मेरे गाँव में एक वर्ग पूरे गाँव की तरफ़ से काली पूजा करता आ रहा है. काली पूजा को सम्पन्न करने के लिऐ गाँव के प्रत्येक परिवार से सदस्य संख्यानुसार चंदा लिया जाता था. बिना किसी भेदभाव के गाँव के सभी लोग काली पूजा में भाग लेते थे. आज़ जब मै सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि इस सार्वजनिक पूजा से गाँव में एकता बनती थी. काली पूजा का अवसर आपसी वैमनस्य को ख़त्म करने में सहायक होता था.
एक परिवार पहले से ही चंदा तैयार रखता था. चंदा पगडी औऱ चूल्हे की संख्या के आधर पर होता. पुरूष ( बच्चो सहित ) को पगडी औऱ औरत ( बच्ची सहित ) को चुल्हा कहा जाता था. प्रत्येक परिवार ईमानदारी के साथ चंदा देता था.
काली पूजा में बकरे की बलि दी जाती थी. तेज धार वाले हथियार से बकरे के सर को धड़ से अलग कर देते थे. बकरे के शरीर के दोनों हिस्से अलग अलग तड़पने लगते थे. कुछ देर बाद दोनों हिस्से शांत हो जाते थे. नजारा बहुत दर्दनाक औऱ हृदय विदारक हो जाता था. एक बार देखने के बाद मैंने कभी काली पूजा नहीं देखी थी. मेरे जैसे बहुत से लोग थे.
शुक्रवार अर्थात 12.8.2016 को भी काली पूजा थी. इसका पता मुझे 11.8.2016 को उस समय चला जब काली पूजा के लिऐ चंदा लिया जा रहा था. चंदा लेने वाला आदमी जब चला गया तो मैंने एक आदमी से पूछा कि क्या काली पूजा के दौरान बकरे की बलि दी जाएगी ? उस आदमी की बात सुन कर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई.
12.8.2016 को बाजे गाजे के साथ गाँव जुलूस निकाला गया. उसी दिन शाम को गाँव से मै बलिया मुख्यालय जा रहा था. रास्ते में हर जगह काली पूजा का आयोजन होते मैंने देखा. मेरी जिज्ञासा यहीं थी कि उनमें उक्त प्रथा कायम थी कि नहीं. मुझे उक्त प्रथा के कायम रहने के संकेत कहीं से नहीं मिल रहें थे. मैंने इसके बारे में ड्राइवर से भी पूछा. उसने बताया कि उसके गाँव में भी अब बकरे की बलि नहीं दी जाती. निष्कर्ष यह है कि हमारे क्षेत्र में इस पुरानी प्रथा का खात्मा हो चुका है. अब सवाल यह है कि यह प्रथा ख़त्म कैसे हुई ? कानून से ? जनान्दलन से ? बकरे की बलि देने वालों को डराने धमकाने या मारने पीटने से? नहीं. यदि यह प्रथा ख़त्म हुई है तो सोच में परिवर्तन से ख़त्म हुई. यह उदाहरण इस बात की ओर संकेत करता है कि समाज में सुधार कानून बना कर, आंदोलन से, या ज़बरदस्ती करके नहीं लाया जा सकता. उसके लिये ऐसा माहौल बनाना ज़रूरी है जिसमें लोगों की सोच में बदलाव आ सके.
एक परिवार पहले से ही चंदा तैयार रखता था. चंदा पगडी औऱ चूल्हे की संख्या के आधर पर होता. पुरूष ( बच्चो सहित ) को पगडी औऱ औरत ( बच्ची सहित ) को चुल्हा कहा जाता था. प्रत्येक परिवार ईमानदारी के साथ चंदा देता था.
काली पूजा में बकरे की बलि दी जाती थी. तेज धार वाले हथियार से बकरे के सर को धड़ से अलग कर देते थे. बकरे के शरीर के दोनों हिस्से अलग अलग तड़पने लगते थे. कुछ देर बाद दोनों हिस्से शांत हो जाते थे. नजारा बहुत दर्दनाक औऱ हृदय विदारक हो जाता था. एक बार देखने के बाद मैंने कभी काली पूजा नहीं देखी थी. मेरे जैसे बहुत से लोग थे.
शुक्रवार अर्थात 12.8.2016 को भी काली पूजा थी. इसका पता मुझे 11.8.2016 को उस समय चला जब काली पूजा के लिऐ चंदा लिया जा रहा था. चंदा लेने वाला आदमी जब चला गया तो मैंने एक आदमी से पूछा कि क्या काली पूजा के दौरान बकरे की बलि दी जाएगी ? उस आदमी की बात सुन कर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई.
12.8.2016 को बाजे गाजे के साथ गाँव जुलूस निकाला गया. उसी दिन शाम को गाँव से मै बलिया मुख्यालय जा रहा था. रास्ते में हर जगह काली पूजा का आयोजन होते मैंने देखा. मेरी जिज्ञासा यहीं थी कि उनमें उक्त प्रथा कायम थी कि नहीं. मुझे उक्त प्रथा के कायम रहने के संकेत कहीं से नहीं मिल रहें थे. मैंने इसके बारे में ड्राइवर से भी पूछा. उसने बताया कि उसके गाँव में भी अब बकरे की बलि नहीं दी जाती. निष्कर्ष यह है कि हमारे क्षेत्र में इस पुरानी प्रथा का खात्मा हो चुका है. अब सवाल यह है कि यह प्रथा ख़त्म कैसे हुई ? कानून से ? जनान्दलन से ? बकरे की बलि देने वालों को डराने धमकाने या मारने पीटने से? नहीं. यदि यह प्रथा ख़त्म हुई है तो सोच में परिवर्तन से ख़त्म हुई. यह उदाहरण इस बात की ओर संकेत करता है कि समाज में सुधार कानून बना कर, आंदोलन से, या ज़बरदस्ती करके नहीं लाया जा सकता. उसके लिये ऐसा माहौल बनाना ज़रूरी है जिसमें लोगों की सोच में बदलाव आ सके.
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