Tuesday 28 June 2016

'बागबान’

“बागबान’ का एक रियल सिक्वल
मित्रों, आज कल दु:ख भरी कहानी सुनने के लिए बहुत कम लोग तैयार होगें. किसी के पास समय नहीं हैं तो कोई अपनी समस्याओं से इतना ग्रसित है कि ऐसी कहानी सुन कर वह और अधिक दु:खी नहीं होना चाहता. कुछ लोग ऐसे भी होंगे जिनको सिर्फ मौज मस्ती वाली बातों में ही रूचि रहती होगी. 
इन तमाम बातों के मद्देनज़र मुझे इस बात का अहसास है कि मेरा यह पोस्ट जो बुजुर्गों की व्यथा से जुड़ा है बहुत से लोगों को अच्छा नहीं लगेगा. अत: ऐसे लोगों से पोस्ट लिखने के पहले ही मैं क्षमा माँगता हूँ. 
“बागबान’, एक जाना पहचाना शब्द- एक फिल्म, जिसमे अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी ने बेहतरीन प्रदर्शन किया है. इस फिल्म को बच्चे, बूढ़े, जवान सबने देखा. कहने की आवश्यकता नहीं कि सभी लोगों ने उक्त फिल्म को अलग अलग नजरिए से देखा. फिल्म में किसी को कुछ पसंद आया तो किसी को कुछ. किसी को अभिनेता और अभिनेत्रियों का अभिनय अच्छा लगा तो किसी को फिल्म की कहानी अच्छी लगी. किसी को फिल्म के गाने पसंद आए तो किसी को फिल्म के डायलॉग पसंद आए. लेकिन फिल्म के जिस हिस्से ने सबसे ज्यादा मुझे प्रभावित किया या यह कहिए मुझे झकझोरा, वह था जिसमें अमिताभ बच्चन का बागबान की सफलता पर आयोजित समारोह के दौरान दिया गया सम्बोधन. मेरे हिसाब से वह लक्ष्यदार भाषण नहीं था, बल्कि यथार्थ का शब्द छाया था. मैं उसको यथार्थ के शब्द छाया के बजाय यथार्थ का शब्द प्रतिविम्ब भी कह सकता था. लेकिन वैसा मैं नहीं कर रहा हूँ. वह इस लिए की प्रतिविम्ब तो हूबहू होता है. जबकि बागबान में जो भी दर्शाया गया है वह हकीकत से काफी दूर है. जिस स्थिति में अभिताभ बच्चन और हेमा मालिनी उक्त फिल्म में है उनसे विकट परिस्थितियों में करोड़ों बुजुर्ग दम्पत्ति है. 
आज मेरे सामने एक बागबान दुहराया जा रहा है. एक बुजुर्ग दम्पत्ति है. उनके चार लड़के और एक बेटी है. मुझे याद आता है उन बुजुर्ग का वह चेहरा जब वह बुलंदी पर थे. चेहरा रोबदार था. माथा चौड़ा था. बड़ी-बड़ी आँखे थी. आवाज कड़क थी. चहरे से आत्म विश्वास साफ झलकता रहता था. चमचमाती धोती, चमचमाता कुर्ता और जैकेट पहन कर जब वे निकलते थे तो देखने वाले देखते ही रह जाते थे. ऐसा लगता था जैसा कोई राजकुमार आ रहा हो. तीन तीन चार चार नौकर चाकर. उनकी पत्नी ने कभी खाना नहीं बनाया होगा. लेकिन आज? उसकी थोड़ी सी भी झलक नहीं बची है. कृशकाय हो गए है. कुपोषण के शिकार है वे. उनके देखने से साफ झलकता है कि उन्हें ठीक से खाना नहीं मिल पा रहा है. 
उनकी पत्नी भी कभी हृष्ट पुष्ट थी. रानी की तरह वह भी रहती थी. घर का कोई भी काम उन्हें नहीं करना पड़ता था. दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे. आज उनकी स्थिति बहुत दयनीय है. दयनीय क्यों हैं, मैं उसका जिक्र नहीं करना चाहता. राजा से रंक कैसे बने, इस पर चर्चा करने का यह समय नहीं है. बुजुर्ग दम्पत्ति गाँव पर ही रहता है. उनके बेटे अपनी बीबी-बच्चों के साथ बाहर रहते है. जब तक हाथ पैर काम करते थे, तब तक कोई समस्या नहीं होती थी. यदि रात में उनके प्राण पखेरु उड़ जाय तो किसी को पता भी नहीं चलेगा.
आज उनके सामने सबसे बड़ी समस्या है कि उनके लिए खाना कौन बनाएगा. बूढ़ी महिला प्राय: हमेशा बीमार रहती है. जिस दिन वह ठीक रहती है तो खाना बनता है अन्यथा नहीं. आज भी बुजुर्ग महिला दीपक की रोशनी में लकड़ी पर खाना बनाती है. मैले कुचैले कपड़े पहनने के लिए वह विवश है. कौन पानी भरेगा? हैंड पम्प भी उनसे नहीं चल पाता. पड़ोस में एक घर है, उससे उनको मदद मिल जाती है जिसकी वजह वे अभी तक ज़िंदा है. लेकिन पड़ोस का परिवार भी उनकी मदद कब तक कर पाएगा? पड़ोस का परिवार भी किसी न किसी समस्या से परेशान रहता है. ऐसी स्थिति में कब तक उनसे मदद मिलती रहेगी? 
पास के गाँव में उनकी लड़की रहती है. उसका भी अपना भरा पूरा परिवार है. कभी कभी वह अपनी माँ को देखने के लिए आती है लेकिन वह ठहरती नहीं है. उसी दिन चली जाती है.
मुझे पता चला कि बुजुर्ग दम्पत्ति के एक बेटे ने प्रस्ताव रखा है कि माँ बाबू जी में से किसी एक को वह अपने साथ रख सकता है. मतलब यह है कि यदि वह अपनी माँ को अपने पास रखता है तो उसके पिता किसी दूसरे भाई के पास रहेंगे. बुढ़ापे में – पति पत्नी अलग अलग ! 
कहा जा सकता है कि पति को पत्नी की और पत्नी को पति की बुढ़ापे में सबसे अधिक जरूरत रहती. बुढ़ापे में पति पत्नी आपस मे दोस्त बन जाते है. जब उन्हें हँसना होता है तो वे बीते दिनों की स्मृतियाँ याद करके हँस लेते है. वो शरारतें जो उन्होंने कभी आपस में की थी याद आने लगती है तो वे अपनी अवस्था को भूल जाते है और बीते दिनों के सपनों में खो जाते है. उन्हें सुनने वाला कोई दूसरा नहीं मिलता. वे एक दूसरे को ही सुनते हैं और सुनाते है. अत: यदि पति पत्नी को बुढ़ापे में एक दूसरे से अलग रहना पड़े तो उनकी पीड़ा का अनुमान लगाना मुश्किल है. ऐसे बुजुर्गों को सिर्फ अपनी उदर पूर्ति के लिए अलग रहना पड़ता है. एक तरफ उनके लड़के अपनी बीबी-बच्चों के साथ ठहाका लगाते है, और दूसरी तरफ उसी घर के कोने में एक बुजुर्ग के रूप में एक ज़िंदा लाश रहती है जिसका मुँह सिर्फ खाना खाने के समय खुलता है और दिन भर बंद रहता है. क्या यही है विकास? लानत है ऐसे विकास पर जिसमे व्यक्ति का अंत ही बुरा हो. 
मैं समझता हूँ कि बुजुर्गों के साथ अत्याचार उस देश में हो रहा है जिस देश ने स्वामी विवेकानंद जी के माध्यम से पूरे विश्व को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होने संदेश दिया था. हमारे देश के बुद्धि जीवियों, राजनेताओं, मानवाधिकर की बात करने वालों को जाति और धर्म के नाम पर वर्गीकृत कमजोर वर्गों की चिंता तो है लेकिन असख्य निरीह, बेजुबान, अशक्त बुजुर्गों की फिक्र नहीं है. आखिर क्यों? बुजुर्गों को क्यों सजा मिल रही है? क्या अपराध है उनका? क्या निरपराध बुजुर्गों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करने वाले अपराधी नहीं है? क्या बुजुर्गों को घुटन भरी ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर करना मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं है? क्या यह समाज बुजुर्ग को बोझ समझता है और जल्द से जल्द उनसे छुट्टी पाना चाहता है? यदि ऐसा नहीं है तो बुजुर्गों की चिंता कोई नेता, कोई अभिनेता, समाजसेवी, बुद्धीजीवी, धरमाचार्य, मानवाधिकार की बात कराने वाला क्यों नहीं करता? 
मित्रों, मैं इस बात से अवगत हूँ कि मेरी बातों से बहुत से लोग असहमत होंगे. मेरे कुछ मित्र यह भी कह सकते है कि बुजुर्गों की जिस दशा का वर्णन क्या है वैसी स्थिति नहीं है. इस सम्बंध में सिर्फ यह कह सकता हूँ कि जो कुछ मैंने देखा है और महसूस किया है उसके आधार पर मैंने यह जिक्र किया है. 
मित्रों हम सभी अपनी आँखों पर पट्टी बाँधे आराम से बैठे हुए है. जब वर्षा होगी तो देखा जाएगा! पानी की बूदों के साथ साथ छुपने के लिए छत भी आ जाएगी! जब आग लगेगी तो कुँआ खोदने के बारे में सोचेंगे! लेकिन मित्रों एक कहावत है कि अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत. इस लिए मेरा अनुरोध है कि हम यह न सोचें कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. हम ऐसे ब्रेकर के बारे में विचार करें जो बुजुर्गों को तेजी से गर्त में जाने से रोके, उनको असमय काल का ग्रास बनने से रोके. 
अंत में उन सभी लोगों से क्षमा माँगता हूँ जिनको मेरी बातों से ठेस पहुँची हो.

Sunday 26 June 2016

नोएडा Vs बलिया

नोएडा Vs बलिया: दोनों में कितना फर्क है? एक यूरोप है तो दूसरा अफ्रीका. आखिर क्यों? नोएडा को देख कर लगता ही नही की वह उत्तर प्रदेश का का अंग हैं. ज़मीन आसमान का फर्क है दोनों में. 
दोनों जनपदों को मैं करीब से देख रहा हूँ. कमोवेश बलिया के आसपास के जनपदों की वही स्थिति है जो बलिया की है.
राज्यों के बीच संसाधनों का आबंटन केन्द्र सरकार के अधीन और जनपदों के अंदर संसाधनों का आबंटन राज्य सरकार करती है. इसके अतिरिक्त केन्द्र सरकार जो योजनाए बनाती हैं उसका क्रियान्वयन राज्य सरकार करती.
कहा जा सकता हैं कि नोएडा और बलिया में आज जो ज़मीन आसमान का फर्क है उसका मुख्य कारण अब तक की जो सरकारे रही है, उनका बलिया और आसपास के इलाकों के साथ सौतेला व्यवहार रहा है.
उत्तर प्रदेश में 2017 में चुनाव होने जा रहा है. मेरे प्रिय जनपद बलिया के मित्रों , आपसे मेरा अनुरोध हैं कि जाति वर्ग और धर्म के दायरे से बाहर निकल उन लोगों से यह सवाल अवश्य पूछे जो आपके पास वोट माँगने आते हैं. पूछे उनसे कि उनकी पार्टी की सरकारों ने ऐसा भेद भाव क्यों क्या ? पूछिए उनसे कि आजादी के साठ साल बीत जाने के बावजूद भी बलिया में आधार भूत ढाँचे का विकास क्यों नहीं हुआ ? राजनीतिक रूप से सचेत बलिया में भौतिक संसाधनों का अभाव क्यों है. बौद्धिक रूप से सशक्त बलिया की दुर्दशा क्या बलिया के छुटभैये नेताओ की वजह से नहीं हुई है जिनका लक्ष्य दलाली मात्र है. मित्रों यदि आपने समय रहते इस पर विचार नहीं किया तो हमारी संतति हमें माफ नही करेगी. जय बलिया ! जय हिंद !

Saturday 25 June 2016

"बुलंद बलिया"

"बुलंद बलिया" के नाम से काफी पहले मैंने एक पेज बनाया था. उस पेज पर बलिया के बारे में और बलिया की एक बहुत बड़ी समस्या के बारे में लिखा था. कुछ लोगों ने उसे पढ़ा भी. उस पोस्ट में बलिया के बारे में मैंने जो तथ्य दिये थे उनको बार बार दुहराने की ज़रूरत है ताकि बलिया की ज़मीन से जुड़ा हुआ हर व्यक्ति बलिया पर गर्व कर सके.
मैंने उक्त पोस्ट में इस बात का भी जिक्र किया था मैंने " बुलंद बलिया " शीर्षक क्यों चुना. मैंने लिखा है कि बलिया के प्राचीन इतिहास पर गौर करने पर स्वत: परिलक्षित होता है कि बलिया बुलंद था.
मै यहाँ पर ईमानदारी के साथ स्वीकार करता हूँ कि मैंने बलिया पर कोई प्रामाणिक किताब नहीं पढी है. मेरी जानकारी दैनिक जागरण में नॉर्थ ईस्ट रेलवे द्वारा प्रदत्त विज्ञापन पर आधारित है. दुर्भाग्य से मुझे तिथि याद नहीं हैं. मुझे लगता है कि यह 2004 की बात हैं.
उस विज्ञापन के माध्यम से उत्तर प्रदेश में पर्यटन हेतु कौन कौन शहर हैं उनकी जानकारी उपलब्ध करायी थी. उसमे बलिया के अलावा उत्तर प्रदेश के सभी प्रमुख शहरों और स्थानों की विशेषताओं के बारे में जानकारी दी गई थी. ध्यान देने वाली बात यह है कि विज्ञापन में बलिया को सबसे अधिक स्थान दिया गया था. उस विज्ञापन मे बलिया के बारे मे दो जानकारी दी गई थी उनका क्रमशः विवरण निम्नलिखित हैं :
1. बलिया ऋषि मुनियों की साधाना स्थली रहा है.
2. बलिया भृगु मुनि की तपोस्थली थी.
3. बलिया का मनियर गा भगवान परशुराम का जम स्थान हैं.
4. ब्रह्मा जी का निवास स्थान ब्रह्माईन में था जो बलिया मे हैं.
5. राम चंद्र जी के पुत्र कुश की जन्म स्थली बलिया का कुसौरा गाँव हैं.
6. बलिया के सीतकुंड मे सीता जी नहाया करती थी.
7. व्यास मुनि जिन्होंने महाभारत की रचना की का जन्म स्थान बलिया का बाँस थाना था.
8. ऋषि दुर्वासा की तपो स्थली बलिया का दुबहर गाँव था.
9. बलिया का परसिया गाँव पराशर मुनि का साधना स्थल था .
10. ऋषि वाल्मीकि जिन्होंने ने रामायण की रचना की का कार्य क्षेत्र बलिया का बहुआरा गाँव था.
11. सम्राट सहसार्जुन की राजधानी बलिया के खैरा गढ़ में थी.
12. बलिया शहर राजा बली की राजधानी था. 

Ek ghazal

व्हाट्सेप के माध्यम से निम्न ग़ज़ल मेरे पास आई थी. इस ग़ज़ल के माध्यम से जो संदेश दिया गया है वह वास्तव में सामयिक है. बस मै इतना अवश्य जोड़ना चाहूँगा कि बहुत कम लड़के ऐसे होते है जो अपनी माँ के दर्द को महसूस नही करते. अधिकांश लड़के अपनी माँ की दुर्दशा देख कर आहत होते हैं. मगर वे इस कदर मजबूर होते हैं कि अपनी माँ की दुर्दशा पर आह भी नहीं कर सकते. लडको को कौन मज़बूर करता है इसका उत्तर इस अवसर पर देना समीचन नहीं होगा. निम्न ग़ज़ल को मैं इस लिए प्रेषित कर रहा हूँ कि हम सब जागे दूसरे को भी जगाए. कृपया ग़ज़ल को पढ़े
शख्सियत ए 'लख्ते-जिगर' कहला न सका ।
जन्नत के धनी "पैर" कभी सहला न सका । 😭
दुध पिलाया उसने छाती से निचोड़कर
मैं 'निकम्मा, कभी 1 ग्लास पानी पिला न सका । 😭
बुढापे का "सहारा,, हूँ 'अहसास' दिला न सका
पेट पर सुलाने वाली को 'मखमल, पर सुला न सका । 😭
वो 'भूखी, सो गई 'बहू, के 'डर, से एकबार मांगकर
मैं "सुकुन,, के 'दो, निवाले उसे खिला न सका । 😭
नजरें उन 'बुढी, "आंखों से कभी मिला न सका ।
वो 'दर्द, सहती रही में खटिया पर तिलमिला न सका । 😔
जो हर "जीवनभर" 'ममता, के रंग पहनाती रही मुझे
उसे "ईद/होली" पर दो 'जोड़ी, कपडे सिला न सका । 😭
"बिमार बिस्तर से उसे 'शिफा, दिला न सका ।
'खर्च के डर से उसे बड़े अस्पताल, ले जा न सका । 😔
"माँ" के बेटा कहकर 'दम,तौडने बाद से अब तक सोच रहा हूँ,
'दवाई, इतनी भी "महंगी,, न थी के मैं ला ना सका । 😭

Sunday 12 June 2016

Hindutva - Brief Definition

To 

The supporters and opponents of Hindutwa and also to the people who claim to be seclurasts.
Hindutwa is a 'Dharm' and not a religion. Hindutwa, a Dharm, is as diverse as the nature is. I am afraid, this cannot be said about a religion. The word ' religion' has its origin in Europe. The system for which the word 'religion' is used is altogether different from the Hindutwa system. So please do not ser the system of Hindutwa from the prism of the concept of relgion. 

Thanks

Saturday 11 June 2016

लक्ष्मण रेखा - The Borderline

अश्लीलता , आखिर है क्या ? कौन देगा इसका जवाब ? फिल्म जगत या एलेक्ट्रॉनिक मिडिया जिनका काम सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना है, राजनीतिक गण जिनका काम येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करना है, स्वछंद प्रकृति के लेखक जिनके लिये अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ही सब कुछ हैं, वकील या न्यायपालिका जिनका काम सिर्फ कानून की व्याख्या करना है ? मैं समझता हूँ कि एक स्वस्थ समाज के लिये हर मामले मॆं एक लक्ष्मण रेखा होती है. यदि समाज का कोई अवयव उस लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन करता है तो वह समाज को कमजोर करता है. सवाल यह है कि कौन बताएगा हमें कि आखिर वह लक्ष्मण रेखा कौन सी है ? समाज के ऊपरि वर्णित अवयवों के पास इसका सरल जवाब है. जवाब यह है कि हमारे संविधान में और देश के कानून मे जो प्रतिबंध है वही लक्ष्मण रेखा है. ऊपरि वर्णित अवयवों के अनुसार संविधान और देश के कानून में व्यक्ति को अभिव्यक्ति की आजादी दी गई है अतः व्यक्ति अपने व्यक्तिगत आनंद के लिऐ कुछ भी करने के लिऐ आजाद है. उसको इससे कोई लेना देना नहीँ है कि उसकी आजादी का दूसरे पर क्या पड़ रहा है. उदाहरण स्वरूप यदि दो पडोसियो मे से एक के घर में मातम है और दूसरा पडोसी अपने घर मे तेज म्यूज़िक पर डाँस कर सकता है तो संविधान और कानून में इसके लिऐ कहीं रोक टोक नहीं है. मुझे लगता है कि यह एक स्वस्थ समाज की निशानी नहीं है. दूसरे शव्दो में कहा जा सकता है कि मात्र संविधान के अनुसार आचरण करके और कानून का पालन करके एक स्वस्थ समाज का निर्माण नहीं हो सकता. उसके लिऐ मानवीय संवेदनाओं का विकास होना आवश्यक है.
कंगना रानौट द्वारा उड़ता पंजाब पर व्यक्त किए गये विचार ने मुझे ऊपरोक्त टिप्पणी करने के लिऐ विवश किया. उनके अनुसार ब्रा का प्रदर्शन करने में कोई अश्लीलता नहीं है. मुझे लगता है कि फिल्म जगत एक मायावी दुनियाँ में सोता है और जागता है. उसके लिये समाज का मतलब एक व्यक्ति केंद्रित भीड़ है. उसके लिऐ समाज का मतलब मात्र एक मेला है. फिल्म जगत की रचनात्मकता समाज के लिऐ नहीँ बल्कि व्यक्ति के लिऐ है. उसके लिऐ दर्शक का मतलब परिवार नहीँ बल्कि व्यक्ति है. ऐसी फिल्में और धारावाहिक हमारे सामने परोसे जाते है कि हम अपनी बेटी, बहन, माँ, और बच्चों के साथ नहीं देख सकते. और यह सब अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर होता है. हो सकता है कि मेरा सोचना गलत हो मगर मुझे लगता है कि संविधान और कानून के होते हुए और शिक्षित लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी के बावजूद भी समाज में दिनो दिन अव्यवस्था फैल रही है. उसका कारण यही है कि सामाजिक मूल्यों के विकास के बारे में किसी को सोचने की ज़रूरत ही नही है. क्या कंगना रानौत भारतीय समाज की प्रतिबिम्ब है? मैं समझता हूँ कि उन्होंने भारत को देखा ही नही होगा या देखा भी होगा तो अपने व्यवसाय के हक में सामाजिक मूल्यों को जान बूझ कर तिलाँजली दे दी होगी.अंत में यही कहना है कि लक्ष्मण रेखा का निर्धारण व्यक्ति को ध्यान में रख कर नहीं बल्कि परिवार और समाज को ध्यान में रख कर होना.