Friday, 26 August 2016

A message to TIMES OF INDIA

मिस्टर टाइम्स ऑफ इंडिया, मैं आपको पढ़ता हूँ. किस लिए पढ़ता हूँ ? सिर्फ समाचार के लिए. आपका सम्पादकीय पढ़ कर मुझे हमेशा हँसी आती है. मैं जानता हूँ कि आप मेरे जैसे लोगों के लिए किस तरह के विशेषण का प्रयोग करेंगे. मुझे यह भी पता है कि आप मेरे और मेरे जैसे लोगों पर हँसेंगे. हँसिए और जी भर कर हँसिए. उसी तरह हँसिए जिस तरह अँग्रेज हमारे ऊपर हँसते थे. 
मिस्टर टाइम्स ऑफ इंडिया, आप माने या न माने लेकिन मैं यहीं कहूँगा कि आप भौतिक रूप से स्वतंत्र ज़रूर हैं मगर मानसिक रूप से अब भी गुलाम हैं. आप के अन्दर हीनता की भावना मुझे दिखाई देती है.
मैंने आज़ का आपका सम्पादकीय पढा. आपने अपने सम्पादकीय की शुरुवात "oudated moralism" शब्दों से की है. इन शब्दों का हिंदी में मतलब पुराने ज़माने की नैतिकता से हैं. भइया मिस्टर टाइम्स ऑफ इंडिया, मैं पुराने ज़माने का नहीं हूँ. जिन लोगों के संदर्भ में आपने उन शब्दों का प्रयोग किया है, वे भी शायद पुराने ज़माने के नहीं है. हम में और आप में जो सबसे बड़ा फर्क है वह यह है कि आपके लिए नैतिकता भी नई और पुरानी है. जबकि हमारे लिए नैतिकता अजर है. नैतिकता सदा सर्वदा नूतन है.
आपने नैतिकता के रूप को कभी देखा ही नहीं. भौतिकता के चश्मे से नैतिकता नहीं दिखाई देती. आपके लिए नैतिकता का कोई मूल्य नहीं है. जबकि मेरे और मेरे जैसे लोगों के लिए नैतिकता समाज की आत्मा हैं. नैतिकता कभी भी outdated नहीं हो सकती. यदि समाज से नैतिकता ख़त्म हो गई तो हम अपने आप तक उसी तरह सीमित हो जाएंगे जिस तरह जानवर अपने आप तक सीमित रहते है. समाज और नैतिकता का निर्माण आपने नहीं की है, अत: आप नैतिकता शब्द के मूल तत्व को नहीं समझ सकते. मुझे तो लगता है कि आपने कभी नैतिकता का पाठ पढ़ा ही नहीं है.
मिस्टर टाइम्स ऑफ इंडिया , कृपया व्यक्ति केंद्रित सिद्धांत की वकालत करके समाज की आत्मा अर्थात नैतिकता के साथ ऐसा सलूक मत कीजिए. जिस तरह से प्राण निकल जाने पर चलता फिरता शरीर मुर्दा हो जाता है उसी तरह से समाज से यदि नैतिकता निकल गई तो समाज भी बेजान हो जाएगा.

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