Sunday, 24 July 2016

संकीर्णता

हम कहाँ जा रहे हैं ? जाएंगे कहाँ ? आज़ादी के पहले अंग्रेजों जो बीज बोया था वह आज पल्लवित और पुष्पित ही नहीं फलित भी हो रहा हैं. कौन था एह बीज? बीज था संकीर्णता का. बीज था क्षेत्र , धर्म और जाति के नाम की संकीर्णता का. मैं नाम तो नहीं लूँगा लेकिन इतना मैं कह सकता हूँ कि यह देश तीन अग्रणी नेताओं की राजनीतिक स्वार्थ और संकीर्णता का दंश आज भी झेल रहा. यह तो गाँधी का त्याग और पटेल का संकल्प था कि हमारे देश कई टुकडे नहीं हुए. उन्होंने अपनी सूझबूझ और दृढ़ निश्चय से देश को और टूटने से बचा लिया. मगर आज वे नहीं हैं. आज हम जिस दिशा मे जा रहे हैं उसकी परिणति क्या होगी उसका हमें अनुमान नही हैं. आजादी के बाद जिस तरह से रियासतों ने संकीर्णता का परिचय दिया था उसी तरह की संकीर्णता का परिचय आज क्षेत्रीय पार्टियाँ डे रहीं हैं. जिस तरह से रियासतों ने केन्द्र को ललकारा था उसी तरह से आज राज्य केन्द्र को ललकार रहे हैं. मुझे कहने मर संकोच नहीं कि हमारे दुश्मन देश भी चाहते हैं कि हम इतनी समस्याओं से घिर जाएं कि हम उन्हीं समस्यायों से जूझते रहे और हमें दुश्मन की गतिविधियों पर नज़र रखने का मौका ही न मिले. 

कहा जा सकता हैं कि क्षेत्रीय पार्टियाँ और मात्र कुछ जातियों की ही चिंता करने वाली पार्टियाँ दुश्मन देशों के लिए ऐसा महौल बना रहीं जिससे दुश्मन देशों का हित हमारे देश मे फूले फले. हमें सोचना पड़ेगा कि जब देश नही रहेगा तो राज्य नही रहेंगे. राज्य नहीं रहेंगे तो गाँव और शहर बिखर जाएंगे. जहाँ तक परिवार की बात हैं तो वह तो बिखर ही रहा हैं . इस लिए यही कहना समीचीन होगा कि यदि शहर और गाँव नहीं रहेंगे तो हम भी बिखर जाएंगे. इस लिए सबसे पहले हमें जाति धर्म और क्षेत्र की राजनीति करने वाले नेताओं से बचना होगा. बदकिस्मति से अपढ़ लोगों की अपेक्षा पढ़े लिखे लोग उक्त संकीर्णता के दलदल मे डूबे हैं.

No comments:

Post a Comment