‘मनोविज्ञान- परम्परा, प्रचलन और कर्मकांड कांड का’ शीर्षक से पोस्ट भाग –1 और भाग-2 में मैंने इस बात पर प्रकाश डालने की कोशिश की है कि गाँवों में जो प्रचलन हैं उनका संबंध धार्मिकता से अधिक मनोवैज्ञानिकता से है. अंतिम संस्कार तक जिन परम्पराओं का पालन किया जाता है, उनका आधार किस तरह से मनोवैज्ञानिक है. उस पर मैं चर्चा कर चुका हूँ. अब मैं उससे आगे बढ़ रहा हूँ.
अंतिम संस्कार सम्पन्न करने के बाद मुखाग्नि देने वाले व्यक्ति ‘घंट’ टाँगता है. ‘घंट’ मिट्टी का एक छोटा सा घड़ा होता है. घड़े की पेंदी में छेद कर दिया जाता है. उस छेद से कपड़े की एक बाती बाहर निकली रहती है. मुखाग्नि देने वाला व्यक्ति उस घंड़े में पानी भरता है. उसके बाद उस घड़े को पीपल के पेड़ के तने में रस्सी के सहारे लटका दिया जाता है. मुखाग्नि देने वाला व्यक्ति रोज सुबह और शाम नहा कर भीगे कपड़े में ही पीपल के पेड़ के पास जाता है. वह पेड़ का पाँच चक्कर लगाता है. मुझे याद नहीं है कि वह प्रत्येक बार घड़े में पानी डालता है या पेड़ के तने में पानी डालता है. घड़े का पानी बूंद बूंद कर टपटकता रहता है. वह पानी पेड़ के तने पर गिरता है. उस पानी का वाष्पीकरण बहुत कम होता है क्योंकि सूरज की किरणे उस पर नहीं पड़ पाती. परिणाम यह होता है कि वह पानी रिसता हुआ पेड़ की जड़ तक पहुँचता है.
पीपल के पेड़ के बारे में हमें पता है कि वह पेड़ रात को ऑक्सीजन का उत्सर्जन करता है. इसी लिए पीपल के पेड़ को पवित्र माना जाता है. गाँव के लोग पीपल और नीम के पेड़ की पूजा करते है. पीपल का पेड़ तो गाँव के बाहर लगया जाता है लेकिन नीम का पेड़ गाँव के भीतर लगाया जाता है. कहा जा सकता है कि पीपल के पेड़ पर देवताओं का वास रहता है और नीम के पेड़ पर देवियों का.
जब देवी पूजा होती है उस समय हमारे यहाँ देवी गीत गाया जाता है. वह गीत इतना मधुर होता है कि सुनने वाला भक्ति में डूब जाता है. गीत है: ‘निमिया के डार मइया लावेली हिलोरवा की की झुली झुली ना. मइया
गावेली गितिया की झुली झुली न.’ ऐसा गीत गा कर महिलाएं देवी को प्रसन्न करती है. इतना नहीं जब बड़ी माता (चेचक) का प्रकोप होता है जिस व्यक्ति को चेचक होता है उसकी राहत के लिए नीम के पत्ते का इश्तेमाल किया जाता है.
इन दोनों पेड़ों की पूजा गाँवो में कबसे हो रही है, इसका किसी को पता नहीं है. मुझे लगता है कि अनुसंधान, प्रयोग अनुभव के आधार पर जब लोगों को पता चला होगा कि वे पेड़ हमारे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है, तब से उन पेड़ों की पूजा शुरू हुई होगी.
पर्यावरण के संरक्षण और सम्बर्धन के लिए आज लिखित कानून है. लेकिन उस समय शायद लिखित कानून नहीं रहा होगा. उस समय के लोग धर्म भीरु थे. मुझे लगता है कि पीपल और नीम जैसे औषदीय महत्व के पेड़ों के संरक्षण और सम्बर्धन के लिए लोगों में आस्था का प्रादुर्भाव किया गया होगा. बताया जाता है कि मृत्यु के उपरांत आत्मा भटकती रहती है. वह भूखी प्यासी रहती है. इस लिए आत्मा की तृप्ति के लिए ग्यारह दिन तक पीपल के पेड़ को पानी दिया जाता है. ऐसा करते हुए व्यक्ति के मन में सवाल नहीं उठता कि वह जो कर रहा है, कहाँ तक तार्किक है. ऐसा सोचना भी उसको अपराध जैसा लगता है. वह अपने दिवंगत प्रिय के नाम पर हर तरह का कष्ट उठाने के लिए तैयार रहता है. उसको यह भी लगता है कि वह पश्चाताप कर रहा है. किसका पश्चाताप? उन गुनाहों का जिसे उसने जाने अनजाने अपने प्रिय को तकलीफ पहुँचा कर की होती है. पश्चाताप करके उसको शांति मिलती है. वह अपने आप को हल्का महसूस करता है. उसके दिल पर जो बोझ होता है वह धीरे धीरे कम होने लगता है. वह यह समझ कर पानी देता है कि वह पानी उसके दिवंगत प्रिय जन को पहुँच रहा है. लेकिन वह पानी रिसते हुए के पेड़ की जड़ में जाता है पेड़ को हरा भरा रखता है. इस प्रकार वह अपने मन को शांत तो करता ही है समाज का भी भला करता है.
घंट टंगवाने के काम एक वर्ग करता है जिसे महापात्र कहा जाता है. यह माना जाता है कि महापात्र के माध्यम से ही दिवंगत आत्मा को सामग्री पहुँचाई जाती है. उस दिन जब तक महापात्र आ कर अन्न ग्रहण नहीं कर लेते तब तक कोई भी अन्न ग्रहण नहीं करता. कुछ लोगों को यह कर्म कांड लगेगा. उनको इसमें कोई सार्थकता नजर नहीं आती. लेकिन मुझे नजर आती है. इस कर्म कांड का मेरे अनुसार भावनात्मक पक्ष है. जिस व्यक्ति का स्वर्गवासी व्यक्ति से खास लगाव था उस व्यक्ति को कुछ भी अच्छा नहीं लगता. हर वक्त उसकी याद उसे आती रहती है. जब वह खाना खाने जाता तो उसको यह याद आज जाता कि जिसके साथ वह खाना खाता था आज वह नहीं है. ऐसी स्थिति में उसके गले से निवाला नीचे नहीं जा सकता था. इसी लिए घंट टंगने के पहले वह अन्न ग्रहण नहीं करता. यह भी सही है कि कोई भी व्यक्ति बहुत दिन तक बिना अन्न के नहीं रह सकता. इस लिए महापात्र के माध्यम से पहले दिवंगत आत्मा को अन्न पहुँचाया जाता है उसके बाद वह व्यक्ति और बिरादरी के लोग एक साथ बैठ कर अन्न ग्रहण ग्रहण करते हैं. जिस व्यक्ति ने दाह लिया होता है सबसे पहले वह अपने मुँह में निवाला डालता है. उसके बाद सभी लोग खाना शुरू करते हैं. उस समय भी उस व्यक्ति के गले से निवाला नीचे नहीं जा पाता. लेकिन जब वह देखता है कि उसके साथ साथ बाकी लोग भी भूखे हैं तो न चाहते हुए भी उसको अपने गले के नीचे निवाला उतारना पड़ता है. यह रश्म है, कर्म कांड है , प्रचलन है लेकिन इसका उस व्यक्ति के लिए ही नहीं, समाज के लिए भी बहुत बड़ा महत्व है. इससे दु:ख और सुख में एक साथ रहने की भावना विकसित होती है जो समाज के लिए अति आवश्यक है.
घंट टंगने के बाद जो खाना खाया जाता है वह बिल्कुल सादा होता है. सिर्फ चावल और अरहर की दाल होती है. दाल में बिना नमक और हल्दी की होती है. उसके साथ सब्जी वगैरह नहीं होती. दाल में सेधा नमक डाला जा सकता है.
बिरादरी के बाकी लोग तो पत्तल में खाते है और दाह संस्कार करने वाला आदमी मिट्टी के बर्तन में खाता है. एक बार जो उसको दे दिया जाता है वही वह खाता है. दुबारा नहीं माँग सकता. उसका जूठन कोई दूसरा नहीं उठाता. उसे ही उठाना पड़ता है.
उस दिन के बाद से सभी लोग अन्न ग्रहण करना शुरु कर देते है. लेकिन खाना वैसा होता है जिस तरह का दाह संस्कार करने वाला व्यक्ति खाता है. खाने में सरसो का तेल, हल्दी , नमक, लहसुन, प्याज का इस्तेमाल नहीं होता. तड़का भी नहीं लगाया जाता. मतलब यह है कि उस व्यक्ति के साथ पूरी बिरादरी फीका खाना खाती है. ऐसा खाना जिसमें खूशबू न हो. मेरी समझ से यह सब इस लिए किया जाता है कि गमगीन व्यक्ति यश समझे कि गम में वह अकेले नहीं है बल्कि पूरी बिरादरी उसके साथ है. बिरादरी द्वारा उस व्यक्ति के लिए कष्ट उठाना उस व्यक्ति की पीड़ा को कम करने में सहायक होता है.
दाह कर्म से तेरह दिन तक के समय को गमी कहा जाता है गमी के दौरान बिरादरी में कोई भी नया काम नहीं होता, उस दौरान कोई नया कपड़ा नहीं खरीदता. अच्छा खाने से और नये कपड़े पहनने से क्यों परहेज किया जाता है? उसके पीछे क्या कारण हो सकता है? इसका कोई सीधा सादा जवाब नहीं मिलता. लेकिन यदि हम यदि इस पर विचार करें तो पाएंगें कि अच्छा खाना खाना और अच्छे कपड़े पहनना एन्ज्वॉय करने की श्रेणी में आता है. जिस व्यक्ति का प्रिय बिछुड़ गया है उसको तो खाना ही अच्छा नहीं लगता तो वह अच्छा खाना कैसे खा पाएगा. इस लिए उसका साथ देने के लिए पूरी बिरादरी ही न अच्छा खाना खाती है और न नया कपड़ा पहनती है. इसका उस व्यक्ति पर सकारात्मक असर पड़ता है जब वह पाता है कि उसके साथ साथ पूरी बिरादरी ही दु:खी है. उस उक्त प्रचलन का मेरे हिसाब से यह मनोविज्ञानिक ही नहीं बल्कि सामाजिक पक्ष है.
दाह लेने वाले व्यक्ति को रात में अकेला नहीं छोड़ते. ऐसा माना जाता है कि अकेले में दिवंगत आत्मा जो भटक रही है उसके पास सकती है. दिवंगत आत्मा के प्रभाव में वह आदमी सकता है. दिवंगत आत्मा के प्रभाव से उस आदमी का कहीं नुकसान न हो, इस लिए वह व्यक्ति जहाँ पर सोता है उसके कमरे के बाहर कोई अवश्य सोता है. पता नहीं आज यह प्रचलन है कि नहीं है. ऐसा क्यों होता है, उसका कारण मेरे समझ से यह है कि जब आदमी रात में अकले होगा तो वह दिवंगत व्यक्ति के बारे में सोचेगा. एक बार दिवंगत व्यक्ति उसके खयालों में आ गया तो फिर वह आसानी से बाहर नहीं निकल सकता. उस दौरान वह आदमी भावना में बहकर कुछ भी कर सकता है. वह अपनी जान भी दे सकता है. इस चीज की सम्भावना को खत्म करने के लिए उस आदमी को अकेला नहीं छोड़ा जाता.
उक्त आदमी के सामने दिन में गरुड़ पुराण का पाठ किया जाता है. गरुण पुराण में जिस तरह से वर्णन किया गया है, वह बहुत ही भयावह है. बहुत ही बीभत्स दृष्य को उसमें दर्शाया गया है. उसमें यह भी लिखा गया कि यदि दाह लेने वाला व्यक्ति तेरह दिनों तक संयम का परिचय नहीं दिया तो उसे मृत्यु के उपरांत उसे तरह तरह की यातना से गुजराना पड़ता है. यह सब जान कर वह आदमी इतना भयभीत हो जाता है कि उसका सारा का सारा ध्यान संयम बरतने, नियमों का पालन करने और कर्मकांडों पूरा करने मे लग जाता है.
कहने का मतलब यह है कि किसी भी व्यक्ति के देहांत के बाद आचरण के लिए जो नियम बनाए गए हैं उनका मनोवैज्ञानिक और सामाजिक आधार है. इस लिए जो तथाकथित प्रगतिशील सोच के लोग हैं उनको पुरानी परम्पराओं, रूढ़ियों और कर्मकांडों का मजाक न उड़ा कर उनकी सार्थकता पर विचार करना चाहिए और यह भी देखना चाहिए कि क्या वे आज भी सार्थक हो सकती है.
अंतिम संस्कार सम्पन्न करने के बाद मुखाग्नि देने वाले व्यक्ति ‘घंट’ टाँगता है. ‘घंट’ मिट्टी का एक छोटा सा घड़ा होता है. घड़े की पेंदी में छेद कर दिया जाता है. उस छेद से कपड़े की एक बाती बाहर निकली रहती है. मुखाग्नि देने वाला व्यक्ति उस घंड़े में पानी भरता है. उसके बाद उस घड़े को पीपल के पेड़ के तने में रस्सी के सहारे लटका दिया जाता है. मुखाग्नि देने वाला व्यक्ति रोज सुबह और शाम नहा कर भीगे कपड़े में ही पीपल के पेड़ के पास जाता है. वह पेड़ का पाँच चक्कर लगाता है. मुझे याद नहीं है कि वह प्रत्येक बार घड़े में पानी डालता है या पेड़ के तने में पानी डालता है. घड़े का पानी बूंद बूंद कर टपटकता रहता है. वह पानी पेड़ के तने पर गिरता है. उस पानी का वाष्पीकरण बहुत कम होता है क्योंकि सूरज की किरणे उस पर नहीं पड़ पाती. परिणाम यह होता है कि वह पानी रिसता हुआ पेड़ की जड़ तक पहुँचता है.
पीपल के पेड़ के बारे में हमें पता है कि वह पेड़ रात को ऑक्सीजन का उत्सर्जन करता है. इसी लिए पीपल के पेड़ को पवित्र माना जाता है. गाँव के लोग पीपल और नीम के पेड़ की पूजा करते है. पीपल का पेड़ तो गाँव के बाहर लगया जाता है लेकिन नीम का पेड़ गाँव के भीतर लगाया जाता है. कहा जा सकता है कि पीपल के पेड़ पर देवताओं का वास रहता है और नीम के पेड़ पर देवियों का.
जब देवी पूजा होती है उस समय हमारे यहाँ देवी गीत गाया जाता है. वह गीत इतना मधुर होता है कि सुनने वाला भक्ति में डूब जाता है. गीत है: ‘निमिया के डार मइया लावेली हिलोरवा की की झुली झुली ना. मइया
गावेली गितिया की झुली झुली न.’ ऐसा गीत गा कर महिलाएं देवी को प्रसन्न करती है. इतना नहीं जब बड़ी माता (चेचक) का प्रकोप होता है जिस व्यक्ति को चेचक होता है उसकी राहत के लिए नीम के पत्ते का इश्तेमाल किया जाता है.
इन दोनों पेड़ों की पूजा गाँवो में कबसे हो रही है, इसका किसी को पता नहीं है. मुझे लगता है कि अनुसंधान, प्रयोग अनुभव के आधार पर जब लोगों को पता चला होगा कि वे पेड़ हमारे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है, तब से उन पेड़ों की पूजा शुरू हुई होगी.
पर्यावरण के संरक्षण और सम्बर्धन के लिए आज लिखित कानून है. लेकिन उस समय शायद लिखित कानून नहीं रहा होगा. उस समय के लोग धर्म भीरु थे. मुझे लगता है कि पीपल और नीम जैसे औषदीय महत्व के पेड़ों के संरक्षण और सम्बर्धन के लिए लोगों में आस्था का प्रादुर्भाव किया गया होगा. बताया जाता है कि मृत्यु के उपरांत आत्मा भटकती रहती है. वह भूखी प्यासी रहती है. इस लिए आत्मा की तृप्ति के लिए ग्यारह दिन तक पीपल के पेड़ को पानी दिया जाता है. ऐसा करते हुए व्यक्ति के मन में सवाल नहीं उठता कि वह जो कर रहा है, कहाँ तक तार्किक है. ऐसा सोचना भी उसको अपराध जैसा लगता है. वह अपने दिवंगत प्रिय के नाम पर हर तरह का कष्ट उठाने के लिए तैयार रहता है. उसको यह भी लगता है कि वह पश्चाताप कर रहा है. किसका पश्चाताप? उन गुनाहों का जिसे उसने जाने अनजाने अपने प्रिय को तकलीफ पहुँचा कर की होती है. पश्चाताप करके उसको शांति मिलती है. वह अपने आप को हल्का महसूस करता है. उसके दिल पर जो बोझ होता है वह धीरे धीरे कम होने लगता है. वह यह समझ कर पानी देता है कि वह पानी उसके दिवंगत प्रिय जन को पहुँच रहा है. लेकिन वह पानी रिसते हुए के पेड़ की जड़ में जाता है पेड़ को हरा भरा रखता है. इस प्रकार वह अपने मन को शांत तो करता ही है समाज का भी भला करता है.
घंट टंगवाने के काम एक वर्ग करता है जिसे महापात्र कहा जाता है. यह माना जाता है कि महापात्र के माध्यम से ही दिवंगत आत्मा को सामग्री पहुँचाई जाती है. उस दिन जब तक महापात्र आ कर अन्न ग्रहण नहीं कर लेते तब तक कोई भी अन्न ग्रहण नहीं करता. कुछ लोगों को यह कर्म कांड लगेगा. उनको इसमें कोई सार्थकता नजर नहीं आती. लेकिन मुझे नजर आती है. इस कर्म कांड का मेरे अनुसार भावनात्मक पक्ष है. जिस व्यक्ति का स्वर्गवासी व्यक्ति से खास लगाव था उस व्यक्ति को कुछ भी अच्छा नहीं लगता. हर वक्त उसकी याद उसे आती रहती है. जब वह खाना खाने जाता तो उसको यह याद आज जाता कि जिसके साथ वह खाना खाता था आज वह नहीं है. ऐसी स्थिति में उसके गले से निवाला नीचे नहीं जा सकता था. इसी लिए घंट टंगने के पहले वह अन्न ग्रहण नहीं करता. यह भी सही है कि कोई भी व्यक्ति बहुत दिन तक बिना अन्न के नहीं रह सकता. इस लिए महापात्र के माध्यम से पहले दिवंगत आत्मा को अन्न पहुँचाया जाता है उसके बाद वह व्यक्ति और बिरादरी के लोग एक साथ बैठ कर अन्न ग्रहण ग्रहण करते हैं. जिस व्यक्ति ने दाह लिया होता है सबसे पहले वह अपने मुँह में निवाला डालता है. उसके बाद सभी लोग खाना शुरू करते हैं. उस समय भी उस व्यक्ति के गले से निवाला नीचे नहीं जा पाता. लेकिन जब वह देखता है कि उसके साथ साथ बाकी लोग भी भूखे हैं तो न चाहते हुए भी उसको अपने गले के नीचे निवाला उतारना पड़ता है. यह रश्म है, कर्म कांड है , प्रचलन है लेकिन इसका उस व्यक्ति के लिए ही नहीं, समाज के लिए भी बहुत बड़ा महत्व है. इससे दु:ख और सुख में एक साथ रहने की भावना विकसित होती है जो समाज के लिए अति आवश्यक है.
घंट टंगने के बाद जो खाना खाया जाता है वह बिल्कुल सादा होता है. सिर्फ चावल और अरहर की दाल होती है. दाल में बिना नमक और हल्दी की होती है. उसके साथ सब्जी वगैरह नहीं होती. दाल में सेधा नमक डाला जा सकता है.
बिरादरी के बाकी लोग तो पत्तल में खाते है और दाह संस्कार करने वाला आदमी मिट्टी के बर्तन में खाता है. एक बार जो उसको दे दिया जाता है वही वह खाता है. दुबारा नहीं माँग सकता. उसका जूठन कोई दूसरा नहीं उठाता. उसे ही उठाना पड़ता है.
उस दिन के बाद से सभी लोग अन्न ग्रहण करना शुरु कर देते है. लेकिन खाना वैसा होता है जिस तरह का दाह संस्कार करने वाला व्यक्ति खाता है. खाने में सरसो का तेल, हल्दी , नमक, लहसुन, प्याज का इस्तेमाल नहीं होता. तड़का भी नहीं लगाया जाता. मतलब यह है कि उस व्यक्ति के साथ पूरी बिरादरी फीका खाना खाती है. ऐसा खाना जिसमें खूशबू न हो. मेरी समझ से यह सब इस लिए किया जाता है कि गमगीन व्यक्ति यश समझे कि गम में वह अकेले नहीं है बल्कि पूरी बिरादरी उसके साथ है. बिरादरी द्वारा उस व्यक्ति के लिए कष्ट उठाना उस व्यक्ति की पीड़ा को कम करने में सहायक होता है.
दाह कर्म से तेरह दिन तक के समय को गमी कहा जाता है गमी के दौरान बिरादरी में कोई भी नया काम नहीं होता, उस दौरान कोई नया कपड़ा नहीं खरीदता. अच्छा खाने से और नये कपड़े पहनने से क्यों परहेज किया जाता है? उसके पीछे क्या कारण हो सकता है? इसका कोई सीधा सादा जवाब नहीं मिलता. लेकिन यदि हम यदि इस पर विचार करें तो पाएंगें कि अच्छा खाना खाना और अच्छे कपड़े पहनना एन्ज्वॉय करने की श्रेणी में आता है. जिस व्यक्ति का प्रिय बिछुड़ गया है उसको तो खाना ही अच्छा नहीं लगता तो वह अच्छा खाना कैसे खा पाएगा. इस लिए उसका साथ देने के लिए पूरी बिरादरी ही न अच्छा खाना खाती है और न नया कपड़ा पहनती है. इसका उस व्यक्ति पर सकारात्मक असर पड़ता है जब वह पाता है कि उसके साथ साथ पूरी बिरादरी ही दु:खी है. उस उक्त प्रचलन का मेरे हिसाब से यह मनोविज्ञानिक ही नहीं बल्कि सामाजिक पक्ष है.
दाह लेने वाले व्यक्ति को रात में अकेला नहीं छोड़ते. ऐसा माना जाता है कि अकेले में दिवंगत आत्मा जो भटक रही है उसके पास सकती है. दिवंगत आत्मा के प्रभाव में वह आदमी सकता है. दिवंगत आत्मा के प्रभाव से उस आदमी का कहीं नुकसान न हो, इस लिए वह व्यक्ति जहाँ पर सोता है उसके कमरे के बाहर कोई अवश्य सोता है. पता नहीं आज यह प्रचलन है कि नहीं है. ऐसा क्यों होता है, उसका कारण मेरे समझ से यह है कि जब आदमी रात में अकले होगा तो वह दिवंगत व्यक्ति के बारे में सोचेगा. एक बार दिवंगत व्यक्ति उसके खयालों में आ गया तो फिर वह आसानी से बाहर नहीं निकल सकता. उस दौरान वह आदमी भावना में बहकर कुछ भी कर सकता है. वह अपनी जान भी दे सकता है. इस चीज की सम्भावना को खत्म करने के लिए उस आदमी को अकेला नहीं छोड़ा जाता.
उक्त आदमी के सामने दिन में गरुड़ पुराण का पाठ किया जाता है. गरुण पुराण में जिस तरह से वर्णन किया गया है, वह बहुत ही भयावह है. बहुत ही बीभत्स दृष्य को उसमें दर्शाया गया है. उसमें यह भी लिखा गया कि यदि दाह लेने वाला व्यक्ति तेरह दिनों तक संयम का परिचय नहीं दिया तो उसे मृत्यु के उपरांत उसे तरह तरह की यातना से गुजराना पड़ता है. यह सब जान कर वह आदमी इतना भयभीत हो जाता है कि उसका सारा का सारा ध्यान संयम बरतने, नियमों का पालन करने और कर्मकांडों पूरा करने मे लग जाता है.
कहने का मतलब यह है कि किसी भी व्यक्ति के देहांत के बाद आचरण के लिए जो नियम बनाए गए हैं उनका मनोवैज्ञानिक और सामाजिक आधार है. इस लिए जो तथाकथित प्रगतिशील सोच के लोग हैं उनको पुरानी परम्पराओं, रूढ़ियों और कर्मकांडों का मजाक न उड़ा कर उनकी सार्थकता पर विचार करना चाहिए और यह भी देखना चाहिए कि क्या वे आज भी सार्थक हो सकती है.
No comments:
Post a Comment