Saturday 16 April 2016

पुलिस, प्रेस और मेरा व्यक्तिगत अनुभव


आज के दैनिक जागरण में एक खबर छपी है जिसमें लिखा है कि दो पुलिस के सिपाहियों को लाइन हाजिर कर दिया गया है. वह इस लिए कि दोनों सोते हुए पाए गए.
जिसने भी इस खबर को पढ़ा होगा उसके दिमाग एक ही बात आई होगी कि पुलिस अपना काम ठीक से नहीं करती है. किसी के भी दिमाग में यह नहीं आया होगा कि हो सकता है कि पुलिस उन सिपाहियों को लगातार काम करना पड़ा हो और इस लिए उनको नींद आ गई हो. खैर यह एक जाँच का विषय है कि जिन पुलिस के सिपाहियों के खिलाफ कार्रवाई की गई है क्या वे हमेशा से अपनी द्यूटी में लापरवाही बरतते रहे हैं या इत्तफाकन ऐसा हुआ है.
मेरी समझ से इस खबर को दिखाने के साथ साथ यदि यह भी दिखाया जाता कि पुलिस के सिपाही किन परिस्थितियों में काम कर रहे हैं तो शायद पुलिस महकमें के साथ न्याय होता. दुर्भाज्ञ से ऐसा नहीं होता.
मुझे ऐसा महसूस होता है कि सिर्फ पुलिस तंत्र की ही नहीं, समस्त सरकारी तंत्र और इसके सभी प्रतिनिधियों के बारे में ही जन सामान्य के मनो मस्तिष्क में अच्छी तस्वीर नहीं हैं. यह सिर्फ इस लिए नहीं कि सरकारी मशीनरी ठीक ढंग से काम नहीं करता बल्कि इस लिए भी कि सरकारी तंत्र का जन सामान्य से अच्छा व्यवहार नहीं करता. इसका परिणाम यह है कि लोगों को सरकारी तंत्र में विश्वास कम हो गया है.
मैंने लिओ टॉलस्टॉय की एक कृति ‘रिजरेक्शन’ पढ़ी थी. उसमें उन्होनें ने इस बात की तरफ इशारा किया था कि सरकारी तंत्र को चलाने वाले कर्मियों में भी दिल होता है, उनमें भी भावनाएं होती है, मगर वे अपने कर्तव्य के निर्वहन के लिए अपने दिल की आवाज से अधिक तंत्र की व्यवस्थाओं से निर्देशित होते हैं. इसी लिए कभी कभी वे कठोर नजर आते हैं.
दुनियाँ का कोई भी आदमी या तंत्र पूर्ण नहीं है. सब में कमियाँ और अच्छाइयाँ है. पुलिस विभाग में भी कमियाँ और अच्छाइयाँ है.
आम धारणा यह है कि पुलिस का व्यवहार ठीक नहीं होता, पुलिस वाले लोगों से ठीक से पेश नहीं आते हैं, सीधी मुँह बात नहीं करते, दुर्व्यवहार करते हैं. इसी तरह की बहुत सी धारनाएं पुलिस वालों के बारे में हैं.
पुलिस की छवि ऐसी बना दी गई है कि कोई भी आदमी पुलिस वालों के सम्पर्क में नहीं आना चाहता. पुलिस के प्रति लोगों के दिमाग में डर भर दिया हैं.
जन समान्य के मन में पुलिस के प्रति इस तरह की नकारात्मक सोच के लिए कौन जिम्मेदार हैं? क्या वे लोग जिनके साथ पुलिस ने किसी समय बर्बरता का व्यवहार किया? मेरी समझ से नहीं. इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार मिडिया जगत और विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक मिडिया है.
मेरा यह मानना है समाज में कतिपय लोग ही ऐसे होंगे जिनका कभी न कभी पुलिस से काम पड़ा होगा. ऐसे लोगों की संख्या नगण्य होगी. लेकिन लगभग सभी लोगों के मन में पुलिस के बारे नकारात्मक विचार भर दिया गया है. मिडिया कभी नहीं दर्शाता की पुलिस वालों को किन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है.
मैं समझता हूँ कि सभी लोग इस बात से सहमत होंगे की अपवाद हर जगह है. लेकिन मिडिया जगत अपवाद को ही ऐसे प्रस्तुत करता है कि लगता है कि पुलिस का रवैया वैसा ही है जैसा कि मिडिया में दिखाया या बताया जा रहा है.
दो तीन बार मेरा भी पुलिस विभाग से काम पड़ा है. मुझे जो अनुभव हुआ उसके बारे में कुछ कहना चाहता हूँ.
पिछले साल मैं मध्य प्रदेश गया था. वहाँ पर बस में मेरी जेब कट गई थी. जेब में बाकी दस्तावेज के साथ साथ मेरा ड्राइविंग लाइसेंस और विभागीय पहचान पत्र भी थे. पहचान पत्र की की तत्कालीन आवश्यकता ट्रेन में टीटी को दिखाने के लिए थी. अत: पुलिस थाने में इसकी सूचना देनी आवश्यक थी. अगले दिन जब मैं वापस आ रहा था तो वहाँ के थाने में गया. थाने में मुझे बड़े प्रेम से बैठाया गया, एक आदमी पानी और उसके बाद चाय ले कर आया. जन सामन्य की तरह मेरे दिमाग़ में भी पुलिस की छवि अच्छी नहीं थी. अत: इस तरह का वहाँ का व्यवहार देख कर मुझे बहुत अच्छा लगा था. मैं जेब कटने की सूचना लिखित रूप से वहाँ पर दिया. एस.एच.ओ. ने मेरा नम्बर भी ले लिया.
दूसरा अनुभव अद्यतन है. इस अनुभव से यह भी ज्ञात होता है कि पासपोर्ट कार्यालय और पुलिस विभाग में कितनी सक्रियता है.
मैंने अपने और अपनी पत्नी के पासपोर्ट के लिए आवेदन किया था. 29.3.2016 को पी.एस.के. साहिबाबाद मे मूल दस्तावेजों का सत्यापन हुआ. 30.3.2016 को ही पासपोर्ट कार्यालय से हमारे पास संदेश आ गया कि पुलिस सत्यापन के लिए गाज़ियाबाद एस.पी. ऑफिस को सूचना भेज दी गई है. उक्त संदेश में हमें निर्देश दिया गया कि यदि 21 दिन में पुलिस का सत्यापन नहीं होता है हम गाज़ियाबाद एस.पी. ऑफिस से सम्पर्क करें. मेरे दिमाग में भी कुछ हद तक नकारात्मक चीजे मिडिया जगत की वजह से भर गई थी. मैं सोच भी नहीं सकता था कि पासपोर्ट कार्यालय आजकल इतनी तत्परता के साथ काम कर रहा है. यह सूचना पाकर मुझे बड़ी खुशी हुई. अब जरा पुलिस विभाग की तत्परता देखिए. उसी दिन 30.3.2016 शाम को मेरे पास पुलिस थाने से एक कॉस्टेबल का फोन आया और उसने मुझसे सत्यापन के लिए समय माँगा. मैंने कहा कि आप अगले दिन आठ बजे आ जाओ. इसका मतलब यह हुआ कि 30.3.2016 को ही पासपोर्ट कार्यालय से गाज़ियाबाद एस.एस.पी. कार्यालय को सत्यापन के लिए सूचना आई और उसी दिन गाज़ियाबाद एस.एस.पी. कार्यालय ने वह सूचना कवि नगर थाने को भेज दी और कवि नगर थाने ने सत्यापन का काम सम्बंधित सिपाही को सौंप दिया और उस सिपाही ने बिना देर किए हुए मुझसे सम्पर्क कर लिया.
अगले दिन अर्थात 31.3.2016 को ही वह आठ बजे सुबह वह सिपाही मेरे घर आया और सत्यापन कर के चला गया. उसी दिन उसने अपनी आख्या प्रस्तुत कर दी. उसी दिन वह आख्या गाज़ियाबाद एस.एस.पी. कार्यालय को भेज दी गई. गाज़ियाबाद एस.एस.पी. कार्यालय ने अगले दिन अर्थात 1.4.2016 को ही वह एल.आए.यू. को अग्रिम कार्यवही के लिए आदेश भेज दिया. त्वरित कार्यवाही का परिणाम यह हुआ कि 12.3.2016 को मुझे पासपोर्ट मिल गया.
मेरी पत्नी का पासपोर्ट नहीं मिला. इसका पता लगाने के लिए 9.4.2016 को कवि नगर पुलिस थाने गया. मुझे इसके बारे में सूचना कहाँ से मिलेगी यह बताया गया. उस समय दिन के लगभग तीन बजे थे. जिस सिपाही से मिलने के लिए मुझसे कहा गया था, उसकी सीट पर एक दूसरा सिपाही सो रहा था. वह भी हल्की फुल्की नींद में ही नहीं बल्कि गहरी नींद में. वह जगा और बताया कि उसकी द्यूटी एक चौकी पर है और सम्बंधित सिपाही लंच कर रहे हैं. मैं वापस उस सब इंस्पेक्टर के पास आया जिसने मुझे उक्त सिपाही से मिलने के लिए कहा था. मैंने उससे पूछा कि कितने बजे तक लंच है. मेरी बात सुन कर वह हँसने लगा और कहा कि सर यहाँ नाश्ता या लंच का कोई समय नहीं है. उसने अपने बारे में बताया कि उस समय तक उसने खुद नाश्ता नहीं किया था. उसने कहा कि आप बैठिए जब वह लंच करके आएगा तो मैं आपको बता दूँगा. कुछ देर मैं बैठा रहा. कुछ दे बाद मेरे दिमाग में आया कि क्यों न मैं गाज़ियाबाद एस.एस.पी. कार्यालय में जाकर ही पता कर लूँ. अत: मैं वहाँ पर चला गया. जब मैं वहाँ पर था तो चाय आई. मुझे भी चाय दी गई और रजिस्टर देख कर पता किया गया कि कवि नगर थाने से रिपोर्ट आई है नहीं. फिर पता किया गया कि एल.आई.यू. को रिपोर्ट भेजी गई है नहीं. वहीं पर मुझे बताया गया कि 1.4.2016 को एल.आई.यू. को अग्रिम कार्यवाही के लिए आदेश दे दिया गया है. मतल्ब यह था कि उस दिन अर्थात 9.4.2016 तक एल.आई.यू. से रिपोर्ट नहीं आई थी. वहाँ पर मुझसे कहा गया कि आप 11-12.4.2016 को पता कर लीजिएगा. मैं पता करने के 13.4.2016 को गया. उस समय एल. आई. यू. से आई हुई रिपोर्ट का एक बहुत बड़ा बंडल था. सम्बंधित सिपाही ने कष्ट करते हुए पूरा बंडल चेक किया और पाया कि एल. आई. यू. से रिपोर्ट नहीं आई थी. उसी समय उसने एल. आई. यू. को फोन किया और कहा कि अगले दिन दस बजे उसकी टेबल पर रिपोर्ट आ जानी चाहिए. उसने मुझसे कहा कि आप जाइए और रिपोर्ट आते ही हम पासपोर्ट कार्यालय को भेज देंगे. मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ. लेकिन अगले दिन मैंने पासपोर्ट आवेदन की स्थिति चेक किया तो पता चला कि रिपोर्ट वहाँ पर पहुँच गई है.
आज जब मैंने दो सिपाहियों के बारे में खबर पढ़ी तो मुझे रहा नहीं गया और मुझे लगा कि यह उचित अवसर है कि मैं पुलिस के साथ सम्पर्क के व्यतिगत अनुभव को शेयर करूँ.

Friday 15 April 2016

अंबेडकर ; संविधान,लोकतंत्र एवं राष्ट्रवाद !

14 अप्रैल को बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की 125 वी जयंती बडे व्यापक पैमाने पर मनायी जा रही है। खबर है की संयुक्त राष्ट्र संघ भी पहलीबार महान मानवतावादी भारत रत्न अम्बेडकर का जन्म दिवस मनायेगा! वाकई यह बेहद ख़ुशी की बात है।
आज अपने जन्म के सदी भर बाद अम्बेडकर सबसे प्रासंगिक और जीवन्त व्यक्तिव हैं जिनको लेकर भारतीय राजनीति बहुत चिंतित और सक्रिय दिखती है ,आज सभी विचारधाराओ और दलों के लिए अम्बेडकर पूज्य और अपरिहार्य बनते जा रहे हैं तथा आज कोई भी अम्बेडकर से दूरी बनाने की सोच भी नहीं सकता।
निश्चित ही मन में यह कौंधता है कि अचानक यैसा क्या हो गया कि समाज के वंचित तबके के हीरो रहे अम्बेडकर अचानक आज देश दुनिया के लिए राष्ट्रवादी और महान मानवतावादी नायक बनने की राह पर हैं ? निश्चित ही इसके पीछे बहुत तर्क तथ्य हैं।पहला तो यह कि अम्बेडकर वाकई अपने समय के महँ मानवतावादी थे,ठीक है की पहले गांधी और आज़ादी बाद फ़िर नेहरू के आभामण्डल के आगे बुद्धिजीवियों और मीडिया ने उन्हें उपेक्षित बनाये रखा ,लेकिन यदि संविधान निर्माण से लेकर, हिन्दू कोड बिल तथा उनके आर्थिक विचारों को यदि आज की कसौटी पर परखा जाये तो अम्बेडकर का कद बहुत ऊँचा हो जाता है,चाहे रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की अवधारणा हो या उद्दोगिकीकरण के समर्थन का अथवा सभी व्यक्तियों की कानून के समक्ष समानता का ,या फिर कानून के शासन का ,आज़ादी व राष्ट्र को एकजुट रखने के लिए मजबूत केंद्रीकरण तथा आर्थिक विकास के लिए अमेरिकी पूंजीवादी मॉडल का उपयोग ,सबको शिक्षा और वंचित तबको को राज्य का सहयोग मिलना यह सब उनके विचार आज हमारी सरकारोँ की नीतियों के हिस्से बन चुके हैं ,हमारे विकास के मॉडल के बड़े स्तम्भ आज अम्बेडकर के संवैधानिक और आर्थिक तथा लोकतान्त्रिक विचारो के मूर्त रूप बन चुके हैं।
आज अम्बेडकर के राष्ट्रीयता सम्बन्धी चिंतन की चर्चा भी जोरों पर है ,अम्बेडकर राष्ट्र की एकता और अखण्डता को लेकर बेहद प्रतिबद्ध थे ,उन्होंने कभी भी अलगाववादी विचारधारा को हवा नहीं दिया ,वे हालाँकि अछूतों और दलितों के लिए जीवन भर लड़ते रहे ,पर कभी उन्होंने दलितोस्थान या दलित भारत बनाने की वकालत नहीं कि ,इसके लिए उन्होंने दक्षिण के कई ब्राह्मण और सवर्ण विरोधी राजनीती से न सिर्फ किनारा किया बल्कि पेरियार जैसे द्रविण राष्ट्र की अलगाववादी राजनीती करने वालों को चेतावनी भी दी और सलाह भी।कि भारत को संविधान और लोकतन्त्र के रूप में एकजुटता से ही अक्षुण्ण रखा जा सकता है। इसलिए अम्बेडकर ने बार हिन्दू -मुसलमानो में आपस में पृथक हो जाने की स्थिति व् धमकी पर थॉट्स ऑफ़ आन पाकिस्तान में लिखा कि "मुझे यह अच्छा नहीं लगता ,जब कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं फिर हिन्दू या मुस्लमान हैं।मुझे यह स्वीकार नहीं है,धर्म संस्कृति,भाषा,तथा राज्य के प्रतीक निष्ठा से ऊपर है - भारतीय होने की निष्ठा ! मैं चाहता हूँ कि लोग पहले भारतीय हों अंत तक भारतीय बने रहें ,भारतीय के अलावा कुछ नहीं ।
यैसा वो इसलिए कहते थे क्योंकि उनको पता था की गुलामी क्या होती है ?और उससे मुक्ति क्या होती है ?
तभी तो उन्होंने 5 फ़रवरी 1950 को सदन में बयान दिया था कि " भारत शताब्दियों के पश्चात आज़ाद हुआ है ,स्वराज्य की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है।भारत में किसी भी प्रकार की फूट हमारा स्वराज्य हमसे छीन लेगी।
इस तरह के बयान आज भी अम्बेडकर को बिलकुल प्रासंगिक बना दिया है ,आज भारत में अलगाववादी प्रवृत्तियाँ फैलाई जा रही हैं ,नक्सल,बोडो,कश्मीरी, माओवादी ,अब जेहादी भी ,यह सब भारत को तोड़ने के लिए लगे हैं जिनका प्रभाव सुदूर इलाकों से लेकर जेएनयू तक मैं फ़ैल गया है यैसे में अम्बेडकर की उक्त चेतावनी बेहद निर्णायक सन्देश देती है।और इन सब पर अम्बेडकर उसी दौर में सोच लेते हैं।और इसीलिए तो वे संविधान की सर्वोच्चता की बात बार बार करते हुए सभी समस्याओं का हल उसी में ढूंढने की वकालत करते हैं जो अम्बेडकरवाद का सबसे प्रमुख पहलू माना जाना चाहिए।
आइये देखते हैं कि आज की अलगावादी प्रवृत्तियों और राज्य व् सरकार विरोधी आंदोलनों पर उनकी क्या राय है ?
अम्बेडकर ने संविधान सभा की कार्यवाहियों के आखिरी दिनों में अपने संविधानवादी लोकतान्त्रिक सोच की रूपरेखा यूँ रखी -- उन्होंने सदन में कहा की एक बार जब हम संविधान के शासन वाला संसदीय लोकतन्त्र चुन लिए हैं तो अब हमे भारत की सभी समस्यायों के समाधान के लिए संविधान में दिए संवैधानिक उपायों को ही अपनाने की जरूरत है, और असहयोग ,अनशन,आंदोलन,धरना आदि गैर संवैधानिक तरिको का इस्तेमाल करना ठीक नहीं होगा।इससे कानून का शासन लागू हो सकेगा।दरअसल अम्बेडकर बिलकुल अहिंसक और शांतिप्रिय विचरों के आधुनिक व्यक्तित्व वाले मानव थे,वे हिंसा रक्तपात और किसी तरह की गैरकानूनी गतिविधियों के खिलाफ थे।उनके मन में अमेरिका जैसा कानून का शासन था,इसीलिए वे अध्यक्षात्मक प्रणाली के भी प्रबल पक्षधर थे ,पर उनका प्रस्ताव सभा में पास न हो सका था।
इस तरह हम देखते हैं की आज का भारत जिन समस्यायों या जिन उपलब्धियों के साथ अस्तित्व में है और आगे बढ़ने के लिए तत्पर है,उन सभी पर अम्बेडकर का चिंतन बेहद व्यवहारिक और लोकतान्त्रिक मानवतावादी है।और समाधान देता है रस्ता दीखाता है।इसलिए तो अम्बेडकर का अरक्षणवाद आज दुनिया भर में अफर्मेटिव एक्शन के रूप में माना जा रहा है और अम्बेडकरवाद आज भारत की सर्वाधिक सशक्त राजनैतिक विचरधारा बन चुकी है। यही नहीं आज कम्युनिस्ट हों या राष्ट्रवादी सबको अम्बेडवाद के झंडे के नीचे आना पड़ा है।
हालाँकि अम्बेडकरवाद का मतलब पूर्णतः संविधानवाद और कल्याणकारी लोकतंत्र ही है तथापि आज अम्बेडकर की लीगेसी पर परस्पर विरोधी विचारधारा वाले लोग सिरफ दलित वोटों का राजनैतिक लाभ उठाने के लिए कब्जा करने की भी कोशिश में हैं,यही नही दलित राजनेता और चिंतक भी अंबेडकर के जातिविनाश के मिशन को समझने और आगे बढाने की जगह बस अपनी अपनी जाति के वोटबैक को एकजुट करके सत्ता मे बैठ जाना चाहते है,, जो यह दर्शाता है कि आज सच्चे अम्बेडकर वादियों की जरूरत है जो अम्बेडकर और उनके वाद को हाइजैक होने ,तोड़े मरोड़े जाने से रोकें ।अन्यथा वोटबैंक की पॉलिटिक्स अम्बेडकर का भी वही हस्र करेगी,जो गांधी,लोहिया,दीनदयाल के विचारों के साथ हो रहा है।
इन सब चुनौतियों के बावजूद भारत रत्न बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर की राष्ट्र,लोकतन्त्र, संविधानवाद,पंथनिर्पेक्षिता,मानवतावाद, आर्थिक प्रगति, बौद्ध दर्शन और सामाजिक न्याय के प्रति जो प्रतिबद्धता थी,वह हमेशा हमेशा के लिए उन्हें अमर ,प्रासंगिक और महान राष्ट्ररत्न बनाती है।तथा आधुनिक भारत के विकास और सशक्तिकरण का कोई मार्ग अम्बेडकरवाद को हटाकर नहीं निर्मित किया जा सकता।बस जरूरत है कि आज उनके सामाजिक न्याय के एजेंडे को उनके राष्ट्रिय एकता व अखण्डता के मॉडल के साथ लागू किया जाये। जय भीम ,जय भारत ।






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Friday 8 April 2016

A Message


“भारत माता की जय” और “ व्याख्या - भारत माता, बंदे मातरम इत्यादि का” शीर्षकों से मैंने क्रमश: 4 अप्रैल और सात अप्रैल को दो पोस्ट लिखे हैं. उनमें मैंने वही लिखा है जो मैं महसूस करता हूँ. मैंने जो कुछ लिखा है उसका मतलब यही है कि हमें हर चीज को कानून के तराजू पर नहीं तौलना चाहिए बल्कि यह देखना चाहिए कि कोई भी परम्परा, मान्यता, शब्द, संकेत मानवता के हक में है कि नहीं. यदि हमें लगता है कि इनमें से कोई भी चीज मानवता के खिलाफ है तो उसमेन परिवर्तन करने की कोशिश करनी चाहिए.
भारत नाम देश या राष्ट्र कभी था कि नहीं इसका सवाल ही नहीं उठना चाहिए.यदि हम बचपन से यह मान कर चले है कि भारत एक राष्ट्र था और ऐसा मानकर कहते है कि राष्ट्र से बढ़ा कोई नहीं है तो इससे भारत की एकता को खतरा कहाँ पैदा होता. क्या इसमें यह सम्देश छिपा नहीं है कि जब भारत राष्ट्र की भारत करते है तो हमारा मतलब भारत में रहने वाले समस्त लोगों से है. जब हम राष्ट्र ध्वज के सम्मान की बात करते है तो क्या हमारा मतलब भारत में रहने वाले सभी लोगों के सम्मान से नहीं हैं? यदि हम भारत माता की रक्षा की बात करते है तो क्या धरती के उस भूभाग की बात नहीं करते हैं जिस पर हम जन्म लेते है, जिससे हमारा भरण पोषण होता है और जिसकी मिट्टी में मरने के बाद हम समा जाते है? क्या ऐसी भावना से हमारी एकता मजबूत नहीं होती? तो फिर इन पर सवाल क्यों खड़ा हो जाता है?
आखिर यह सवाल किसने खड़ा किया? क्या हमारे देश के बुद्धिजीवियों, मिडिया वर्ग और कुछ संकीर्ण और निहायत स्वार्थी नेताओं को मालूम नही हैं? सबको मालूम है. मगर अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए ऐसी पवित्र भावना को भी ये सब विवादास्पद बना रहे हैं. हमने कभी सोचा भी नहीं था कि “भारत माता की जय” और “वदे मातरम” जैसे पवित्र नारों की भी चीड़ फाड़ की जायेगी. हमने कभी नहीं सोचा था कि देश भक्ति और राष्ट्रीयता का भाव भरने वाले इन नारों को भी कुछ लोग विवादास्पद बना देगें.
सबको मालूम है कि भारत माता की भावना को मजबूत करने के उद्देश्य से हमारे देश की एक मशहूर संस्था के प्रमुख ने भारत माता की जय को राष्ट प्रेम से जोड़ दिया. उस सस्था कुछ लोगों को घृणा है. स्वाभाविक है कि उसके प्रमुख यदि सही बात भी कहेंगे तो ऐसे लोगों को जो उस संस्था से घृणा करते हैं उनकी बातों में भी खोट नजर आएगी. यही बंदे मातरम और भारत माता को ले कर हुआ है.
एक महाशय जी जो उस संस्था से बेहद घृणा करते है और उस संस्था के खिलाफ हमेशा जहर उगलते रहते हैं ने यह कहते हुए जहर फैलाना शुरू कर दिया कि यदि उनकी गर्दन पर चाकू भी रख दी जाय तो वे भारत माता की जय नहीं बोलेंगे.वे महाशय जी शब्दो के धनी है, ओजस्वी और प्रभाव शाली भाषण भी देते है. मिल गया मिडिया और हमारे देश के तथाकथित बुद्धि जीवियों को खुराक. बना दिया ऐसे पाक शब्दों को विवादास्पद!
मुझे टाइम्स ऑफ इंडिया में एक सम्पादकीय पढ़ कर ऐसा लगा कि मिडिया वालों के बारे में मेरी जो धारना है काफी हद तक ठीक है. कहने की आवशयता नहीं है कि किसी भी अखबार का सम्पादकीय उस अखबार की सोच की तरफ इशारा करते है. आज अर्थात 8.4.2016 की सम्पाकीय का शीर्षक है: “Take It Easy. For Bharat Mata’s Sake, BJP must sheath its patriot missile”. टाइम्स ऑफ इंडिया बी.जे.पी. को सलाह दे रहा है कि बी.जी.पी. इस मसले को गम्भीरता से न ले. भारत बी.जे.पी. को भारत माता की भलाई के लिए देश भक्ति की मिसाइल को म्यान के अंदर रख देना चाहिए.
सवाल यह है कि भारत माता या वदे मातरम को बी.जी.पी. से जोड़ कर टाइम्स ऑफ इंडिया देश का कितना बड़ा नुक्सान कर रहा है इसका आकलन करना मुश्किल है. वह इस लिए कि भारत माता या वंदे मातरम का संबन्ध सिर्फ बी.जे.पी. से नहीं है इसका संबंध उन लोगों से भी है जो बी.जे.पी. के साथ नहीं है. दुर्भाज्ञ से यह सम्पादकीय यह संदेश देता है कि भारत माता या वदे मातरम का सम्बंध सिर्फ और सिर्फ बी.जे.पी. से है. जबकि भारत माता और वदे मातरम का संबंध समूचे देश वासियों से है.
सम्पादकीय में अपने तर्क को मजबूती प्रदान करने के लिए हिंदी और ईंग्लिश में भाषाओं को ले कर देश में जो तनाव उत्पन्न हो गया था उसका उदाहरण दिया गया कि किस तरह से हिंदी का वर्चस्व कायम करने का फैसला सरकार को वापस लेना पड़ा था. दिव्य दृष्टि रखने वाले इतने बड़े सम्पादक महोदय को एक विशालकाय अन्तर दिखाई नहीं देता कि हिंदी तमिलनाडु में नहीं बोली जाती और इसी लिए उसका विरोध हुआ. लेकिन भारत माता, वंदे मातरम के साथ तो ऐसा नहीं है. हिंदुस्तान के किसी भी प्रांत का वासी हो वह देश भक्त अपनी माँ से प्यार करता है. हिंदी से जुड़ी भावना और देश भाक्ति से जुड़ी भावना को एक तराजू पर नहीं रखा जा सकता.
सम्पादकीय में एक और बात बेहद आपत्ति जनक लिखी गई है. भारत और किसी दूसरे देश के बीच क्रिकेट मैच में यदि कोई वर्ग दूसरे देश चाहे वह पाकिस्तान तो या कोई और के लिए तालियाँ बजाता है, ऐसी घटना को भी वे छोटी सी घटना मानते है. मतलब यह है कि यदि भारत वेस्ट इंडीज से हार जाता है, भारत के कुछ मुट्टी भर लोग भारत के खिलाफ नारे बाजी करते हैं, पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगाते है, पाकिस्तान का झंडा फहराते हैं तो यह बुद्धिजीवी, विद्वान और प्रकांड पंडित सम्पादक महोदय के लिए बेहद छोटी घटना है. उनके हिसाब से यदि देखा जाय तो ऐसे लोग भी भारत का सपूत कहला सकते है.
माफ कीजिए सम्पादक महोदय! मैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल देश के लोगों को जोड़ने के लिए कर रहा हूँ तोड़ने के लिए नहीं. आपका लेखन समाज में दुराव पैदा कर रहा है. कृपा करके जाति, धर्म. भाषा, क्षेत्र इत्यादि सकीर्ण अवधारणाओं का ढ़िढ़ोरा पीट कर अपने लाभ के लिए हमें मत बाँटिए. अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल आप राष्ट प्रेम को बढ़ावा देने के लिए करे. भारत माता और बदे मातरम को किसी धर्म विशेष या पार्टी विशेष से न जोड़ कर भारत की समस्त जनता से जोड़ने का काम करें. धन्यबाद!

Thursday 7 April 2016

व्याख्या - भारत माता, बंदे मातरम इत्यादि का !

कुछ लोगों का तर्क है कि जो व्यवस्था हमारे संविधान के अंतर्गत नहीं है, उसका पालन करना आवश्यक नहीं है. ऐसी बात कहने वाले लोगों में मुख्यत: राजनीतिक लोग, तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग और मिडिया जगत हैं. तकनीकी और कानूनी रूप से ऐसे लोगों की बातें सही है. जहाँ तक मेरी सीमित समझ का सवाल है, मुझे यह लगता है कि इन सभी लोगों की सोच का दायरा बेहद सीमित है. ऐसे लोग अपनी बौद्धिक सत्ता का इस्तेमाल अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए कर रहे हैं. ऐसे लोगों से मैं यह पूछना चाहता हूँ कि क्या संविधान और देश के कानून में यह भी व्य्वस्था दी गई है कि किस तरह से हमें उठना-बैठना है, सोना-जागना है, आपस दुआ-सलाम करना है, बड़े बुजुर्गों का सम्मान करना है और इसी तरह का दैनिक व्यवहार और क्रियाएं करनी है? मैं समझता हूँ कि सिर्फ भारत के संविधान और कानून में ही नहीं, बल्कि विश्व के किसी भी देश के संविधान या कानून में दैनिक व्यवहार और दिनचर्या के लिए नियम नहीं बनाए गए होंगे. सामाजिक मूल्यों को बरकरार रखते हुए, जीवन जीने के सभी आयामों का उल्लेख किसी भी देश के संविधान या कानून में नहीं हो सकता. कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसी बहुत सारी बातें संविधानेत्तर हैं. दैनिक व्यवहार में हमें कैसा आचरण करना है, अपने बड़ों को किस तरह से सम्बोधित करना है, किस तरह से सामाजिक मूल्यों को बनाए रखना है, इत्यादि चीजे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संविधान और कानून द्वारा नहीं अपितु परम्परा और संस्कार के द्वारा अग्रसरित होती हैं. हर बात को कानून और संविधान के तराजू पर तौलना मेरी समझ से उचित नहीं है. दुर्भाज्ञ से वैसे लोग जिनको भारत की संस्कृति और भारत के सामान्य लोगों की भावनाओं से कुछ भी लेना देना नहीं है, जो अपने कर्मों और कथनों से समाज को समष्टि से व्यष्टि की तरफ निरंतर ढकेल रहे हैं, आधुनिकता को इस ढंग से प्रस्तुत कर रहे है कि आदमी का अपने आप तक सिमटना ही न्याय संगत और वाजिब है. ऐसे लोगों की सोच और दृष्टि संविधान और कानून में प्रदत्त अधिकारों के लिए चिल्लाने और शोर मचाने तक ही सीमित हैं. ऐसे लोगों को अपने बौद्धिक बल के आधार पर सही को गलत और गलत को सही साबित करने पर श्रेष्टता का बोध होता है. ऐसे लोगों के लिए भावनाओं का कोई महत्व नहीं हैं. इन लोगों को मानवता से कुछ भी लेना देना नहीं.
हम सभी जानते है कि व्यहारिक जीवन में माँ से बढ़ कर कोई भी नहीं है. अत: यदि किसी को हम माँ कहते है तो हम सिर्फ अपनी भावना को प्रकट करते है. जिस समय हम माँ का स्मरण करते है उस समय हम भाव विह्वल हो जाते हैं. माँ का स्मरण करने से ऐसी भाव विह्वलता उन्हीं लोगों के अंदर नहीं आती जो माँ को माँ नहीं समझते हैं.
जो लोग सिर्फ संविधान और कानून के प्रकाश में हर चीज को देखने की कोशिश करते है तथा सही और गलत का निर्णय सिर्फ संविधान और कानून के प्रकाश में करते हैं, उन लोगों से मैं पूछना चाहता हूँ कि हिंदुस्तान के कितने लोग ऐसे हैं जिन्हें संविधान की व्यवस्थाओं की जानकारी है. कितने लोग ऐसे हैं जिन्हें मालूम है कि कौन सा काम अपराध की श्रेणी में आता है और कौन सा काम नहीं आता. कितने लोगों को आई.पी.सी. और सीआर.पी.सी. की जानकारी है? कानून की जानकारी न होने की वजह से बहुत सारे लोग कानून का उल्लंघन कर जाते हैं. क्या ऐसे लोग कानून के शिकंजे से बच जाते है? नहीं. संविधान और कानून क्यों ऐसे लोगों को सजा देता है जिन्हे संविधान और कानून के बारे में कुछ भी पता नहीं होता? क्या ऐसे लोगों को जिन्हें यह मालूम ही नहीं है कि क्या कानून सम्मत है और क्या कानून सम्म्त नहीं है , कानून के अंतर्गत सजा देना कहाँ तक न्याय संगत है? एक तो ऐसे लोगों को हमने इस काबिल नहीं बनाया कि वे समझ सकें कि भारत का संविधान और कानून क्या कहता है? जानकारी न होने की वजह से ऐसे लोगों से यदि कानून का उल्लंघन हो जाता है तो बौद्धिक रूप से ताकतवर लोग ऐसे लोगों को सजा दिलवाने के लिए कमर कस कर तैयार हो जाते हैं. लेकिन जब कोई चालाक और शब्दों का धनिक आदमी, जिसके पास बौद्धिक सम्पदा है, उस माँ को माँ कहने से इंकार करता है जिस माँ का अन्न खाकर, पानी पी कर, और जिस माँ के आँचल की हवा में साँस ले कर इस काबिल हुआ है तो क्या माँ के बाकी बच्चों को जो माँ से बहुत प्यार करते हैं तो क्या क्षोभ नहीं होगा. ऐसे चालाक और शब्दों के धनिक लोग यदि बाल की खाल निकालकर माँ के स्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगाए तो क्या ऐसे नालायक भाइयों के व्य्वहार उस माँ के बाकी बचे दु:खी नहीं होगे? ऐसी स्थिति बौद्धिक रूप से ताकतवर वर्ग अर्थात तथा - कथित बुद्धि जीवी, स्वार्थी राजनीतिक मिडीया जगतयदि बाकी बच्चों के प्रति संवेदनशील होने के के वजाय पूरे जोर शोर से यह साबित करने का प्रयास करता है कि माँ को माँ न कहना जरूरी नहीं है और माँ को माँ न कहने पर भी ऐसा व्यक्ति माँ का बेटा ही रहेगा तो क्या यह नाइंसाफी नहींं है? कौन कहता है कि हिंदुस्तान में जो पैदा हुआ है वह यदि माँ को माँ नहीं कहता वह भारत माँ संतान नहीं हैं? बेशक वह भारत माँ की संतान हैं. भारत माँ की कोख से जो भी पैदा हुआ है वह लायक हो या नालायक भारत माँ की सन्तान हैं . वह भारत माँ की सनतान ही रहेगा भले वह अपनी माँ के खून पसीने के बदले उसका चीर हरण करे.माता कुमाता नहीं होती भले ही पुत्र कुपुत्र हो जाय. ऐसे लोगों से जो बौद्धिक रूप से संपन्न है उनसे मेरे जैसे लोगों का नम्र निवेदन है कि यह कह कर माँ को माँ नहीं कहूँगा, माँ का अनादर न करें.
ऐसे से लोगो से मैं यह भी पूछना चाहता हूँ कि हिंदुस्तान के कितने लोगों को पता है कि भारत माता शब्द संविधान में है कि नहीं? कितने लोगों को मालूम है कि राष्ट्र गान या राष्ट्र ध्वज ही राष्ट्र के प्रतीक है? हमने तो बचपन से यही पढ़ा और समझा कि “जन गण मन” और “वंदे मातरम” में से एक राष्ट्रीय गान है और दूसरा राष्ट्रीय गीत. दोनों का जिक्र करते ही बचपन से ही हमारे अंदर देश भक्ति की भावना हिलोरी लेने लगती है. इसी तरह भारत माता का जिक्र आते ही हमारी माँ हमारी आँखों के सामने आ जाती है. कहने की आवश्यकता नहीं है कि देश को सम्मान व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का इश्तेमाल किया गया है. जब हम राष्ट्र ध्वज को सलाम करते हैं तो उसका मतलब है कि हम भारत के लोगों की एकता अखंडता को सलाम करते है. इसी तरह से यदि हम भारत माता को सलाम करते हैं तो उस धरती को सलाम करते है जिस धरती ने हमें पैदा किया और हमें पाल पोस रही है. माँ के दिल में लायक हो या नालायक सभी बच्चों के लिए दर्द है. माँ अपने बच्चों में किसी तरह का फर्क नहीं करती. विश्वास और जीवन पद्धति के आधार पर भारत माता कि बच्चों ने भले ही अलग पंथ बना लिया हो लेकिन सभी भारत माता के संतान हैं. मैं समझता हूँ कि धरती को सलाम न करना भले ही कानूनी रूप से अपराध न हो लेकिन पाप अवश्य है. कानून का उल्लंघन अपराध है लेकिन भावना का अनादर पाप है. दुर्भाज्ञ की बात है कि आज का बुद्धि वर्ग और मिडिया सिर्फ रूखे सूखे कानून से मतलब रखता है. उसके लिए भावनाओं का कोई महत्व नहीं है.
जिस संविधान की बात की जाती है उसी संविधान की जनक " The Constituent Assembly of India" के तत्कालीन अध्यक्ष डा. सच्चिदानन्द सिन्हा की दस दिसम्बर 1946 की कार्यवाही के दौरान टिप्पणी की थी: “Interpretation is a most dangerous thing” . अत: संविधान की व्याख्या करने वाले महानुभावों से आग्रह है संविधान की व्याख्या करते वक्त इस बात का ध्यान रखे कि भारत का मानस क्या कहता है और अपने तर्क वितर्को से कि भारत माता के बच्चों में दुराव पैदा करने की कोशिश न करें बल्कि सौहार्द उत्पन्न करने की कोशिश करें.


Tuesday 5 April 2016

भारत माता की जय

चत्रवर्ती राज गोपालाचारी जो राजा जी या सी.आर. के नाम से भी जाने जाते थे के बारे में प्राय: वे सभी लोग जानते हैं जो अपने आपको को बुद्धि जीवी कहते है. वह इस लिए कि राजा जी भारत के अंतिम गवर्नर जनरल थे. वे कोई ऐसे वैसे व्यक्ति नहीं थे. वे एक जाने माने वकील, स्वतंत्रता सेनानी, राज्नीतिज्ञ, लेखक भी थे. आज़ाद भारत में वे गृह मंत्री भी रह चुके थे और भारत रत्न की उपाधि से विभूषित किए गए थे.

गाँधी जी की हत्या पर उन्होने अपने शोक का इजहार निम्न लिखित शब्दो में किया था:-
“Bharatmata is writhing in anguish and pain over the loss. No man loved Bharatmata and Indians more than Mahatma Gandhi. Let the tragedy that was enacted in Delhi give the people of India the tune, reason, rhyme and melody for the history of their future. I pray that the history of India might be written with the rhythm and tune of the grief that Bharatmata had felt when Mahatma Gandhi fell”


किस भारत माता की बात वे कह रहे थे? प्रश्न यह है कि जिस भारत माता को राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी सबसे ज्यादा प्यार करते थे और जो भारत माता गांधी जी की हत्या पर क्षोभ और पीड़ा से कराह रही थी, उसी भारत माता की जय बोलने के खिलाफ कुछ मुट्ठी भर लोग मिडिया वालों का सहारा ले कर शोर मचा रहे हैं. क्या ऐसा करके ऐसे लोग गाँधी जी की आत्मा को ठेस नहीं पहुँचा रहे हैं? चत्रवर्ती राज गोपालाचारी की उक्त अभिव्यक्ति क्या अभी तक किसी के सामने नहीं आई होगी? अवश्य आई होगी. फिर किसी ने अब तक सवाल क्यों नहीं उठाया था कि चत्रवर्ती राज गोपालाचारी जी ने भारत माता को गाँधी जी से भी ऊपर क्यों मान लिया था? क्या चत्रवर्ती राज गोपालाचारी के कहने का तात्पर्य यह नहीं था कि गाँधी जी अपने आप को भारत माता की संतान समझते थे?


जब तक हम प्राकृतिक माँ की गोद में होते है तब तक माँ का दूध पी कर हम बढ़ते है. उसके बाद हामरा लालन पालन धरती की कोख से पैदा हुए अन्न, जल और वायु से होता है. मेरी समझ में नहीं आता कि जिस मिट्टी में हम पैदा होते है, जिस मिट्टी की उपज खा कर हम जीवित रहते है, उसे सर्वोपरि स्थान देने में किस बात का एतराज हो सकता है. यदि हम अपनी जन्म भूमि को माँ कह दें तो इसमे क्या बुराई है? कहने की जरूरत नहीं है कि हमारा अस्तित्व, हमारा विचार, हमारी आस्था, हमारा विश्वास, हमारा धर्म सब कुछ माँ की बदौलत है. अत: सबसे पहले हम माँ के सामने ही सर झुकाएगें उसके बाद ही ईश्वर, देवी और देवताओं इत्यादि का नम्बर आता है. अत: जो अपनी माँ के सामने सिर नहीं झुका सकता, माँ के प्रति कृतज्ञ नहीं हो सकता, उसको हम क्या कहेगें?


मुझे तो ऐसा लगता है कि कुछ लोगों को भारतीयता से ही परहेज है. यदि किसी बात को अंग्रेजी में कह दिया जाय तो वह शायद धर्म निरपेक्ष लगने लगता है. लेकिन उसी बात को यदि संस्कृत में कह दिया जाय तो कुछ लोगों को उसमें साम्प्रदायिकता की बू आने लगती है. ईसा मसीह दया के प्रति प्रति मूर्ति थे, इसे कौन इंकार कर सकता है. सुकरात को जो लोग जहर पिला रहे थे, सुकरात उन्हीं लोगों पर हँस रहे थे. महात्मा बुद्ध ने कहा था कि सभी कष्टों के मूल में इच्छा है-इसे कौन इंकार कर सकता है. लिओ टॉलस्टॉय के बारे में हम जानते थे कि वे गाँधी जी के आध्यामिक गुरू थे. यदि कोई हिंदू कहता है कि चूकि ईशा मसीह सुकरात, लिओ टॉल्टॉय हिंदू नहीं थे अत: उनकी बातें मानने लायक नहीं है तो क्या उसका ऐसा कहना उचित होगा. इसी तरह से यदि कोई बात संस्कृत में कही गई है, या जो बात मोहन भागवत जी कहते है उसे इस आधार पर खारिज करना कहाँ तक उचित है कि वे सभी बातें साम्प्रदायिक है. हाँ यदि मोहन भागवत जी यह कहते है कि सिर्फ हिंदुओं से प्रेम करो और बाकी लोगों से नफरत तो उनकी बाते कतई बर्दास्त के काबिल नहीं. हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, दक्षिण पंथी, वाम पंथी -कोई भी यदि भारत माता से अपने को , अपने धर्म, अपनी आस्था और विश्वास को भारत और भारत के प्रतीक से ऊँचा समझता है तो वह देश का अपमान करता है. मगर वाह! रे हमारे देश के बुद्धि जीवी और मिडिया वालें! जो लोग गला फाड़ फाड कर चिल्ला रहे हैं कि पूरी धरती माँ है. धरती पर जितने लोग हैं वे एक ही कुटुम्ब हैं. जिन लोगों को ऐसे बुद्धि जीवी जिन्हें सामप्रादायिक कहते हैं वे गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाते हैं कि “वसुधैव कुटुम्बक्म”, “सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामहा”. इसमे नफरत की कहाँ गुंजाईश है भाई? इसमे साम्प्रदयिकता की कहाँ गुंजाइश है भाई? इसमे में संकीर्णता कहाँ है? लेकिन यह बात हमारे देश के तथा कथित बुद्धिजीवियों को सुनाई नहीं देता.


हम सभी भारत माता की संतान हैं. यदि मैं कहता हूँ कि सम्विधान में कहीं नहीं लिखा है कि मैं अपनी माँ और पिता का आदर करू, अपने माँ बाप को अपने से बड़ा समझूँ, और यह सुन कर मेरा भाई व्यथित हो उठता है और आक्रोश व्यक्त करता है, तो क्या कहा जा सकता है वह गलत है और मैं सही हूँ? इसी तरह से यदि मै भारत माँ का अपमान करता हूँऔर हमारा भाई व्यथित हो जाता है और व्यथित हो कर भारत माता की आन बान शान की खातिर आक्रोश में कुछ कह बैठता है, तो बजाय आत्मावलोचन करने के बजाय मैं अपने उस भाई के पीछे ही लट्ठ ले कर पड़ जाऊँ तो यह कहाँ तक उचित है. मैं समझता हूँ कि तथाकथित बुद्धि जीवी और मिडिया यही काम कर रहे है. तथाकथित बुद्धि जीवी और मिडिया अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए ऐसे लोगों को प्रमुख स्थान दे रहे हैं और इस तरह से वे भारत माता के साथ अन्याय कर रहे हैं. ऐसे करके तथाकथित बुद्धि जीवी और मिडिया भारत माता को प्यार करने वाले सपूतों के जले पर नमक छिडकने का काम कर रहे है. ऐसे सपूतों के पीछे लट्ठ ले कर दौड़ रहे है. तथा- कथित बुद्धि जीवी मित्रों, हमें तो आपकी बुद्धि पर ही तरस आता है. देश से बढ़ कर न कोई मान्यता है न कोई धर्म. माता से बढ़ कर कोई नहीं है. हमारा सम्विधान मूलत: भारत माता की रक्षा और उनके संतानों की रक्षा के लिए है. भारत माता के संतानों को उचित संस्कार की जरूरत है. माँ और भारत माँ का मजाक उड़ाना बंद करों. पढ़े लिखे होने का मतलब यह नहीं कि तुम अपनी बेजुबान और खामोश माँ का अनादर करों. याद रखो: “जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”. देश के तथा कथित बुद्धि जीवी मित्रों और मिडिया वाले आप लोग अपनी शक्ति का बेजा इस्तेमाल मत करो. राम और रावण दोनों शक्ति शाली थे. रावण तो शायद राम से ज्यादा विद्वान था लेकिन घमंडी था. उसने अपने तपो बल और बुद्धि का बेजा इस्तेमाल किया था. बुद्धि जीवी मित्र और मिडिया वाले, आप लोग कृपया वह काम मत करो जो रावण ने किया था.