आंतरिक मामलों में भले ही आप अपनी असहति जाहिर करें लेकिन सुरक्षा और विदेश नीति के मामले में अपने विचार व्यक्त करते हुये देश हित को सर्वोपरि रखें.
मेरा सवाल इतना सरल है कि सरल हृदय का कोई भी आदमी सरलता से जवाब दें सकता है. सरल जवाब यह है कि हमारे देश की सेना बेहद अनुशासित है. वह जो भी क़दम उठाती है राष्ट्र पति जी के नाम पर उठाती है जो सेना के उच्चतम कमांडर है. भारत सरकार ने सेनाध्यक्ष राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहार इत्यादि विशेषज्ञों से सलाह लिया और उसके उपरांत सर्जिकल स्ट्राइक की सलाह राष्ट्रपति जी को दिया. यह किसी पार्टी का फैसला नही बल्कि सरकार का फैसला था. भारत सरकार सुरक्षा के मामले में कोई भी फ़ैसला सुरक्षा तंत्र से जुड़े हुये अधिकारियों की सलाह के बगैर नहीँ ले सकती. सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत किसने इकट्ठे किए होगे? जाहिर है कि सेना ने. यदि सेना सलाह देती है कि सबूत को सार्वजनिक करना सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक है तो क्या सरकार मनमानी कर सकती है ? कदापि नहीं. सरकार ने यदि किसी से कहा कि उसने सर्जिकल स्ट्राइक करवाया है तो उसको आधार सेना की रिपोर्ट है. सरकार को घेरने के लिए , उसको नीचा दिखाने के लिए आप सेना की रिपोर्ट पर ही सवाल खड़े कर रहें हैं ? क्या समझा जाय आपको ? मुझे तो यह भी लगता है कि जब सरकार कहेगी कि देश हित सबूतों को सार्वजनिक करना उचित नहीं हैं तो आप यह माँग कर सकते हैं जिसने सरकार से यह कहा है वह सरकार की भाषा बोल रहा है. आप जिस पार्टी की सरकार उस पर अपनी भड़ास निकाले लेकिन उस सरकार को काम करने दें जिसे देश की जनता ने चुन कर भेजा हैं. देश के आंतरिक मामलों में भले ही आप अपनी असहति जाहिर करें लेकिन सुरक्षा और विदेश नीति के मामले में अपने विचार व्यक्त करते हुये देश हित को सर्वोपरि रखें.
Tuesday, 4 October 2016
सवाल
मैं यह सवाल उन राजनीति लोगों से नहीं पूछ रहा हूँ जो यह माँग कर रहें हैं कि पाकिस्तान के मिथ्या प्रचार की धार कुंद करने के लिए सरकार को संसार के सामने सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत पेश करना चाहिए. मेरा सवाल देश के मतदाताओं से हैं जिन्होंने ऐसे राजनीतिज्ञों को शक्ति प्रदान की है. मैं ऐसे मतदाताओं से पूछना चाहता हूँ कि कब तक ऐसे नेताओं को पैदा करते रहेंगे? ऐसे नेताओं से पूछने चाहिए कि क्या सरकार के निर्णय के बगैर भारतीय सेना एल ओ सी पार कर सकती थी. 1971 में यदि भारत की सेना ने पाकिस्तान से लोहा लिया था तो वह किसके आदेश से लिया था. 1971 के युद्ध के बारे मे यदि कोई सेना का अधिकृत अधिकारी बयान देता है और उस बयान का पाकिस्तान खंडन करता है तो क्या पाकिस्तान या किसी अन्य देश को आश्वस्त करने के लिए क्या हमें सबूत देना चाहिए? मसूद अजहर के आतंक मे लिप्त होने के हमने सबूत दिए तो क्या पाकिस्तान और चीन ने उसे मान लिया ? आखिर कार पाकिस्तान ने कभी हमारी बात सुनी हैं? 1947 से ले कर आज़ तक जब पाकिस्तान ने हमारी बात पर गौर नहीं किया तो आज़ वह कैसे मान लेगा कि जो सबूत हम वे सही हैं? क्या ऐसे नेताओं और अभिनेताओं को शर्म नहीं आनी चाहिए जिनके बयानों को मसूद अजहर भारत की खिल्ली उडाने के लिए इस्तेमाल करता हैं ? लेकिन नहीं. ऐसे नेता और राजनेता पूरी तरह बेशर्म हैं. घर फूटे गँवार लूटे. अब तक पाकिस्तान का कोई नही सुन रहा था. लेकिन क्या पाकिस्तान ऐसे नेताओं के बयानों का उल्लेख अपने नापाक इरादों के लिए नहीं करेगा? क्या इतनी सी छोटी बात ऐसे नेताओं की समझ में नहीं आती ? अवश्य आती है. मेरा यह मानना है कि ऐसे नेता सब कुछ समझते हुये भी क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए देश की अस्मिता से खिलवाड़ करने से भी परहेज़ नहीं करते. ऐसे नेताओं को मुहतोड़ जवाब देने की ज़रूरत है.
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