Friday 26 August 2016

A message to TIMES OF INDIA

मिस्टर टाइम्स ऑफ इंडिया, मैं आपको पढ़ता हूँ. किस लिए पढ़ता हूँ ? सिर्फ समाचार के लिए. आपका सम्पादकीय पढ़ कर मुझे हमेशा हँसी आती है. मैं जानता हूँ कि आप मेरे जैसे लोगों के लिए किस तरह के विशेषण का प्रयोग करेंगे. मुझे यह भी पता है कि आप मेरे और मेरे जैसे लोगों पर हँसेंगे. हँसिए और जी भर कर हँसिए. उसी तरह हँसिए जिस तरह अँग्रेज हमारे ऊपर हँसते थे. 
मिस्टर टाइम्स ऑफ इंडिया, आप माने या न माने लेकिन मैं यहीं कहूँगा कि आप भौतिक रूप से स्वतंत्र ज़रूर हैं मगर मानसिक रूप से अब भी गुलाम हैं. आप के अन्दर हीनता की भावना मुझे दिखाई देती है.
मैंने आज़ का आपका सम्पादकीय पढा. आपने अपने सम्पादकीय की शुरुवात "oudated moralism" शब्दों से की है. इन शब्दों का हिंदी में मतलब पुराने ज़माने की नैतिकता से हैं. भइया मिस्टर टाइम्स ऑफ इंडिया, मैं पुराने ज़माने का नहीं हूँ. जिन लोगों के संदर्भ में आपने उन शब्दों का प्रयोग किया है, वे भी शायद पुराने ज़माने के नहीं है. हम में और आप में जो सबसे बड़ा फर्क है वह यह है कि आपके लिए नैतिकता भी नई और पुरानी है. जबकि हमारे लिए नैतिकता अजर है. नैतिकता सदा सर्वदा नूतन है.
आपने नैतिकता के रूप को कभी देखा ही नहीं. भौतिकता के चश्मे से नैतिकता नहीं दिखाई देती. आपके लिए नैतिकता का कोई मूल्य नहीं है. जबकि मेरे और मेरे जैसे लोगों के लिए नैतिकता समाज की आत्मा हैं. नैतिकता कभी भी outdated नहीं हो सकती. यदि समाज से नैतिकता ख़त्म हो गई तो हम अपने आप तक उसी तरह सीमित हो जाएंगे जिस तरह जानवर अपने आप तक सीमित रहते है. समाज और नैतिकता का निर्माण आपने नहीं की है, अत: आप नैतिकता शब्द के मूल तत्व को नहीं समझ सकते. मुझे तो लगता है कि आपने कभी नैतिकता का पाठ पढ़ा ही नहीं है.
मिस्टर टाइम्स ऑफ इंडिया , कृपया व्यक्ति केंद्रित सिद्धांत की वकालत करके समाज की आत्मा अर्थात नैतिकता के साथ ऐसा सलूक मत कीजिए. जिस तरह से प्राण निकल जाने पर चलता फिरता शरीर मुर्दा हो जाता है उसी तरह से समाज से यदि नैतिकता निकल गई तो समाज भी बेजान हो जाएगा.

Wednesday 17 August 2016

पाखंड एक राज़ नेता का

यदि हम अपने देश की राजनीति पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि कुछ राजनेता या नेत्री ऐसे हैं जो खुले आम जाति, धर्म, औऱ क्षेत्र की बात करते हैं. उनके समर्थको की सोच सिर्फ उनकी जाति, धर्म औऱ क्षेत्र के लोगों तक सीमित रहती है. उनके लिऐ देश उतना महत्वपूर्ण नहीं हैं जितना कि उनके नेता. अपने नेता के आगे वे किसी तरह का प्रश्न चिन्ह बर्दाश्त नहीं कर पाते. ऐसे लोगों के बारे में कहा जा सकता है कि उनकी आस्था लोकतंत्र में नहीं राजतंत्र में हैं. ऐसा राज़ तंत्र जिसका राजा ऐसे लोगों की जाति, धर्म का या क्षेत्र का व्यक्ति होता हैं. ऐसे लोग फ़िर भी समझ में आते हैं. वे खुल्लम खुल्ला जाति, धर्म या क्षेत्र की बात करते हैं. वे पाखंडी नहीं हैं.वे धोखेबाज़ नहीं हैं. ऐसा नहीं हैं कि वे राम राम की माला जपते हैं औऱ जब कोई राम भक्त उनके करीब जाता हैं वे अपने बगल में रखे हुये छूरे से उसे घायल कर देते हैं. इसके विपरीत कुछ ऐसे राजनेता हैं जो पाखंडी हैं. वे औऱ उनके परिवार वाले जाति, धर्म औऱ क्षेत्र की संकीर्णता में आकंठ डूबे होते हैं मगर दिखावा ऐसा करते हैं कि वे जाति औऱ धर्म की राजनीति नहीं करते. वे धर्म निरपेक्ष होने का नाटक करते हैं. पर वे सबसे बड़े धोखे बाज औऱ पाखंडी हैं.
एक ऐसे राजनीतिज्ञ है, जो कभी नौकर शाह थे. उन्होंने राजनीति में शुचिता लाने का हम सबसे वादा किया. लगा था कि वे राजनीति में आकर आदर्श पस्तुत करेंगे. नीर क्षीर विवेक का उनमें दर्शन होगा. वे किसी की आलोचना नहीं बल्कि गुण दोष के आधार पर समालोचना करेंगे. लेकिन हुआ उसका उल्टा. उन्होंने संकीर्णता की सारी सीमायें तोड़ दी हैं. उनको ऐसी पार्टियों और नेताओं में कोई कमी नज़र नहीं आती जिनका दामन दागदार रहा हैं. उनके साथी भी ऐसे है जिनमें से किसी ने समाज सेवा नहीं की हैं. मैं जब पहले से स्थापित नेताओं से उनकी तुलना करता हूँ तो पाता हूँ कि उनकी राजनीति निकृष्टतम स्तर की हैं. उनकी राजनीति में शुचिता का लेश मात्र भी नहीं हैं.
मैं उस किसी भी नेता या व्यक्ति को सही नहीं मानता जिसे किसी अन्य पार्टी या नेता या व्यक्ति में सिर्फ बुराइयां ही नज़र आती हैं और कोई भी अच्छाई नज़र नहीं आती. मुझे उम्मीद थी कि जिस नेता की मै बात करता हूँ उसकी सभी बातें सारगर्भित होगी, उसकी दृष्टि सम्यक होगी
, वह उच्च शिक्षित लोगों के लिऐ एक मॉडल होगा. मगर अफसोस कि वह नेता उच्च शिक्षा के नाम पर एक धब्बा बन कर रह गया है. उसमें नम्रता का अभाव हैं. उनके रोम रोम में अहंकार भरा हुआ हैं. आज़ की तारीख में यदि मुझसे कोई पूछे कि चर्चतित नेताओं में सबसे सारहीन और सबसे बड़ा पाखंडी नेता कौन हैं तो मेरी निगाह में वही हैं. वह पूरी तरह से संकीर्णता में डूब चुके हैं. मै उस नेता का नाम नहीं ले रहा हूँ. मेरे मित्र समझ गये होगे कि आखिर वह हैं कौन.

Tuesday 16 August 2016

हीनता की भावना:

मूझे लगता हैं कि जो लोग अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन करने की कोशिश करते हैं वे वास्तव में कुलीनता के भाव से नहीं बल्कि हीनता के भाव से ग्रसित होते है. मै एक वाकया का जिक्र कर रहा हूँ. वाकया इलाहाबाद मेडिकल कॉलेज की हैं. मेडिकल कॉलेज के परिसर में ही मेरे एक दूर के रिश्तेदार रहते थे. मैं उनके यहाँ गया था. सितम्बर का महीना था. हल्की हल्की बूदा बादी हो रहीं थी. मैंने पैंट औऱ शर्ट पहन रखी थी. बूंदा बांदी से सर को बचाने के लिऐ मैंने सर पर एक तौलिया रखा था. मेरे पहुँचने के पहले मेडिकल कॉलेज के फोर्थ ईयर के एक छात्र बैठे थे. उन्होने एक टाई बाँध रखी थी. जब मै ड्राइंग रूम में दाखिल हुआ तो उन्होने बड़े गौर से मुझे दो तीन बार देखा. मैं समझ नहीं पाया कि उन्होंने मुझे दो तीन बार क्यों देखा. खैर उनसे नहीं रहा गया. वे मुझसे पूछ ही बैठे -भाई साहब आप बलिया के तो नहीं हैं ? मैंने कहा कि मैं बलिया का ही हूँ. मेरा जवाब सुनकर वे हल्का सा मुस्कराए. मैंने पूछा -भाई साहब आपको कैसे पता चला कि मैं बलिया का रहने वाला हूँ. उन्होंने बलिया वालों का मजाक उडाने के लहजे में कहा - बलिया वाले पैंट शर्ट के साथ साथ गमछा भी लिए रहते हैं. मैने कहा कि हाँ आपका कहना बिल्कुल सही हैं. मैंने पूछा कि क्या पैंट शर्ट पर गमछा नहीं लेना चाहिए ? उन्होने ने जवाब दिया कि पैंट औऱ शर्ट पर गमछा ठीक नहीं लगता. मैने कहा कि बलिया वाले पैंट शर्ट के ऊपर गमछा लेते हैं उसका तर्क संगत कारण हैं.ऐसा कहने के बाद मैंने पूछा कि आपने जो टाई बांध रखी है उसके पीछे क्या तर्क हैं ? हैं इसका कोई लॉजिक हैं? इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था. मैंने कहा कि आपके अन्दर हीनता की भावना हैं. आपने मान लिया हैं अंग्रेजों की वेष भूषा ही सर्व श्रेष्ठ थी. आपने मान लिया हैं वे कुलीन थे औऱ उनके जैसा वेष भूषा औऱ रहन सहन ही कुलीनता का प्रतीक हैं. आपको भारतीय होने पर शर्म आएगी. मुझे बलियाटिक औऱ भारतीय होने पर गर्व हैं. मेरी बातें सुन कर वे हक्का बक्का रह गए थे. उन्होने मेरी योग्यता पूछी. यह भी पूछा कि आप कहाँ काम करते हैं. उसी समय मेरे रिश्तेदार नहा कर बाथ रूम से बाहर आये औऱ मेरी तरफ़ से उनके सवालों के जवाब दिए. पाश्चात्य संस्कृति में जो लोग आकंठ डूबे हैं औऱ जो साधारण वेष भूषा वालों को हिकारत की नज़र से देखते हैं वे हीन भावना के शिकार हैं.

Sunday 14 August 2016

सत्तर साल आज़ादी के: हमने क्या पाया क्या खोया?

सत्तर साल आज़ादी के: हमने क्या पाया क्या खोया? कौन जीता औऱ कौन हारा? सवाल यह भी है कि हमारी आज़ादी का स्वरूप क्या है ? 
कल पंद्रह अगस्त है. आज़ादी की सत्तरहवी वर्षगांठ है कल. हर वर्ष की तरह कल भी हम पुरानी लीक पर चलेंगे. कल के बाद हम उसी ढर्रे पर वापस आ जाएंगे जिस ढर्रे पर हम चल रहें है. हम इस बात पर शायद ही विचार करें कि गत सत्तर सालों में हमारा भारत किस हद तक स्वस्थ हुआ है औऱ किस हद तक अस्वस्थ. अत : आज़ादी की सत्तरहवी वर्ष गाँठ की पूर्व तिथि को मैं इसका आकलन करने की कोशिश कर रहा हूँ.
सबसे पहले मै आज़ादी के स्वरूप पर दृष्टिपात कर रहा हूँ. यदि हम 15 अगस्त 1947 के पहले के भारत के स्वरूप पर गौर करेंगे तो हम पाएंगे कि हम भौतिक रूप से ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी गुलाम थे. हम अपनी पहचान खो चुके थे. दिन लोगों ने हमारे देश पर कब्जा कर रखा था उनकी सोच ही हमारी सोच बन गयी थी. हमारे देश में जो अभिजात्य वर्ग था उसकी वेषभूषा, रहन सहन, खान पान , भाषा इत्यादि बिल्कुल तत्कालीन विदेशी शासकों के नक्सल थे. उस नक़ल की वजह से वे विदेशियों के दरबार में सम्मान पाते थे. उन्हीं लोगों के माध्यम से विदेशियों का हित साधा जाता है. सवाल यह है कि आज़ादी के बाद क्या उक्त सोच से देश को निजात मिल गयीं ? मेरे हिसाब से नहीं. उस सोच में कमी नही बल्कि वृद्धि ही हुई. आज़ भी हमारे ऊपर पाश्तात्य संस्कृति औऱ सोच का भूत सवार है. अत: मेरा यह मानना है कि आज भी हमारे देश को विदेशी सोच औऱ विदेशी संस्कृति से आज़ादी का इंतज़ार है. हम कह सकते कि हमारे देश की आज़ादी का स्वरूप भौतिक है न कि मानसिक औऱ सांस्कृतिक.
दूसरा सवाल यह है कि हमने क्या पाया औऱ क्या खोया. आज़ादी के बाद हमने पाया, कम खोया अधिक. आज़ादी के बाद जो हमें ऊर्जा मिली उस ऊर्जा को हमने देश को मज़बूत बनाने में नहीं बल्कि कमज़ोर करने में किया. गांधी औऱ पटेल जैसा लोक नायक हमें जय प्रकाश में मिला था. ये तीनों किसी खास वर्ग के नायक नहीं थे. उनकी सोच के दायरे में सभी लोग आते थे. दुर्भाग्य से आज़ तीनों हाशिए पर है. इन लोगों पर
खाश तबके औऱ क्षेत्र का प्रतिनिधीत्व करने वाले औऱ संकीर्ण सोच वाले लोग हावी हो गए. बड़ी मेहनत औऱ सूझ बूझ से पटेल ने इस देश को एक अखंड स्वरूप दिया था. आज़ उस स्वरूप को ख़तरा नज़र आ रहा है. खतरा बाहर से वहीं अन्दर से है. जाति धर्म औऱ क्षेत्र की संकीर्णता कैंसर का रूप लेती जा रहीं है. यह सब देख कर गाँधी, पटेल औऱ जयप्रकाश की आत्मा कराह रहीं होगी.निष्कर्ष यह है कि आज़ हमने लोक नायकों को कहो दिया है. एक आदमी है जो जूझ रहा है देश को समस्याओं के दलदल से बाहर निकालने के लिऐ. लेकिन उसकी जितनी टांग खींची जा रहीं है वैसी टाँग खिचायी आज़ादी के लोक नायको की भी नहीँ हुई थी.
अब सवाल यह है कि आज़ादी के सत्तर सालों में कौन हारा कौन जीता? इसका उत्तर स्पष्ट है. स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है कि सम्यक सोच औऱ दृष्टि वाले हार गये है. जो लोग इस देश में जाति, वर्ग , धर्म, क्षेत्र औऱ भाषा की राजनीति करते है वे जीत गये है.
निष्कर्ष यह है कि हमने सत्तर सालों में आज़ादी के शहीदों के अरमानो को कुचल दिया है. देश को तोड़ने की बात करने वाले लोग देश में समर्थन पास रहें है. देश की एकता औऱ अखंडता की बात करने वाले लोगों का मजाक उडाया जा रहा है.
उक्त बातों के मद्देनज़र मै अपने मित्रों का एतद्द्वारा आह्वान कर रहा हूँ कि हमने जो सत्तर साल में खोया उन्हें पुनः प्राप्त करने के किए आगे बढ़े.

स्वरूप काली पूजा का तब औऱ अब

 मेरे गाँव में एक वर्ग पूरे गाँव की तरफ़ से काली पूजा करता आ रहा है. काली पूजा को सम्पन्न करने के लिऐ गाँव के प्रत्येक परिवार से सदस्य संख्यानुसार चंदा लिया जाता था. बिना किसी भेदभाव के गाँव के सभी लोग काली पूजा में भाग लेते थे. आज़ जब मै सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि इस सार्वजनिक पूजा से गाँव में एकता बनती थी. काली पूजा का अवसर आपसी वैमनस्य को ख़त्म करने में सहायक होता था.
एक परिवार पहले से ही चंदा तैयार रखता था. चंदा पगडी औऱ चूल्हे की संख्या के आधर पर होता. पुरूष ( बच्चो सहित ) को पगडी औऱ औरत ( बच्ची सहित ) को चुल्हा कहा जाता था. प्रत्येक परिवार ईमानदारी के साथ चंदा देता था.
काली पूजा में बकरे की बलि दी जाती थी. तेज धार वाले हथियार से बकरे के सर को धड़ से अलग कर देते थे. बकरे के शरीर के दोनों हिस्से अलग अलग तड़पने लगते थे. कुछ देर बाद दोनों हिस्से शांत हो जाते थे. नजारा बहुत दर्दनाक औऱ हृदय विदारक हो जाता था. एक बार देखने के बाद मैंने कभी काली पूजा नहीं देखी थी. मेरे जैसे बहुत से लोग थे.
शुक्रवार अर्थात 12.8.2016 को भी काली पूजा थी. इसका पता मुझे 11.8.2016 को उस समय चला जब काली पूजा के लिऐ चंदा लिया जा रहा था. चंदा लेने वाला आदमी जब चला गया तो मैंने एक आदमी से पूछा कि क्या काली पूजा के दौरान बकरे की बलि दी जाएगी ? उस आदमी की बात सुन कर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई.
12.8.2016 को बाजे गाजे के साथ गाँव जुलूस निकाला गया. उसी दिन शाम को गाँव से मै बलिया मुख्यालय जा रहा था. रास्ते में हर जगह काली पूजा का आयोजन होते मैंने देखा. मेरी जिज्ञासा यहीं थी कि उनमें उक्त प्रथा कायम थी कि नहीं. मुझे उक्त प्रथा के कायम रहने के संकेत कहीं से नहीं मिल रहें थे. मैंने इसके बारे में ड्राइवर से भी पूछा. उसने बताया कि उसके गाँव में भी अब बकरे की बलि नहीं दी जाती. निष्कर्ष यह है कि हमारे क्षेत्र में इस पुरानी प्रथा का खात्मा हो चुका है. अब सवाल यह है कि यह प्रथा ख़त्म कैसे हुई ? कानून से ? जनान्दलन से ? बकरे की बलि देने वालों को डराने धमकाने या मारने पीटने से? नहीं. यदि यह प्रथा ख़त्म हुई है तो सोच में परिवर्तन से ख़त्म हुई. यह उदाहरण इस बात की ओर संकेत करता है कि समाज में सुधार कानून बना कर, आंदोलन से, या ज़बरदस्ती करके नहीं लाया जा सकता. उसके लिये ऐसा माहौल बनाना ज़रूरी है जिसमें लोगों की सोच में बदलाव आ सके.

Saturday 13 August 2016

ज़रा सोचिए,कहीं हम समस्या तो नहीं हैं ?

ज़रा सोचिए,कहीं हम समस्या तो नहीं हैं ?
एक बार एक उच्चाधिकारी ने हम लोगों को सम्बोधित करते हुए कहाँ था कि जब आप लोग मेरे पास कोई समस्या ले कर आएं तब उसके साथ समाधान भी ले कर आयें. बिना समाधान के यदि सिर्फ समस्या लेकर आते हैं तो आप खुद समस्या हैं. उनकी यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी थी. आज़ भी उनकी कहीं हुई बात को अक्सर मैं दुहराता हूँ. 
मुझे लगता हैं उक्त बात सार्वभौमिक औऱ सर्वकालिक हैं. आज़ हम देखते हैं कि अत्र, तत्र, सर्वत्र हम सिर्फ समस्याओं को गिनाते हैं औऱ समस्याओं पर चर्चा करते हैं. टीवी पर औऱ यहाँ तक कि हमारी सर्वोच्च संवैधानिक संस्था में भी हमें समस्याओं पर मात्र चर्चा सुनने को मिलती हैं. हाँ , कभी कभी समस्या के साथ साथ माँग भी की जाती है. लेकिन यदि अपवादों को नज़रंदाज़ कर दिया जाय हम या कोई सुझाव ले कर सामने नहीं आता. माँग करने वाला व्यक्ति या संगठन जब किसी चीज़ की माँग करता हैं तो वह यह नहीं बताता कि उसकी मांगे कैसे पूरी की सकती हैं. ऐसी स्थिति में मुझे लगता हैं कि यदि कोई व्यक्ति या संगठन किसी भी प्लेटफ़ॉर्म से बिना किसी सम्यक समाधान के समस्या की बात करता है या मांग रखता है तो वह व्यक्ति या संगठन खुद समस्या है. ऐसे व्यक्ति या संगठन की इस प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना राष्ट्र की प्रगति में अवरोध उत्पन्न करना है.

Sunday 7 August 2016

मन मे सम्मान एक पुत्र का पिता के प्रति

आज़ ही सुबह मैंने ' मतलब दोस्ती का शीर्षक' से एक पोस्ट लिखा है. इस समय अपने उसी दोस्त के बारे में बताना चाहता हूँ. मेरा वह दोस्त अपने पिता का बहुत सम्मान करता था. उनकी सभी आज्ञाओ का पालन करता था. अपने पिता के लिऐ उसके दिल मे बहुत सम्मान था. वह अपने पिता से कभी बहस नहीं करता था. उसके पिता भी अपने पुत्र पर गर्व था. वह एम.ए. कर चुका था. 
मैं जिस वाकया का जिक्र करने जा रहा हूँ , वह भी एक बारात का है. हमारे यहाँ बारात के आगमन पर शामियाने मे ही शाम को आवभगत और अगले सुबह विदाई के समय एक ट्रे मे छोटा छोटा कटा हुआ सूखा नारियल, किशमिश, खजूर इत्यादि का मिश्रण और दूसरे ट्रे मे सिगरेट, बीडी,पान , तम्बाकू इत्यादि रख कर लड़की पक्ष लड़के पक्ष के प्रत्येक सदस्य के सामने ले जाता है. जिसको जो चाहिए होता है वह ट्रे में से उठा लेता है. हम लोग एक बारात में गए थे. कुछ लड़को ने शौकिया सिगरेट उठा लिया. मेरे दोस्त ने भी अन्य लड़को की तरह सिगरेट लिया. मुझे उसका सिगरेट लेना अच्छा नहीं लगा. मुझे उसकी पिताजी की उस दिन की बात याद गई जिस दिन शराब पीने की अफवाह सुन कर मेरे पास आये थे मुझसे अपने पुत्र के सम्बंध में पूछताछ की थी. मुझे लगा कि मेरा दोस्त अपने पिताजी का विश्वास तोड़ रहा है.वह उस पिता का विश्वास तोड़ रहा था जिन्हें अपने पुत्र पर गर्व था. मुझे लगा कि अपने दोस्त को सिगरेट पीने से रोकना चाहिए. मैंने उसे शामियाने के बाहर के गय़ा और बताया कि उसके पिता जी उस पर कितना विश्वास करते है. मैंने कहा कि उस पिता का विश्वास तोड़ रहें हो जिसका तुम्हारे ऊपर अटूट विश्वास ही नही है बल्कि गर्व भी है. जब उसने मेरी बातें सुनी तो वह भावुक हो गया और वहीं पर सिगरेट के टुकडे तुकडे कर के फेक दिया. मैं अपने दोस्त पर पहले से ही गर्व करता था. मगर उस घटना के बाद मुझे ऐसा लगा कि मेरा सिर और ऊँचा हो गया. इस वाकया से यह भी निकल कर सामने आता है कि दोस्त वही है जो दोस्त को सही सलह दे , उसको गलत रास्ते पर जाने से रोके.

मतलब दोस्ती का

कल के पोस्ट में मैंने शिक्षा और दम्भ शीर्षक के अन्तर्गत इस बात पर जोर दिया था कि सम्मान पाने के लिऐ मात्र उच्च शिक्षा ही पर्याप्त नहीं हैं. सम्मान पाने के लिऐ आवश्यक हैं कि शिक्षित व्यक्ति के अंदर संस्कार और इंसानियत हो. आज मैं दोस्ती का मतलब क्या हैं उस पर अपना विचार करने जा रहा हूँ.

जैसा कि मैंने कल के पोस्ट में लिखा हैं , गाँव की बारातों में अक्सर चारपाई के लिऐ मारा मारी रहती थी. हम लोग एक बारात में गए थे. नाई की बारात थी. वहाँ भी रात में सोने के लिऐ पर्याप्त चारपाईया नहीं था. अक्सर ऐसा होता था कि जो बुजुर्ग होता था उसको बारात में प्राथमिकता दी जाती थी. कम उम्र का आदमी बुजुर्ग के लिऐ अपने आप चारपाई छोड़ देता था. यदि कोई अपने आप चारपाई खाली नहीं करता था तो जिसकी बारात होती थी वह अनुनय विनय करके चारपाई खाली करवा था. उस बारात में दो तीन दबंग किश्म के युवकों ने पहले से ही चारपाईया हथिया रखी थी. एक बुजुर्ग आए. उनका गाँव मे कोई विशेष स्थान नहीं था. कुछ युवकों को उन दबंग युवकों का आचरण कभी ठीक नही लगता था. उन युवकों में मैं और मेरा दोस्ती भी था. संयोग से वह बुजुर्ग मेरे दोस्ती की की खानदान का था. उसने नाई से कहाँ कि आप एक चारपाई खाली करवा दो. नाई गय़ा. उसने हिम्मत की चारपाई खाली करवाने की मगर वह सफल नहीं हो पाया.उसने वापस आ कर अपनी असमर्थता बताई. फ़िर क्या था? कुछ युवक ज़बरदस्ती चारपाई खाली करवाने लगे. उस दौरान मेरे दोस्त और उन दबंग युवकों मे कहा सुनी हो गई. मैंने अपने दोस्त की बात का समर्थन किया. उसी दौरान एक दो बुजुर्ग जग गए. दबंग युवकों ने उन बुजुर्गो की बात मान ली और चारपाईया खाली कर दी. 


गाँव वापस आ कर उन दबंग युवकों ने अफवाह फैला दी कि मेरे दोस्त ने शराब के लिऐ तकरार की थी. दोस्त के साथ मेरा भी नाम उन सबों ने जोड़ दिया. मेरे पिता जी को तो मेरे ऊपर अंध विश्वास था. इतना विश्वास था कि मेरे खिलाफ किसी भी बात पर वे यकीन नहीं कर सजते थे. लेकिन मेरे दोस्त के पिता जी को अपने बेटे से अधिक मेरे ऊपर यकीन था. जब यह बात उन तक पहुँची तो उन्हें भी विश्वास नहीं हुआ. फ़िर भी वो मेरे पास आये. जब मैंने उक्त घटना को विस्तार से बताने लगा तो उन्होंने मुझसे कहा कि सफाई देने की कोई ज़रूरत नहीं. तुम्हारा इतना कहना ही काफी है वैसा कूछ नहीं हुआ था. तुम्हारे ऊपर मुझे पूरा भरोसा है.


मैंने इस वाकया का जिक्र सिर्फ यह रेखांकित करने के लिये किया कि दोस्ती की आत्मा विश्वास हैं. विश्वास भी ऐसा जो दोस्तो से आगे बढ़कर उनके परिजनों के दिल मे उतर जाय. यदि ऐसा नहीं है तो मेरी समझ में वह दोस्ती नहीं है. दुर्भाग्य से आज सिर्फ एक साथ बैठ कर गप शाप करना, हा हा ही ही करना , मौज मस्ती करना और इसी तरह का काम करने को दोस्ती की संज्ञा दी जाती है. मैं उन तमाम लोगों से माफी चाहता हूँ जो ऐसे क्रियाकलापों को ही दोस्ती समझते है

Saturday 6 August 2016

शिक्षा और दम्भ

शिक्षा और दम्भ : मैं बहुत पहले की एक बात का जिक्र करने जा रहा हूँ. उस समय तक मुझे विज्ञान मे स्नातक की डिग्री मिल चुकी थी. मैं एक बारात मे गया था. बारात मेरे गाँव से गई थी. रात मे सोने के लिए बहुत कम चारपाइया उपलब्ध थी. कूछ लोगों ने पहले से ही चारपाइयो पर कब्जा कर रखा था. उन लोगों मे एक युवक भी था जिसकी उम्र उन बाकी लोगों से कम थी जो चारपाईयों पर लेते हुए थे. वह युवक कला में परास्नातक था. बारात में एक सम्मानित व्यक्ति भी थे. वे भी परास्नातक थे. वे खाना खा कर आए तो उनके सोने के लिए कोई भी चारपाई नही थी. वे एक कुर्सी पर बैठे थे. मैं भी उनके पास ही बैठा था. मैं भी गाँव के अग्रणी युवकों मे था. हमारे ही बीच का एक युवक यह देखने गया कि उक्त सम्मानित व्यक्ति के लिए कौन चारपाई छोड़ सकता था. हमारे बीच का युवक उस युवक के पास गया जिसका मैं ऊपर जिक्र कर चुका. हमारे बीच के उस युवक ने यही सोचा कि उम्र जो सबसे कम है उसी से चारपाई छोड़ने के लिए कहना उचित होगा. हमारे बीच के उक्त युवक ने जब उस लड़के से चारपाई छोड़ने के लिए कहा तो उसने पूछा किसको सोना है. जब उक्त सम्मानित व्यक्ति का नाम लिया गया तो उक्त लड़के ने सवाल दागा.बोला कि मुझमें और उक्त सम्मानित व्यक्ति मे क्या फर्क हैं. वे भी परास्नातक हैं और मैं भी परास्नातक हूँ.
उसके कहने का मतलब क्या था ? शायद वह यह कहना चाहता था कि समाज मे उसी व्यकि को सम्मान का अधिकार हैं जो शिक्षित हो.
जब इस बात का पता मुझे लगा तो मैं उसके पास गया. वह मेरा सम्मान करता था. रिश्ते मे मेरा भतीजा भी लगता था. मै जब उसके पास गया तो वह उठ कर बैठ गया. मैंने उससे पूछा कि तुम मुझे क्यों सम्मान देते हो. मैं तो स्नातक हूँ और तुम परास्नातक हो. उसने कहा कि चाचा आपकी बात अलग हैं. मैंने उससे कहा कि तब यह कहो न सम्मान के लिऐ मात्र शिक्षा ही काफी नहीं है. शिक्षा के अलावा आदमी के अंदर कूछ खास भी होना चाहिए. मैने उससे यह भी कहा कि भारतीय संस्कॄति में यदि कोई उम्र दराज़ है वह सम्मान पाने का हक़दार हैं भले ही एह अशिक्षित हो या किसी ऊँचे पद पर न हो. मैने कहा कि जिस व्यक्ति के चारपाई चाहिए वे सिर्फ परास्नातक ही नहीं है बल्कि बहुत कुछ है. सभी लोग उनका सम्मान करते हैं , मैं भी करता हूँ. मेरी बात का उसके पास कोई उत्तर नहीं था. वह मुस्कराते चारपाई से उठ गय़ा.
वैसे तो मैं इस वाकया के माध्यम से क्या कहना चाहता हूँ ,सुस्पष्ट हैं. फ़िर भी उपसंहार के तौर पर मैं कहना चाहता हूँ कि उच्च शिक्षित हो कर यदि हम आदमी नहीं बन पाते, शिक्षा का इस्तेमाल हम समाज की बेहतरी के लिऐ नही करते बल्कि निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिऐ करते हैं तो हमें सम्मान की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. हमें उसी से सम्मान की अपेक्षा करनी चाहिए जिसको हम सम्मान देते हैं. बद्किश्मति से आज का शिक्षित वर्ग मात्र बौधिक क्षमता और शिक्षा के बल पर सम्मान की अपेक्षा करता है. उसकी एक ही वजह हैं पुरातन संस्कृति का क्षय होना.

Tuesday 2 August 2016

‘मनोविज्ञान- परम्परा, प्रचलन और कर्मकांड कांड का : भाग-3

‘मनोविज्ञान- परम्परा, प्रचलन और कर्मकांड कांड का’ शीर्षक से पोस्ट भाग –1 और भाग-2 में मैंने इस बात पर प्रकाश डालने की कोशिश की है कि गाँवों में जो प्रचलन हैं उनका संबंध धार्मिकता से अधिक मनोवैज्ञानिकता से है. अंतिम संस्कार तक जिन परम्पराओं का पालन किया जाता है, उनका आधार किस तरह से मनोवैज्ञानिक है. उस पर मैं चर्चा कर चुका हूँ. अब मैं उससे आगे बढ़ रहा हूँ. 
अंतिम संस्कार सम्पन्न करने के बाद मुखाग्नि देने वाले व्यक्ति ‘घंट’ टाँगता है. ‘घंट’ मिट्टी का एक छोटा सा घड़ा होता है. घड़े की पेंदी में छेद कर दिया जाता है. उस छेद से कपड़े की एक बाती बाहर निकली रहती है. मुखाग्नि देने वाला व्यक्ति उस घंड़े में पानी भरता है. उसके बाद उस घड़े को पीपल के पेड़ के तने में रस्सी के सहारे लटका दिया जाता है. मुखाग्नि देने वाला व्यक्ति रोज सुबह और शाम नहा कर भीगे कपड़े में ही पीपल के पेड़ के पास जाता है. वह पेड़ का पाँच चक्कर लगाता है. मुझे याद नहीं है कि वह प्रत्येक बार घड़े में पानी डालता है या पेड़ के तने में पानी डालता है. घड़े का पानी बूंद बूंद कर टपटकता रहता है. वह पानी पेड़ के तने पर गिरता है. उस पानी का वाष्पीकरण बहुत कम होता है क्योंकि सूरज की किरणे उस पर नहीं पड़ पाती. परिणाम यह होता है कि वह पानी रिसता हुआ पेड़ की जड़ तक पहुँचता है. 
पीपल के पेड़ के बारे में हमें पता है कि वह पेड़ रात को ऑक्सीजन का उत्सर्जन करता है. इसी लिए पीपल के पेड़ को पवित्र माना जाता है. गाँव के लोग पीपल और नीम के पेड़ की पूजा करते है. पीपल का पेड़ तो गाँव के बाहर लगया जाता है लेकिन नीम का पेड़ गाँव के भीतर लगाया जाता है. कहा जा सकता है कि पीपल के पेड़ पर देवताओं का वास रहता है और नीम के पेड़ पर देवियों का. 
जब देवी पूजा होती है उस समय हमारे यहाँ देवी गीत गाया जाता है. वह गीत इतना मधुर होता है कि सुनने वाला भक्ति में डूब जाता है. गीत है: ‘निमिया के डार मइया लावेली हिलोरवा की की झुली झुली ना. मइया 
गावेली गितिया की झुली झुली न.’ ऐसा गीत गा कर महिलाएं देवी को प्रसन्न करती है. इतना नहीं जब बड़ी माता (चेचक) का प्रकोप होता है जिस व्यक्ति को चेचक होता है उसकी राहत के लिए नीम के पत्ते का इश्तेमाल किया जाता है. 
इन दोनों पेड़ों की पूजा गाँवो में कबसे हो रही है, इसका किसी को पता नहीं है. मुझे लगता है कि अनुसंधान, प्रयोग अनुभव के आधार पर जब लोगों को पता चला होगा कि वे पेड़ हमारे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है, तब से उन पेड़ों की पूजा शुरू हुई होगी.
पर्यावरण के संरक्षण और सम्बर्धन के लिए आज लिखित कानून है. लेकिन उस समय शायद लिखित कानून नहीं रहा होगा. उस समय के लोग धर्म भीरु थे. मुझे लगता है कि पीपल और नीम जैसे औषदीय महत्व के पेड़ों के संरक्षण और सम्बर्धन के लिए लोगों में आस्था का प्रादुर्भाव किया गया होगा. बताया जाता है कि मृत्यु के उपरांत आत्मा भटकती रहती है. वह भूखी प्यासी रहती है. इस लिए आत्मा की तृप्ति के लिए ग्यारह दिन तक पीपल के पेड़ को पानी दिया जाता है. ऐसा करते हुए व्यक्ति के मन में सवाल नहीं उठता कि वह जो कर रहा है, कहाँ तक तार्किक है. ऐसा सोचना भी उसको अपराध जैसा लगता है. वह अपने दिवंगत प्रिय के नाम पर हर तरह का कष्ट उठाने के लिए तैयार रहता है. उसको यह भी लगता है कि वह पश्चाताप कर रहा है. किसका पश्चाताप? उन गुनाहों का जिसे उसने जाने अनजाने अपने प्रिय को तकलीफ पहुँचा कर की होती है. पश्चाताप करके उसको शांति मिलती है. वह अपने आप को हल्का महसूस करता है. उसके दिल पर जो बोझ होता है वह धीरे धीरे कम होने लगता है. वह यह समझ कर पानी देता है कि वह पानी उसके दिवंगत प्रिय जन को पहुँच रहा है. लेकिन वह पानी रिसते हुए के पेड़ की जड़ में जाता है पेड़ को हरा भरा रखता है. इस प्रकार वह अपने मन को शांत तो करता ही है समाज का भी भला करता है. 
घंट टंगवाने के काम एक वर्ग करता है जिसे महापात्र कहा जाता है. यह माना जाता है कि महापात्र के माध्यम से ही दिवंगत आत्मा को सामग्री पहुँचाई जाती है. उस दिन जब तक महापात्र आ कर अन्न ग्रहण नहीं कर लेते तब तक कोई भी अन्न ग्रहण नहीं करता. कुछ लोगों को यह कर्म कांड लगेगा. उनको इसमें कोई सार्थकता नजर नहीं आती. लेकिन मुझे नजर आती है. इस कर्म कांड का मेरे अनुसार भावनात्मक पक्ष है. जिस व्यक्ति का स्वर्गवासी व्यक्ति से खास लगाव था उस व्यक्ति को कुछ भी अच्छा नहीं लगता. हर वक्त उसकी याद उसे आती रहती है. जब वह खाना खाने जाता तो उसको यह याद आज जाता कि जिसके साथ वह खाना खाता था आज वह नहीं है. ऐसी स्थिति में उसके गले से निवाला नीचे नहीं जा सकता था. इसी लिए घंट टंगने के पहले वह अन्न ग्रहण नहीं करता. यह भी सही है कि कोई भी व्यक्ति बहुत दिन तक बिना अन्न के नहीं रह सकता. इस लिए महापात्र के माध्यम से पहले दिवंगत आत्मा को अन्न पहुँचाया जाता है उसके बाद वह व्यक्ति और बिरादरी के लोग एक साथ बैठ कर अन्न ग्रहण ग्रहण करते हैं. जिस व्यक्ति ने दाह लिया होता है सबसे पहले वह अपने मुँह में निवाला डालता है. उसके बाद सभी लोग खाना शुरू करते हैं. उस समय भी उस व्यक्ति के गले से निवाला नीचे नहीं जा पाता. लेकिन जब वह देखता है कि उसके साथ साथ बाकी लोग भी भूखे हैं तो न चाहते हुए भी उसको अपने गले के नीचे निवाला उतारना पड़ता है. यह रश्म है, कर्म कांड है , प्रचलन है लेकिन इसका उस व्यक्ति के लिए ही नहीं, समाज के लिए भी बहुत बड़ा महत्व है. इससे दु:ख और सुख में एक साथ रहने की भावना विकसित होती है जो समाज के लिए अति आवश्यक है. 
घंट टंगने के बाद जो खाना खाया जाता है वह बिल्कुल सादा होता है. सिर्फ चावल और अरहर की दाल होती है. दाल में बिना नमक और हल्दी की होती है. उसके साथ सब्जी वगैरह नहीं होती. दाल में सेधा नमक डाला जा सकता है. 
बिरादरी के बाकी लोग तो पत्तल में खाते है और दाह संस्कार करने वाला आदमी मिट्टी के बर्तन में खाता है. एक बार जो उसको दे दिया जाता है वही वह खाता है. दुबारा नहीं माँग सकता. उसका जूठन कोई दूसरा नहीं उठाता. उसे ही उठाना पड़ता है. 
उस दिन के बाद से सभी लोग अन्न ग्रहण करना शुरु कर देते है. लेकिन खाना वैसा होता है जिस तरह का दाह संस्कार करने वाला व्यक्ति खाता है. खाने में सरसो का तेल, हल्दी , नमक, लहसुन, प्याज का इस्तेमाल नहीं होता. तड़का भी नहीं लगाया जाता. मतलब यह है कि उस व्यक्ति के साथ पूरी बिरादरी फीका खाना खाती है. ऐसा खाना जिसमें खूशबू न हो. मेरी समझ से यह सब इस लिए किया जाता है कि गमगीन व्यक्ति यश समझे कि गम में वह अकेले नहीं है बल्कि पूरी बिरादरी उसके साथ है. बिरादरी द्वारा उस व्यक्ति के लिए कष्ट उठाना उस व्यक्ति की पीड़ा को कम करने में सहायक होता है. 
दाह कर्म से तेरह दिन तक के समय को गमी कहा जाता है गमी के दौरान बिरादरी में कोई भी नया काम नहीं होता, उस दौरान कोई नया कपड़ा नहीं खरीदता. अच्छा खाने से और नये कपड़े पहनने से क्यों परहेज किया जाता है? उसके पीछे क्या कारण हो सकता है? इसका कोई सीधा सादा जवाब नहीं मिलता. लेकिन यदि हम यदि इस पर विचार करें तो पाएंगें कि अच्छा खाना खाना और अच्छे कपड़े पहनना एन्ज्वॉय करने की श्रेणी में आता है. जिस व्यक्ति का प्रिय बिछुड़ गया है उसको तो खाना ही अच्छा नहीं लगता तो वह अच्छा खाना कैसे खा पाएगा. इस लिए उसका साथ देने के लिए पूरी बिरादरी ही न अच्छा खाना खाती है और न नया कपड़ा पहनती है. इसका उस व्यक्ति पर सकारात्मक असर पड़ता है जब वह पाता है कि उसके साथ साथ पूरी बिरादरी ही दु:खी है. उस उक्त प्रचलन का मेरे हिसाब से यह मनोविज्ञानिक ही नहीं बल्कि सामाजिक पक्ष है. 
दाह लेने वाले व्यक्ति को रात में अकेला नहीं छोड़ते. ऐसा माना जाता है कि अकेले में दिवंगत आत्मा जो भटक रही है उसके पास सकती है. दिवंगत आत्मा के प्रभाव में वह आदमी सकता है. दिवंगत आत्मा के प्रभाव से उस आदमी का कहीं नुकसान न हो, इस लिए वह व्यक्ति जहाँ पर सोता है उसके कमरे के बाहर कोई अवश्य सोता है. पता नहीं आज यह प्रचलन है कि नहीं है. ऐसा क्यों होता है, उसका कारण मेरे समझ से यह है कि जब आदमी रात में अकले होगा तो वह दिवंगत व्यक्ति के बारे में सोचेगा. एक बार दिवंगत व्यक्ति उसके खयालों में आ गया तो फिर वह आसानी से बाहर नहीं निकल सकता. उस दौरान वह आदमी भावना में बहकर कुछ भी कर सकता है. वह अपनी जान भी दे सकता है. इस चीज की सम्भावना को खत्म करने के लिए उस आदमी को अकेला नहीं छोड़ा जाता.
उक्त आदमी के सामने दिन में गरुड़ पुराण का पाठ किया जाता है. गरुण पुराण में जिस तरह से वर्णन किया गया है, वह बहुत ही भयावह है. बहुत ही बीभत्स दृष्य को उसमें दर्शाया गया है. उसमें यह भी लिखा गया कि यदि दाह लेने वाला व्यक्ति तेरह दिनों तक संयम का परिचय नहीं दिया तो उसे मृत्यु के उपरांत उसे तरह तरह की यातना से गुजराना पड़ता है. यह सब जान कर वह आदमी इतना भयभीत हो जाता है कि उसका सारा का सारा ध्यान संयम बरतने, नियमों का पालन करने और कर्मकांडों पूरा करने मे लग जाता है. 
कहने का मतलब यह है कि किसी भी व्यक्ति के देहांत के बाद आचरण के लिए जो नियम बनाए गए हैं उनका मनोवैज्ञानिक और सामाजिक आधार है. इस लिए जो तथाकथित प्रगतिशील सोच के लोग हैं उनको पुरानी परम्पराओं, रूढ़ियों और कर्मकांडों का मजाक न उड़ा कर उनकी सार्थकता पर विचार करना चाहिए और यह भी देखना चाहिए कि क्या वे आज भी सार्थक हो सकती है.