“बागबान’ का एक रियल सिक्वल
मित्रों, आज कल दु:ख भरी कहानी सुनने के लिए बहुत कम लोग तैयार होगें. किसी के पास समय नहीं हैं तो कोई अपनी समस्याओं से इतना ग्रसित है कि ऐसी कहानी सुन कर वह और अधिक दु:खी नहीं होना चाहता. कुछ लोग ऐसे भी होंगे जिनको सिर्फ मौज मस्ती वाली बातों में ही रूचि रहती होगी.
इन तमाम बातों के मद्देनज़र मुझे इस बात का अहसास है कि मेरा यह पोस्ट जो बुजुर्गों की व्यथा से जुड़ा है बहुत से लोगों को अच्छा नहीं लगेगा. अत: ऐसे लोगों से पोस्ट लिखने के पहले ही मैं क्षमा माँगता हूँ.
“बागबान’, एक जाना पहचाना शब्द- एक फिल्म, जिसमे अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी ने बेहतरीन प्रदर्शन किया है. इस फिल्म को बच्चे, बूढ़े, जवान सबने देखा. कहने की आवश्यकता नहीं कि सभी लोगों ने उक्त फिल्म को अलग अलग नजरिए से देखा. फिल्म में किसी को कुछ पसंद आया तो किसी को कुछ. किसी को अभिनेता और अभिनेत्रियों का अभिनय अच्छा लगा तो किसी को फिल्म की कहानी अच्छी लगी. किसी को फिल्म के गाने पसंद आए तो किसी को फिल्म के डायलॉग पसंद आए. लेकिन फिल्म के जिस हिस्से ने सबसे ज्यादा मुझे प्रभावित किया या यह कहिए मुझे झकझोरा, वह था जिसमें अमिताभ बच्चन का बागबान की सफलता पर आयोजित समारोह के दौरान दिया गया सम्बोधन. मेरे हिसाब से वह लक्ष्यदार भाषण नहीं था, बल्कि यथार्थ का शब्द छाया था. मैं उसको यथार्थ के शब्द छाया के बजाय यथार्थ का शब्द प्रतिविम्ब भी कह सकता था. लेकिन वैसा मैं नहीं कर रहा हूँ. वह इस लिए की प्रतिविम्ब तो हूबहू होता है. जबकि बागबान में जो भी दर्शाया गया है वह हकीकत से काफी दूर है. जिस स्थिति में अभिताभ बच्चन और हेमा मालिनी उक्त फिल्म में है उनसे विकट परिस्थितियों में करोड़ों बुजुर्ग दम्पत्ति है.
आज मेरे सामने एक बागबान दुहराया जा रहा है. एक बुजुर्ग दम्पत्ति है. उनके चार लड़के और एक बेटी है. मुझे याद आता है उन बुजुर्ग का वह चेहरा जब वह बुलंदी पर थे. चेहरा रोबदार था. माथा चौड़ा था. बड़ी-बड़ी आँखे थी. आवाज कड़क थी. चहरे से आत्म विश्वास साफ झलकता रहता था. चमचमाती धोती, चमचमाता कुर्ता और जैकेट पहन कर जब वे निकलते थे तो देखने वाले देखते ही रह जाते थे. ऐसा लगता था जैसा कोई राजकुमार आ रहा हो. तीन तीन चार चार नौकर चाकर. उनकी पत्नी ने कभी खाना नहीं बनाया होगा. लेकिन आज? उसकी थोड़ी सी भी झलक नहीं बची है. कृशकाय हो गए है. कुपोषण के शिकार है वे. उनके देखने से साफ झलकता है कि उन्हें ठीक से खाना नहीं मिल पा रहा है.
उनकी पत्नी भी कभी हृष्ट पुष्ट थी. रानी की तरह वह भी रहती थी. घर का कोई भी काम उन्हें नहीं करना पड़ता था. दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे. आज उनकी स्थिति बहुत दयनीय है. दयनीय क्यों हैं, मैं उसका जिक्र नहीं करना चाहता. राजा से रंक कैसे बने, इस पर चर्चा करने का यह समय नहीं है. बुजुर्ग दम्पत्ति गाँव पर ही रहता है. उनके बेटे अपनी बीबी-बच्चों के साथ बाहर रहते है. जब तक हाथ पैर काम करते थे, तब तक कोई समस्या नहीं होती थी. यदि रात में उनके प्राण पखेरु उड़ जाय तो किसी को पता भी नहीं चलेगा.
आज उनके सामने सबसे बड़ी समस्या है कि उनके लिए खाना कौन बनाएगा. बूढ़ी महिला प्राय: हमेशा बीमार रहती है. जिस दिन वह ठीक रहती है तो खाना बनता है अन्यथा नहीं. आज भी बुजुर्ग महिला दीपक की रोशनी में लकड़ी पर खाना बनाती है. मैले कुचैले कपड़े पहनने के लिए वह विवश है. कौन पानी भरेगा? हैंड पम्प भी उनसे नहीं चल पाता. पड़ोस में एक घर है, उससे उनको मदद मिल जाती है जिसकी वजह वे अभी तक ज़िंदा है. लेकिन पड़ोस का परिवार भी उनकी मदद कब तक कर पाएगा? पड़ोस का परिवार भी किसी न किसी समस्या से परेशान रहता है. ऐसी स्थिति में कब तक उनसे मदद मिलती रहेगी?
पास के गाँव में उनकी लड़की रहती है. उसका भी अपना भरा पूरा परिवार है. कभी कभी वह अपनी माँ को देखने के लिए आती है लेकिन वह ठहरती नहीं है. उसी दिन चली जाती है.
मुझे पता चला कि बुजुर्ग दम्पत्ति के एक बेटे ने प्रस्ताव रखा है कि माँ बाबू जी में से किसी एक को वह अपने साथ रख सकता है. मतलब यह है कि यदि वह अपनी माँ को अपने पास रखता है तो उसके पिता किसी दूसरे भाई के पास रहेंगे. बुढ़ापे में – पति पत्नी अलग अलग !
कहा जा सकता है कि पति को पत्नी की और पत्नी को पति की बुढ़ापे में सबसे अधिक जरूरत रहती. बुढ़ापे में पति पत्नी आपस मे दोस्त बन जाते है. जब उन्हें हँसना होता है तो वे बीते दिनों की स्मृतियाँ याद करके हँस लेते है. वो शरारतें जो उन्होंने कभी आपस में की थी याद आने लगती है तो वे अपनी अवस्था को भूल जाते है और बीते दिनों के सपनों में खो जाते है. उन्हें सुनने वाला कोई दूसरा नहीं मिलता. वे एक दूसरे को ही सुनते हैं और सुनाते है. अत: यदि पति पत्नी को बुढ़ापे में एक दूसरे से अलग रहना पड़े तो उनकी पीड़ा का अनुमान लगाना मुश्किल है. ऐसे बुजुर्गों को सिर्फ अपनी उदर पूर्ति के लिए अलग रहना पड़ता है. एक तरफ उनके लड़के अपनी बीबी-बच्चों के साथ ठहाका लगाते है, और दूसरी तरफ उसी घर के कोने में एक बुजुर्ग के रूप में एक ज़िंदा लाश रहती है जिसका मुँह सिर्फ खाना खाने के समय खुलता है और दिन भर बंद रहता है. क्या यही है विकास? लानत है ऐसे विकास पर जिसमे व्यक्ति का अंत ही बुरा हो.
मैं समझता हूँ कि बुजुर्गों के साथ अत्याचार उस देश में हो रहा है जिस देश ने स्वामी विवेकानंद जी के माध्यम से पूरे विश्व को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होने संदेश दिया था. हमारे देश के बुद्धि जीवियों, राजनेताओं, मानवाधिकर की बात करने वालों को जाति और धर्म के नाम पर वर्गीकृत कमजोर वर्गों की चिंता तो है लेकिन असख्य निरीह, बेजुबान, अशक्त बुजुर्गों की फिक्र नहीं है. आखिर क्यों? बुजुर्गों को क्यों सजा मिल रही है? क्या अपराध है उनका? क्या निरपराध बुजुर्गों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करने वाले अपराधी नहीं है? क्या बुजुर्गों को घुटन भरी ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर करना मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं है? क्या यह समाज बुजुर्ग को बोझ समझता है और जल्द से जल्द उनसे छुट्टी पाना चाहता है? यदि ऐसा नहीं है तो बुजुर्गों की चिंता कोई नेता, कोई अभिनेता, समाजसेवी, बुद्धीजीवी, धरमाचार्य, मानवाधिकार की बात कराने वाला क्यों नहीं करता?
मित्रों, मैं इस बात से अवगत हूँ कि मेरी बातों से बहुत से लोग असहमत होंगे. मेरे कुछ मित्र यह भी कह सकते है कि बुजुर्गों की जिस दशा का वर्णन क्या है वैसी स्थिति नहीं है. इस सम्बंध में सिर्फ यह कह सकता हूँ कि जो कुछ मैंने देखा है और महसूस किया है उसके आधार पर मैंने यह जिक्र किया है.
मित्रों हम सभी अपनी आँखों पर पट्टी बाँधे आराम से बैठे हुए है. जब वर्षा होगी तो देखा जाएगा! पानी की बूदों के साथ साथ छुपने के लिए छत भी आ जाएगी! जब आग लगेगी तो कुँआ खोदने के बारे में सोचेंगे! लेकिन मित्रों एक कहावत है कि अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत. इस लिए मेरा अनुरोध है कि हम यह न सोचें कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. हम ऐसे ब्रेकर के बारे में विचार करें जो बुजुर्गों को तेजी से गर्त में जाने से रोके, उनको असमय काल का ग्रास बनने से रोके.
अंत में उन सभी लोगों से क्षमा माँगता हूँ जिनको मेरी बातों से ठेस पहुँची हो.
मित्रों, आज कल दु:ख भरी कहानी सुनने के लिए बहुत कम लोग तैयार होगें. किसी के पास समय नहीं हैं तो कोई अपनी समस्याओं से इतना ग्रसित है कि ऐसी कहानी सुन कर वह और अधिक दु:खी नहीं होना चाहता. कुछ लोग ऐसे भी होंगे जिनको सिर्फ मौज मस्ती वाली बातों में ही रूचि रहती होगी.
इन तमाम बातों के मद्देनज़र मुझे इस बात का अहसास है कि मेरा यह पोस्ट जो बुजुर्गों की व्यथा से जुड़ा है बहुत से लोगों को अच्छा नहीं लगेगा. अत: ऐसे लोगों से पोस्ट लिखने के पहले ही मैं क्षमा माँगता हूँ.
“बागबान’, एक जाना पहचाना शब्द- एक फिल्म, जिसमे अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी ने बेहतरीन प्रदर्शन किया है. इस फिल्म को बच्चे, बूढ़े, जवान सबने देखा. कहने की आवश्यकता नहीं कि सभी लोगों ने उक्त फिल्म को अलग अलग नजरिए से देखा. फिल्म में किसी को कुछ पसंद आया तो किसी को कुछ. किसी को अभिनेता और अभिनेत्रियों का अभिनय अच्छा लगा तो किसी को फिल्म की कहानी अच्छी लगी. किसी को फिल्म के गाने पसंद आए तो किसी को फिल्म के डायलॉग पसंद आए. लेकिन फिल्म के जिस हिस्से ने सबसे ज्यादा मुझे प्रभावित किया या यह कहिए मुझे झकझोरा, वह था जिसमें अमिताभ बच्चन का बागबान की सफलता पर आयोजित समारोह के दौरान दिया गया सम्बोधन. मेरे हिसाब से वह लक्ष्यदार भाषण नहीं था, बल्कि यथार्थ का शब्द छाया था. मैं उसको यथार्थ के शब्द छाया के बजाय यथार्थ का शब्द प्रतिविम्ब भी कह सकता था. लेकिन वैसा मैं नहीं कर रहा हूँ. वह इस लिए की प्रतिविम्ब तो हूबहू होता है. जबकि बागबान में जो भी दर्शाया गया है वह हकीकत से काफी दूर है. जिस स्थिति में अभिताभ बच्चन और हेमा मालिनी उक्त फिल्म में है उनसे विकट परिस्थितियों में करोड़ों बुजुर्ग दम्पत्ति है.
आज मेरे सामने एक बागबान दुहराया जा रहा है. एक बुजुर्ग दम्पत्ति है. उनके चार लड़के और एक बेटी है. मुझे याद आता है उन बुजुर्ग का वह चेहरा जब वह बुलंदी पर थे. चेहरा रोबदार था. माथा चौड़ा था. बड़ी-बड़ी आँखे थी. आवाज कड़क थी. चहरे से आत्म विश्वास साफ झलकता रहता था. चमचमाती धोती, चमचमाता कुर्ता और जैकेट पहन कर जब वे निकलते थे तो देखने वाले देखते ही रह जाते थे. ऐसा लगता था जैसा कोई राजकुमार आ रहा हो. तीन तीन चार चार नौकर चाकर. उनकी पत्नी ने कभी खाना नहीं बनाया होगा. लेकिन आज? उसकी थोड़ी सी भी झलक नहीं बची है. कृशकाय हो गए है. कुपोषण के शिकार है वे. उनके देखने से साफ झलकता है कि उन्हें ठीक से खाना नहीं मिल पा रहा है.
उनकी पत्नी भी कभी हृष्ट पुष्ट थी. रानी की तरह वह भी रहती थी. घर का कोई भी काम उन्हें नहीं करना पड़ता था. दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे. आज उनकी स्थिति बहुत दयनीय है. दयनीय क्यों हैं, मैं उसका जिक्र नहीं करना चाहता. राजा से रंक कैसे बने, इस पर चर्चा करने का यह समय नहीं है. बुजुर्ग दम्पत्ति गाँव पर ही रहता है. उनके बेटे अपनी बीबी-बच्चों के साथ बाहर रहते है. जब तक हाथ पैर काम करते थे, तब तक कोई समस्या नहीं होती थी. यदि रात में उनके प्राण पखेरु उड़ जाय तो किसी को पता भी नहीं चलेगा.
आज उनके सामने सबसे बड़ी समस्या है कि उनके लिए खाना कौन बनाएगा. बूढ़ी महिला प्राय: हमेशा बीमार रहती है. जिस दिन वह ठीक रहती है तो खाना बनता है अन्यथा नहीं. आज भी बुजुर्ग महिला दीपक की रोशनी में लकड़ी पर खाना बनाती है. मैले कुचैले कपड़े पहनने के लिए वह विवश है. कौन पानी भरेगा? हैंड पम्प भी उनसे नहीं चल पाता. पड़ोस में एक घर है, उससे उनको मदद मिल जाती है जिसकी वजह वे अभी तक ज़िंदा है. लेकिन पड़ोस का परिवार भी उनकी मदद कब तक कर पाएगा? पड़ोस का परिवार भी किसी न किसी समस्या से परेशान रहता है. ऐसी स्थिति में कब तक उनसे मदद मिलती रहेगी?
पास के गाँव में उनकी लड़की रहती है. उसका भी अपना भरा पूरा परिवार है. कभी कभी वह अपनी माँ को देखने के लिए आती है लेकिन वह ठहरती नहीं है. उसी दिन चली जाती है.
मुझे पता चला कि बुजुर्ग दम्पत्ति के एक बेटे ने प्रस्ताव रखा है कि माँ बाबू जी में से किसी एक को वह अपने साथ रख सकता है. मतलब यह है कि यदि वह अपनी माँ को अपने पास रखता है तो उसके पिता किसी दूसरे भाई के पास रहेंगे. बुढ़ापे में – पति पत्नी अलग अलग !
कहा जा सकता है कि पति को पत्नी की और पत्नी को पति की बुढ़ापे में सबसे अधिक जरूरत रहती. बुढ़ापे में पति पत्नी आपस मे दोस्त बन जाते है. जब उन्हें हँसना होता है तो वे बीते दिनों की स्मृतियाँ याद करके हँस लेते है. वो शरारतें जो उन्होंने कभी आपस में की थी याद आने लगती है तो वे अपनी अवस्था को भूल जाते है और बीते दिनों के सपनों में खो जाते है. उन्हें सुनने वाला कोई दूसरा नहीं मिलता. वे एक दूसरे को ही सुनते हैं और सुनाते है. अत: यदि पति पत्नी को बुढ़ापे में एक दूसरे से अलग रहना पड़े तो उनकी पीड़ा का अनुमान लगाना मुश्किल है. ऐसे बुजुर्गों को सिर्फ अपनी उदर पूर्ति के लिए अलग रहना पड़ता है. एक तरफ उनके लड़के अपनी बीबी-बच्चों के साथ ठहाका लगाते है, और दूसरी तरफ उसी घर के कोने में एक बुजुर्ग के रूप में एक ज़िंदा लाश रहती है जिसका मुँह सिर्फ खाना खाने के समय खुलता है और दिन भर बंद रहता है. क्या यही है विकास? लानत है ऐसे विकास पर जिसमे व्यक्ति का अंत ही बुरा हो.
मैं समझता हूँ कि बुजुर्गों के साथ अत्याचार उस देश में हो रहा है जिस देश ने स्वामी विवेकानंद जी के माध्यम से पूरे विश्व को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होने संदेश दिया था. हमारे देश के बुद्धि जीवियों, राजनेताओं, मानवाधिकर की बात करने वालों को जाति और धर्म के नाम पर वर्गीकृत कमजोर वर्गों की चिंता तो है लेकिन असख्य निरीह, बेजुबान, अशक्त बुजुर्गों की फिक्र नहीं है. आखिर क्यों? बुजुर्गों को क्यों सजा मिल रही है? क्या अपराध है उनका? क्या निरपराध बुजुर्गों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करने वाले अपराधी नहीं है? क्या बुजुर्गों को घुटन भरी ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर करना मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं है? क्या यह समाज बुजुर्ग को बोझ समझता है और जल्द से जल्द उनसे छुट्टी पाना चाहता है? यदि ऐसा नहीं है तो बुजुर्गों की चिंता कोई नेता, कोई अभिनेता, समाजसेवी, बुद्धीजीवी, धरमाचार्य, मानवाधिकार की बात कराने वाला क्यों नहीं करता?
मित्रों, मैं इस बात से अवगत हूँ कि मेरी बातों से बहुत से लोग असहमत होंगे. मेरे कुछ मित्र यह भी कह सकते है कि बुजुर्गों की जिस दशा का वर्णन क्या है वैसी स्थिति नहीं है. इस सम्बंध में सिर्फ यह कह सकता हूँ कि जो कुछ मैंने देखा है और महसूस किया है उसके आधार पर मैंने यह जिक्र किया है.
मित्रों हम सभी अपनी आँखों पर पट्टी बाँधे आराम से बैठे हुए है. जब वर्षा होगी तो देखा जाएगा! पानी की बूदों के साथ साथ छुपने के लिए छत भी आ जाएगी! जब आग लगेगी तो कुँआ खोदने के बारे में सोचेंगे! लेकिन मित्रों एक कहावत है कि अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत. इस लिए मेरा अनुरोध है कि हम यह न सोचें कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. हम ऐसे ब्रेकर के बारे में विचार करें जो बुजुर्गों को तेजी से गर्त में जाने से रोके, उनको असमय काल का ग्रास बनने से रोके.
अंत में उन सभी लोगों से क्षमा माँगता हूँ जिनको मेरी बातों से ठेस पहुँची हो.
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