मित्रों इस संसार में सब को खुश करना असम्भव है. जो क्रांतिकारी होता है वह रास्ता खुद बनाता है. मुकाम तक पहुँचने के लिए उसे सहयोग की आवश्यकता अवश्य होती है. लेकिन यदि सहयोग नहीं मिलता, लोग उसके मक़सद को नहीं पाते, सहयोग की जगह उस क्रांतिकारी पर पत्थर बरसाते है, उसे ज़हर पिलाते है सूली/फाँसी पर लटकाते है फ़िर भी उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता. वह आगे बढ़ता चला जाता है. इस लिए कि उसे विश्वास होता है कि वह जो कुछ कर राहा है अपने लिए नहीं बल्कि उन लोगों के जिनकी आँखो पर पट्टी बँधी है और उन्हें पता नहीं है कि वे कहाँ भटक रहें है. ऐसे क्रांति कारी गाली सुनेंगे , पत्थर खाएंगे, ज़हर पीयेंगे , सूली पर चढेगे लेकिन गाली देने वालों, पत्थर मारने वालों, ज़हर पिलाने वालों, सूली पर चढाने वालों के प्रति कुत्सित भाव नहीँ रखेंगे. एक कहावत है कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है लेकिन माता कुमाता नहीँ हो सकती. महात्मा बुद्ध ने पत्थर खाये , ईसा मसीह को सूली पर चढ़ा दिया गया, सुकरात को ज़हर का प्याला दिया गया, राजा राम मोहन रॉय गालियाँ सुनते रहें लेकिन सती प्रथा के अंत के लिए समर्पित रहें, लेकिन इन क्रान्ति कारियों के चेहरे पर ज़रा सी भी शिकन नहीं आई. जब भी परिवर्तन होता है परिवर्तन कर्ता को मुसीबतों का सामना करना पड़ता है. परिवर्तन वही लाता है जिसके अंदर मुसीबतों को झेलने का साहस होता है. हमें मुफ्त और खैरात की आदत पड़ चुकी है. आज तक हमारी इस कमजोरी का कुछ चतुर लोग फायदा उठाते रहें है. नोट बंदी चतुराई का काम नही है यह जोखिम भरा काम है. यह लोक लुभावन वाला फैसला नहीं है. यह फैसला अपने आप में अद्वितीय है. अच्छी नियत से लिए गये फैसले का परिणाम अच्छा होगा ऐसा मुझे लगता है. इसका अहसास हमें तभी होगा जब हम राजनीति के चश्मे से इसे न देखे.
This is my personal blog where I put my thoughts and views over various topics.
Monday 12 December 2016
Sunday 11 December 2016
अर्थशास्त्र नोट बंदी का.
माफ़ कीजिए मैं अर्थशास्त्री नहीं हूँ, लेकिन अर्थशास्त्र का सामान्य और व्यवहारिक ज्ञान मुझे अवश्य है. मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि टी वी पर जिन लोगों को नोट बंदी पर बहस करते हम देख और सुन रहे है,उनमें से अपवाद स्वरूप ही सही अर्थ में अर्थशास्त्री है. मेरी समझ से टीवी पर बहस करने वाले लोगों का अर्थशास्त्र ज्ञान मात्र अपना हित साधन तक सीमित है. जिन लोगों ने खेत में कभी पैर नहीं रखा होगा वे भी किसानों के दुःख दर्द की बात कर रहे हैं. जो गाँव कभी नही रहे वे भी कह रहे हैं कि गाँव के लोगों को बहुत परेशानी हो रही है. ऐसे लोगों को पता नही है कि गाँव में रोज़मर्रा का खर्च कैसे चलता हैं. जो लोग गाँव में नहीं रहें या कभी खेत में पैर नहीं रखा उन लोगों को मैं बताना चाहता हूँ कि गाँव में खाने पीने के लिए दुकान पर निर्भर नहीं रहना होता. उन्हें किसी भी चीज़ के लिए रोजाना भुगतान नहीं करना पड़ता. हप्ते, पन्द्रह दिन या महीने में उन्हें दुकान से खरीदी गयी चीजो का भुगतान करना होता हैं. उनका बिल भी बहुत अधिक नहीं होता. गाँव के लोग पंद्रह दिन में एक बार लाइन में खड़े हो गये तो उन्हें ख़ास परेशानी नहीं झेलनी पड़ती. कुछ लोग गला फाड़ फाड़ कर चिल्ला रहें हैं कि नोट बंदी की वजह से किसान बहुत परेशान हैं. उनके पास बीज और खाद खरीदने के लए पैसे नहीं हैं.जहाँ तक बीज का प्रश्न हैं, मेरा अनुभव यह कहता हैं कि अधिकाँश किसानों को बीज के लिए बाजार का चक्कर नहीं लगाना पड़ता. खेत की पैदावार से ही वे अगली फसल के लिए बीज सुरक्षित रख देते हैं. अब प्रश्न उठता है खाद का. मेरा अनुभव यह कहता है कि खाद की ज़रूरत सभी फसलों के लिए नहीं पड़ती. इसकी ज़रूरत मुख्य रूप से गेहूँ की बुवाई में पड़ती हैं. गेहूँ की बुवाई अक्टूबर के पहले सप्ताह से शुरू हो जाती हैं और दिसम्बर के पहले हप्ते तक चकती. रवी की बुवाई के लिए किसान पहले से ही पैसे इत्यादि की व्यवस्था करके रखता हैं. आग लगने पर वह कुआँ नहीं खोदता. अतः मुझे नहीं लगता कि नोट बंदी की वज़ह से बुआई पर कोई खास असर पडा है. बल्कि यह कहा जा सकता है कि कोई असर नही पड़ा है. यदि नोट बंदी का बुवाई पर असर पड़ा होता तो इस साल पिछले साल की अपेक्षा अधिक बुवाई नही हुई रहती.अब मै गाँव में रहने वाले उस वर्ग की चर्चा करना चाहता हूँ जिसके पास खेत नहीं है मगर उनकी जीविका खेती पर ही निर्भर करती है. इस वर्ग के लोग किसानों की मदद करते हैं. उनका काम सेवा क्षेत्र में आता हैं. सेवा क्षेत्र वर्ग में लुहार, बढ़ई, नाई , धोबी, कुम्हार इत्यादि आते हैं. इनको इनकी सेवाओं के बदले किसानों से अनाज मिलता हैं. इनकी माली हालत मध्यम दर्जे के किसान की हैं. गाँव में यदि किसी के पास पैसा नहीं हैं बल्कि अनाज है तो वह अनाज देता हैं और उसके बदले कोई और चीज़ ले लेता हैं. अतः गाँव में किसी के पास अनाज हैं और पैसा नहीं हैं तो उसका काम चल जाता हैं.किसानों में छोटे और मझोले किसानों की संख्या ज्यादा हैं. बड़ी जोत वाले किसान मुट्ठी भर हैं. इन्हीं लोगों के पास अतिरिक्त अनाज पैदा होता हैं. दुर्भाग्य से इन्हीं किसानों के बारे में बात की जाती हैं. किसानों का यह वर्ग मुखर हैं. दिल्ली जाकर धरना प्रदर्शन यही वर्ग करता हैं. बेचारे छोटे और मझोले किसानों के पास तो साल भर पेट भरने का भी अनाज पैदा नहीं होता. अनाज मंडी क्या होती हैं वे यह भी नहीं जानते. दुर्भाग्य से जब किसानों की बात होती है तो बड़ी जोत की कीसानो की ही बात होती. देश की अस्सी प्रतिशत जनता अभी भी गाँवो में रहती हैं. यदि अपवादों को छोड़ दिया तो कहा जा सकता है कि देश के नब्बे प्रतिशत लोगों को कोई ख़ास परेशानी नोट बंदी की वज़ह से हुई. यह परेशानी कैंसर से मुक्ति के लिए मरीज़ रेडिओ के शॉक की तरह हैं. दोस्तों नोट बंदी से सबको परेशानी है. लेकिन इतनी बड़ी परेशानी नहीं है कि इसी सहा न जा सके.
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