मै एक बार नहीं कई बार अपना विचार व्यक्त कर चुका हूँ कि आजादी के सत्तर साल बाद भी लोक तंत्र के नाम पर लकीर पीट रहे है. सत्तर साल के बाद भी हम विवेक शील नहीँ हो पाये है. हमारे देष में लोक तंत्र यदि मजबूत हुआ है तो सिर्फ पत्रकारों, टीवी चैनलों , तथा कथित बुद्धिजीवियों के लिए है, जिनका काम बहस के नाम सिर्फ तिल का ताड़ बनाना, बाल की खाल निकालना और अर्थ का अनर्थ करना है. किसी शब्द का अर्थ हम तभी समझ सकते है जब हम उस प्रसंग को समझे जिसके अन्तर्गत उस शब्द का इश्तेमाल हुआ है. यदि हम प्रसंग को छोड़ देंगे तो हम भटक जाएंगे. जिन लोगों का मै ऊपर जिक्र कर चुका हूँ किसी शब्द पर चर्चा करते वक्त यह नहीं बताते कि उस शब्द का प्रयोग किसी तथ्य को व्यक्त करने के लिए हुआ है. दर असल आजादी के बाद जिस चीज़ का हमारे देश में लोक तंत्र की ज़मीन पर सबसे ज्यादा विकास हुआ है वह है नकारात्मकता. हमारे देश के राजनीतिज्ञों ने नकारात्मकता की खेती करने में प्रवीणता हासिल की है और उस खेती को खाद पानी तथा कथित बुद्धिजीवियों और टीवी चैनलों पर मुँह चुथौवल कर रहे पत्रकारों से मिलती है. ये लोग बुझ रही आग जो हवा देने का प्रयास करते है. जैसे ही कोई जख्म भरता है उस पर ये नमक मल का ताजा कर देते. अभी कुछ दिन पहले केर घटना है. एक स्कूल ने शायद चंद्र शेखर आजाद के नाम के साथ आतंकवादी शब्द का इस्तेमाल किया था. बस क्या था ? ऐसी हाय तौबा मचाई गई कि मत पूछिए. किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि क्या पोस्टर मे चंद्र शेखर आजाद को उसी तरह का आतंक वादी बताया गया था जिस तरह के आज के आतंकवादी है? क्या उक्त पोस्टर मे स्कूल ने चंद्र शेखर आजाद की भर्त्सना की थी ? शायद ऐसा नहीं था. ऐसी चीजो पर मै विशेष ध्यान नहीँ देता. सरसरी निगाह से ही ऐसी खबरों को मैं देखता हूँ. उक्त ख़बर को भी मैंने सरसरी तौर पर ही देखा था. उसमे चंद्र आजाद का गुडगान ही किया गया था. मेरी समझ से स्कूल की मंशा चंद्र शेखर आजाद को आज के आतंक वादियों की श्रेणी मे रखने का नहीं था. लेकिन बवाल मचाने वाले लोगों ने उसी अर्थ में लिया. उस स्कूल का कितना नुकसान हुआ. एक तरह भारत के टुकड़े टुकड़े करने का नारा लगाने वालों के साथी को हीरो बना दिया जाता है और दूसरी ओर एक स्कूल की फिसलन को इतना तूल डे दिया जाता है. क्या यही लोक तंत्र है ? क्या इसी को विवेक पूर्ण आचरण कहते है ? ऐसे लोक तंत्र को भीड़ तंत्र कहना अधिक समीचीन होगा. तथा कथित बुद्धिजीवी और टीवी चैनल अपने आचरण से लोक तंत्र को मजबूत नही बल्कि भीड़ को उकसा कर लोक तंत्र और समाज को खंडित करने का कुत्सित काम कर रहे है. मित्रों इस लिए बिना प्रसंग और संदर्भ को समझे किसी भी शब्द के अर्थ का अनर्थ न करें और तथा कथित बुद्धिजीवियों टीवी चैनलों और राजनीतिक लोगों के हाथ की कठपुतली हम न बने और विवेक से काम लें.
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