Thursday, 7 April 2016

व्याख्या - भारत माता, बंदे मातरम इत्यादि का !

कुछ लोगों का तर्क है कि जो व्यवस्था हमारे संविधान के अंतर्गत नहीं है, उसका पालन करना आवश्यक नहीं है. ऐसी बात कहने वाले लोगों में मुख्यत: राजनीतिक लोग, तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग और मिडिया जगत हैं. तकनीकी और कानूनी रूप से ऐसे लोगों की बातें सही है. जहाँ तक मेरी सीमित समझ का सवाल है, मुझे यह लगता है कि इन सभी लोगों की सोच का दायरा बेहद सीमित है. ऐसे लोग अपनी बौद्धिक सत्ता का इस्तेमाल अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए कर रहे हैं. ऐसे लोगों से मैं यह पूछना चाहता हूँ कि क्या संविधान और देश के कानून में यह भी व्य्वस्था दी गई है कि किस तरह से हमें उठना-बैठना है, सोना-जागना है, आपस दुआ-सलाम करना है, बड़े बुजुर्गों का सम्मान करना है और इसी तरह का दैनिक व्यवहार और क्रियाएं करनी है? मैं समझता हूँ कि सिर्फ भारत के संविधान और कानून में ही नहीं, बल्कि विश्व के किसी भी देश के संविधान या कानून में दैनिक व्यवहार और दिनचर्या के लिए नियम नहीं बनाए गए होंगे. सामाजिक मूल्यों को बरकरार रखते हुए, जीवन जीने के सभी आयामों का उल्लेख किसी भी देश के संविधान या कानून में नहीं हो सकता. कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसी बहुत सारी बातें संविधानेत्तर हैं. दैनिक व्यवहार में हमें कैसा आचरण करना है, अपने बड़ों को किस तरह से सम्बोधित करना है, किस तरह से सामाजिक मूल्यों को बनाए रखना है, इत्यादि चीजे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संविधान और कानून द्वारा नहीं अपितु परम्परा और संस्कार के द्वारा अग्रसरित होती हैं. हर बात को कानून और संविधान के तराजू पर तौलना मेरी समझ से उचित नहीं है. दुर्भाज्ञ से वैसे लोग जिनको भारत की संस्कृति और भारत के सामान्य लोगों की भावनाओं से कुछ भी लेना देना नहीं है, जो अपने कर्मों और कथनों से समाज को समष्टि से व्यष्टि की तरफ निरंतर ढकेल रहे हैं, आधुनिकता को इस ढंग से प्रस्तुत कर रहे है कि आदमी का अपने आप तक सिमटना ही न्याय संगत और वाजिब है. ऐसे लोगों की सोच और दृष्टि संविधान और कानून में प्रदत्त अधिकारों के लिए चिल्लाने और शोर मचाने तक ही सीमित हैं. ऐसे लोगों को अपने बौद्धिक बल के आधार पर सही को गलत और गलत को सही साबित करने पर श्रेष्टता का बोध होता है. ऐसे लोगों के लिए भावनाओं का कोई महत्व नहीं हैं. इन लोगों को मानवता से कुछ भी लेना देना नहीं.
हम सभी जानते है कि व्यहारिक जीवन में माँ से बढ़ कर कोई भी नहीं है. अत: यदि किसी को हम माँ कहते है तो हम सिर्फ अपनी भावना को प्रकट करते है. जिस समय हम माँ का स्मरण करते है उस समय हम भाव विह्वल हो जाते हैं. माँ का स्मरण करने से ऐसी भाव विह्वलता उन्हीं लोगों के अंदर नहीं आती जो माँ को माँ नहीं समझते हैं.
जो लोग सिर्फ संविधान और कानून के प्रकाश में हर चीज को देखने की कोशिश करते है तथा सही और गलत का निर्णय सिर्फ संविधान और कानून के प्रकाश में करते हैं, उन लोगों से मैं पूछना चाहता हूँ कि हिंदुस्तान के कितने लोग ऐसे हैं जिन्हें संविधान की व्यवस्थाओं की जानकारी है. कितने लोग ऐसे हैं जिन्हें मालूम है कि कौन सा काम अपराध की श्रेणी में आता है और कौन सा काम नहीं आता. कितने लोगों को आई.पी.सी. और सीआर.पी.सी. की जानकारी है? कानून की जानकारी न होने की वजह से बहुत सारे लोग कानून का उल्लंघन कर जाते हैं. क्या ऐसे लोग कानून के शिकंजे से बच जाते है? नहीं. संविधान और कानून क्यों ऐसे लोगों को सजा देता है जिन्हे संविधान और कानून के बारे में कुछ भी पता नहीं होता? क्या ऐसे लोगों को जिन्हें यह मालूम ही नहीं है कि क्या कानून सम्मत है और क्या कानून सम्म्त नहीं है , कानून के अंतर्गत सजा देना कहाँ तक न्याय संगत है? एक तो ऐसे लोगों को हमने इस काबिल नहीं बनाया कि वे समझ सकें कि भारत का संविधान और कानून क्या कहता है? जानकारी न होने की वजह से ऐसे लोगों से यदि कानून का उल्लंघन हो जाता है तो बौद्धिक रूप से ताकतवर लोग ऐसे लोगों को सजा दिलवाने के लिए कमर कस कर तैयार हो जाते हैं. लेकिन जब कोई चालाक और शब्दों का धनिक आदमी, जिसके पास बौद्धिक सम्पदा है, उस माँ को माँ कहने से इंकार करता है जिस माँ का अन्न खाकर, पानी पी कर, और जिस माँ के आँचल की हवा में साँस ले कर इस काबिल हुआ है तो क्या माँ के बाकी बच्चों को जो माँ से बहुत प्यार करते हैं तो क्या क्षोभ नहीं होगा. ऐसे चालाक और शब्दों के धनिक लोग यदि बाल की खाल निकालकर माँ के स्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगाए तो क्या ऐसे नालायक भाइयों के व्य्वहार उस माँ के बाकी बचे दु:खी नहीं होगे? ऐसी स्थिति बौद्धिक रूप से ताकतवर वर्ग अर्थात तथा - कथित बुद्धि जीवी, स्वार्थी राजनीतिक मिडीया जगतयदि बाकी बच्चों के प्रति संवेदनशील होने के के वजाय पूरे जोर शोर से यह साबित करने का प्रयास करता है कि माँ को माँ न कहना जरूरी नहीं है और माँ को माँ न कहने पर भी ऐसा व्यक्ति माँ का बेटा ही रहेगा तो क्या यह नाइंसाफी नहींं है? कौन कहता है कि हिंदुस्तान में जो पैदा हुआ है वह यदि माँ को माँ नहीं कहता वह भारत माँ संतान नहीं हैं? बेशक वह भारत माँ की संतान हैं. भारत माँ की कोख से जो भी पैदा हुआ है वह लायक हो या नालायक भारत माँ की सन्तान हैं . वह भारत माँ की सनतान ही रहेगा भले वह अपनी माँ के खून पसीने के बदले उसका चीर हरण करे.माता कुमाता नहीं होती भले ही पुत्र कुपुत्र हो जाय. ऐसे लोगों से जो बौद्धिक रूप से संपन्न है उनसे मेरे जैसे लोगों का नम्र निवेदन है कि यह कह कर माँ को माँ नहीं कहूँगा, माँ का अनादर न करें.
ऐसे से लोगो से मैं यह भी पूछना चाहता हूँ कि हिंदुस्तान के कितने लोगों को पता है कि भारत माता शब्द संविधान में है कि नहीं? कितने लोगों को मालूम है कि राष्ट्र गान या राष्ट्र ध्वज ही राष्ट्र के प्रतीक है? हमने तो बचपन से यही पढ़ा और समझा कि “जन गण मन” और “वंदे मातरम” में से एक राष्ट्रीय गान है और दूसरा राष्ट्रीय गीत. दोनों का जिक्र करते ही बचपन से ही हमारे अंदर देश भक्ति की भावना हिलोरी लेने लगती है. इसी तरह भारत माता का जिक्र आते ही हमारी माँ हमारी आँखों के सामने आ जाती है. कहने की आवश्यकता नहीं है कि देश को सम्मान व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का इश्तेमाल किया गया है. जब हम राष्ट्र ध्वज को सलाम करते हैं तो उसका मतलब है कि हम भारत के लोगों की एकता अखंडता को सलाम करते है. इसी तरह से यदि हम भारत माता को सलाम करते हैं तो उस धरती को सलाम करते है जिस धरती ने हमें पैदा किया और हमें पाल पोस रही है. माँ के दिल में लायक हो या नालायक सभी बच्चों के लिए दर्द है. माँ अपने बच्चों में किसी तरह का फर्क नहीं करती. विश्वास और जीवन पद्धति के आधार पर भारत माता कि बच्चों ने भले ही अलग पंथ बना लिया हो लेकिन सभी भारत माता के संतान हैं. मैं समझता हूँ कि धरती को सलाम न करना भले ही कानूनी रूप से अपराध न हो लेकिन पाप अवश्य है. कानून का उल्लंघन अपराध है लेकिन भावना का अनादर पाप है. दुर्भाज्ञ की बात है कि आज का बुद्धि वर्ग और मिडिया सिर्फ रूखे सूखे कानून से मतलब रखता है. उसके लिए भावनाओं का कोई महत्व नहीं है.
जिस संविधान की बात की जाती है उसी संविधान की जनक " The Constituent Assembly of India" के तत्कालीन अध्यक्ष डा. सच्चिदानन्द सिन्हा की दस दिसम्बर 1946 की कार्यवाही के दौरान टिप्पणी की थी: “Interpretation is a most dangerous thing” . अत: संविधान की व्याख्या करने वाले महानुभावों से आग्रह है संविधान की व्याख्या करते वक्त इस बात का ध्यान रखे कि भारत का मानस क्या कहता है और अपने तर्क वितर्को से कि भारत माता के बच्चों में दुराव पैदा करने की कोशिश न करें बल्कि सौहार्द उत्पन्न करने की कोशिश करें.


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