Saturday 17 September 2016

एक सवाल

गुमान है हमें विश्व का सबसे बड़ा लोक तंत्र कहलाने का. मैं एक सवाल करना चाहता हूँ. लोक तंत्र में व्यक्ति बड़ा होता है या संस्था बड़ी होती है ? जिस व्यवस्था मे संस्था की नहीं बल्कि किसी व्यक्ति और उसके बाल बच्चों की पूजा होती हो उस व्यस्था को क्या कहेंगे - लोक तंत्र या राज़ तंत्र ? जिस व्यवस्था के अन्तर्गत कभी नारा दिया गया हो कि आधी रोटी खाएंगे इंदिरा जी को लाएंगे उस व्यस्था को क्या कहेंगे ? सवाल यह है क्या ऐसा नारा लगाने वाले लोग गुलामी मानसिकता के रोगी नहीँ थे ? क्या ऐसे लोगों के लिए लोकतंत्र का कोई अर्थ था या है ? इसका उत्तर बिल्कुल सरल है. उत्तर यह है कि लोक तंत्र मे तंत्र बड़ा होता व्यक्ति नहीं. दुर्भाग्य से हमारे देश में लोकतंत्र की आड़ में व्यक्ति और परिवार की पूजा होने लगी. देव कान्त बरुआ जी ने तो इंदिरा जी को तो देश का पर्याय ही बना डाला था. इसमें इंदिरा का कोई कसूर नहीं था. कसूर था तो देव कान्त बरुआ और उन जैसे लोगों का था.
कूछ लोग कह सकते है कि यह पुरानी बात हो गई. तर्क दिया जा सकता है कि उस समय शिक्षा का स्तर बहुत निम्न था, लेकिन आज़ वैसी स्थिति नहीं है. यह भी कहा जा सकता है कि आज़ साक्षरता का स्तर ऊँचा है. मतदाता जागरूक हो गया है और लोकतंत्र मजबूत हुआ है. मैं यहाँ तक सहमत हूँ कि मतदाता जागरूक हो गया है. लेकिन इस बात से सहमत नहीं हूँ कि लोक तंत्र मज़बूत हुआ. आजादी के बाद पूरे देश में सिर्फ एक परिवार का वर्चस्व था. उस संयम लोक तंत्र केर सभी संस्थाएं उसी परिवार के और उस परिवार से संबंधित लोगों से संचालित होती थी. लेकिन आज़ कुछ प्रदेशों की संस्थाओं पर ख़ास व्यक्ति , परिवारों और उनके सगे संबंधियों का ही कब्जा है. यह लोक तंत्र के मजबूत होने का या कमज़ोर होने का प्रमाण है ? क्या ऐसा ब्रिटेन , कनाडा और अमेरिका मे भी होता है ? क्या कर रहें है जॉर्ज बुश सीनियर और जूनियर , बिल क्लिंटन ? क्या करेंगे बराक ओबामा ? मारग्रेट थैचर के परिवार वाले कहा है ? डेविड कैमरून से किसने कहा था इस्तीफा देने के लिए ? क्या हमारे देश की पार्टियों मे प्रतिभा को आगे बढ़ने का पूरा मौका मिलता है? जाहिर है कि एक दो पार्टियों को छोड़ दिया जाय तो किसी भी पार्टी में लोक तंत्र नहीं है. जब पार्टियों मे लोकतंत्र नहीं है तो उस प्रदेश मे लोकतंत्र कैसे हो सकता है जिन प्रदेशों मे ऐसी पार्टियाँ शासन कर रहीं है? निष्कर्ष यह है कि हमारे देश में जो लोक तंत्र है उसमें सडान्ध आ गई है. अवसर है हमारे पास ? आइए हम सब मिल कर उस सडान्ध को दूर करें. यह तभी सम्भव है कि हम दूर द्रष्टि का परिचय देते हुये व्यक्ति वाद और परिवार बाद से देश और प्रदेशों को मुक्त कराने का हर संभव प्रयास करें. तभी हम सबसे बड़े लोकतंत्र का खिताब पाने के हकदार होंगे.

Monday 5 September 2016

शिक्षक दिवस

गुरुर्बह्मा गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वर:, गुरुर्साक्षात परम ब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः
ध्यान मूलं गुरुर्मूर्ति, पूजा मूलं गुरुर्पदम्, मंत्र मूलं गुरुर्वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरुर्कृपा
आज शिक्षक दिवस है. शिक्षक दिवस समस्त विश्व में मनाया जाता है. विभिन्न देशों में यह दिवस विभिन्न तिथियों को मनाया जाता है. शिक्षक दिवस के दिन शिष्य अपने शिक्षकों को याद करते हैं और उन्हें विभिन्न तरीकों से सम्मानित करते हैं. हमारे देश में यह दिवस डॉ. सर्वपल्ली राधा कृष्णन के जन दिवस अर्थात पाँच सितम्बर को मनाया जाता है.
संसार में कोई भी ऐसा नहीं है जिसके व्यक्तित्व के निर्माण में उसके शिक्षकों का योगदान न हो. दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद भी हमारे देश में ऐसे वातावरण का निर्माण नहीं हुआ जिसमें शिक्षक अपने आप को उपेक्षित महसूस करते है. मैं उन गिने चुने शिक्षकों की बात कर रहा हूँ जो अपने मन वचन और कर्म से शिक्षक हैं. मैं उन तथाकथित शिक्षकों की बात नहीं कर रहा हूँ जो हड़ताल करते हैं और अपने अधिकारों की माँग करते हुए सड़क पर उतर आते हैं. मैं उन तथाकथित शिक्षकों की बात नहीं कर रहा हूँ जिन्होंने ने अपने हित के लिए संगठन बना रखा है और जो अपने वचन और कर्म से विद्वान कम राजनीतिक अधिक पैदा करते हैं. यह दिवस उन तथाकथित शिक्षको को समर्पित नहीं है जिन्होंने शिक्षा संस्थानों को राजनीति का अखाड़ा बना दिया है. ऐसे शिक्षक मेरे हिसाब से शिक्षक के नाम पर कलंक है.
क्या ऐसा तथाकथित शिक्षक सम्मान पाने के अधिकारी है जो घर बैठे वेतन लेते हैं. मुझे कहने में संकोच नहीं है कि आज हमारे देश में अपवाद स्वरूप ही शिक्षक बचे हैं और जो हैं भी उन्हें कभी मौका नहीं मिलता कि वे समाज को रास्ता दिखाएं. आज हमारे देश में यदि किसी वर्ग को सबसे अधिक सम्मान मिलता है तो वह वर्ग यकीनन शिक्षक नहीं है. वह राजनीतिज्ञों वर्ग है. परिणाम स्वरूप रोजगार के नाम पर भले ही कोई शिक्षक बन जाय, लेकिन सम्मान और इज्जत के लिए व्यक्ति किसी दूसरे क्षेत्र का चयन करता है. सम्मान और इज्जत के लिए कोई शिक्षक नहीं बनना चाहता.
शिक्षक प्रतिभावान और विद्वान होता है. समाज का चेहरा यदि कोई बदल सकता है तो वह शिक्षक है. लेकिन आज के दिन शिक्षकों का अकाल है. हमारे सामने जो भी दिखाई देता है वह शिक्षक कम वेतन भोगी कर्मचारी अधिक है.
निजी क्षेत्र के विद्यालयों की निम्न कक्षाओं में तो फिर भी गनीमत है लेकिन विश्वविद्यालय स्तर के शिक्षकों का चरित्र कैसा है, इसका जीता जागता उदाहरण दिल्ली का एक विश्वविद्यालय है. जिस विश्वविद्यालय के छात्र अपने आपको शिक्षक से भी बड़ा समझते हो, शिक्षक का मजाक उड़ाते हों, देश द्रोह का नारा लगाने को अभिव्यक्ति की आज़ादी बताते हो, जिस विश्व विद्यालय के छात्र जाति और धर्म के नाम पर बटे हुए हों और राजनीतिज्ञों द्वारा पोषित हो, उस विश्वविद्यालय के और उसी तरह के अन्य विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के बारे में क्या कहा जा सकता है. आज अधिकाँश विश्वविद्यालय राजनीति का आखाड़ा बन गए हैं. इन विश्वविद्यालयों से शोध कर्ता और विद्वान कम, राजनीतिक और नौकर शाह अधिक निकलते है. यही कारण है कि हमारे देश के विश्वविध्यालय विश्व में कहीं नहीं ठहरते. आवश्यकता इस बात की है कि देश में इस तरह के महौल का निर्माण हो कि सबसे अधिक सम्मान शिक्षकों को मिले ताकि शिक्षक बनना हर आदमी का सपना हो. काबिले गौर है कि ए.पी.जे. अब्दुल कलाम साहब की सबसे बड़ी इच्छा यह थी कि वैज्ञानिक और राष्ट्रपति से अधिक उन्हें शिक्षक कहलाना अधिक पसंद था.