Monday 12 December 2016

Aaj ki baat

मित्रों इस संसार में सब को खुश करना असम्भव है. जो क्रांतिकारी होता है वह रास्ता खुद बनाता है. मुकाम तक पहुँचने के लिए उसे सहयोग की आवश्यकता अवश्य होती है. लेकिन यदि सहयोग नहीं मिलता, लोग उसके मक़सद को नहीं पाते, सहयोग की जगह उस क्रांतिकारी पर पत्थर बरसाते है, उसे ज़हर पिलाते है सूली/फाँसी पर लटकाते है फ़िर भी उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता. वह आगे बढ़ता चला जाता है. इस लिए कि उसे विश्वास होता है कि वह जो कुछ कर राहा है अपने लिए नहीं बल्कि उन लोगों के जिनकी आँखो पर पट्टी बँधी है और उन्हें पता नहीं है कि वे कहाँ भटक रहें है. ऐसे क्रांति कारी गाली सुनेंगे , पत्थर खाएंगे, ज़हर पीयेंगे , सूली पर चढेगे लेकिन गाली देने वालों, पत्थर मारने वालों, ज़हर पिलाने वालों, सूली पर चढाने वालों के प्रति कुत्सित भाव नहीँ रखेंगे. एक कहावत है कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है लेकिन माता कुमाता नहीँ हो सकती. महात्मा बुद्ध ने पत्थर खाये , ईसा मसीह को सूली पर चढ़ा दिया गया, सुकरात को ज़हर का प्याला दिया गया, राजा राम मोहन रॉय गालियाँ सुनते रहें लेकिन सती प्रथा के अंत के लिए समर्पित रहें, लेकिन इन क्रान्ति कारियों के चेहरे पर ज़रा सी भी शिकन नहीं आई. जब भी परिवर्तन होता है परिवर्तन कर्ता को मुसीबतों का सामना करना पड़ता है. परिवर्तन वही लाता है जिसके अंदर मुसीबतों को झेलने का साहस होता है. हमें मुफ्त और खैरात की आदत पड़ चुकी है. आज तक हमारी इस कमजोरी का कुछ चतुर लोग फायदा उठाते रहें है. नोट बंदी चतुराई का काम नही है यह जोखिम भरा काम है. यह लोक लुभावन वाला फैसला नहीं है. यह फैसला अपने आप में अद्वितीय है. अच्छी नियत से लिए गये फैसले का परिणाम अच्छा होगा ऐसा मुझे लगता है. इसका अहसास हमें तभी होगा जब हम राजनीति के चश्मे से इसे न देखे.

Sunday 11 December 2016

अर्थशास्त्र नोट बंदी का.

माफ़ कीजिए मैं अर्थशास्त्री नहीं हूँ, लेकिन अर्थशास्त्र का सामान्य और व्यवहारिक ज्ञान मुझे अवश्य है. मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि टी वी पर जिन लोगों को नोट बंदी पर बहस करते हम देख और सुन रहे है,उनमें से अपवाद स्वरूप ही सही अर्थ में अर्थशास्त्री है. मेरी समझ से टीवी पर बहस करने वाले लोगों का अर्थशास्त्र ज्ञान मात्र अपना हित साधन तक सीमित है. जिन लोगों ने खेत में कभी पैर नहीं रखा होगा वे भी किसानों के दुःख दर्द की बात कर रहे हैं. जो गाँव कभी नही रहे वे भी कह रहे हैं कि गाँव के लोगों को बहुत परेशानी हो रही है. ऐसे लोगों को पता नही है कि गाँव में रोज़मर्रा का खर्च कैसे चलता हैं. जो लोग गाँव में नहीं रहें या कभी खेत में पैर नहीं रखा उन लोगों को मैं बताना चाहता हूँ कि गाँव में खाने पीने के लिए दुकान पर निर्भर नहीं रहना होता. उन्हें किसी भी चीज़ के लिए रोजाना भुगतान नहीं करना पड़ता. हप्ते, पन्द्रह दिन या महीने में उन्हें दुकान से खरीदी गयी चीजो का भुगतान करना होता हैं. उनका बिल भी बहुत अधिक नहीं होता. गाँव के लोग पंद्रह दिन में एक बार लाइन में खड़े हो गये तो उन्हें ख़ास परेशानी नहीं झेलनी पड़ती. कुछ लोग गला फाड़ फाड़ कर चिल्ला रहें हैं कि नोट बंदी की वजह से किसान बहुत परेशान हैं. उनके पास बीज और खाद खरीदने के लए पैसे नहीं हैं.जहाँ तक बीज का प्रश्न हैं, मेरा अनुभव यह कहता हैं कि अधिकाँश किसानों को बीज के लिए बाजार का चक्कर नहीं लगाना पड़ता. खेत की पैदावार से ही वे अगली फसल के लिए बीज सुरक्षित रख देते हैं. अब प्रश्न उठता है खाद का. मेरा अनुभव यह कहता है कि खाद की ज़रूरत सभी फसलों के लिए नहीं पड़ती. इसकी ज़रूरत मुख्य रूप से गेहूँ की बुवाई में पड़ती हैं. गेहूँ की बुवाई अक्टूबर के पहले सप्ताह से शुरू हो जाती हैं और दिसम्बर के पहले हप्ते तक चकती. रवी की बुवाई के लिए किसान पहले से ही पैसे इत्यादि की व्यवस्था करके रखता हैं. आग लगने पर वह कुआँ नहीं खोदता. अतः मुझे नहीं लगता कि नोट बंदी की वज़ह से बुआई पर कोई खास असर पडा है. बल्कि यह कहा जा सकता है कि कोई असर नही पड़ा है. यदि नोट बंदी का बुवाई पर असर पड़ा होता तो इस साल पिछले साल की अपेक्षा अधिक बुवाई नही हुई रहती.अब मै गाँव में रहने वाले उस वर्ग की चर्चा करना चाहता हूँ जिसके पास खेत नहीं है मगर उनकी जीविका खेती पर ही निर्भर करती है. इस वर्ग के लोग किसानों की मदद करते हैं. उनका काम सेवा क्षेत्र में आता हैं. सेवा क्षेत्र वर्ग में लुहार, बढ़ई, नाई , धोबी, कुम्हार इत्यादि आते हैं. इनको इनकी सेवाओं के बदले किसानों से अनाज मिलता हैं. इनकी माली हालत मध्यम दर्जे के किसान की हैं. गाँव में यदि किसी के पास पैसा नहीं हैं बल्कि अनाज है तो वह अनाज देता हैं और उसके बदले कोई और चीज़ ले लेता हैं. अतः गाँव में किसी के पास अनाज हैं और पैसा नहीं हैं तो उसका काम चल जाता हैं.किसानों में छोटे और मझोले किसानों की संख्या ज्यादा हैं. बड़ी जोत वाले किसान मुट्ठी भर हैं. इन्हीं लोगों के पास अतिरिक्त अनाज पैदा होता हैं. दुर्भाग्य से इन्हीं किसानों के बारे में बात की जाती हैं. किसानों का यह वर्ग मुखर हैं. दिल्ली जाकर धरना प्रदर्शन यही वर्ग करता हैं. बेचारे छोटे और मझोले किसानों के पास तो साल भर पेट भरने का भी अनाज पैदा नहीं होता. अनाज मंडी क्या होती हैं वे यह भी नहीं जानते. दुर्भाग्य से जब किसानों की बात होती है तो बड़ी जोत की कीसानो की ही बात होती. देश की अस्सी प्रतिशत जनता अभी भी गाँवो में रहती हैं. यदि अपवादों को छोड़ दिया तो कहा जा सकता है कि देश के नब्बे प्रतिशत लोगों को कोई ख़ास परेशानी नोट बंदी की वज़ह से हुई. यह परेशानी कैंसर से मुक्ति के लिए मरीज़ रेडिओ के शॉक की तरह हैं. दोस्तों नोट बंदी से सबको परेशानी है. लेकिन इतनी बड़ी परेशानी नहीं है कि इसी सहा न जा सके.

Sunday 27 November 2016

My views on demonetization

8 नवम्बर के रात के 8 बजे के बाद सम्पूर्ण देश में हलचल मची हैं. ऐसा क्यों हैं सबको पता हैं. तबसे से ले कर अब तक केन्द्र की सरकार कुछ लोग सवालों की बौछार कर रहे हैं. कुछ नेता गण कह रहे हैं कि सरकार के नोट बंदी से जनता त्राहि त्राहि कर रही है. 
सरकार ने नोट बंदी का फैसला क्यों किया, अब सबको पता चल गया हैं. नोट बंदी का फैसला नकली नोट, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद और आतंकवाद के खात्मे के लिए किया गया हैं. देश में जितना रूपया नकद के रूप में था उनमें से पाँच सौ और एक हजार के नोटो की संख्या करीब 85% थी. ये नोट बड़ी संख्या में किसके पास थे? ये नोट क्या देश के उन 20 करोड़ लोगों के पास थे जो भूखमरी के शिकार हैं? मेरा उत्तर हैं नही. ऐसे लोग मेहनत मज़दूरी करके जो कुछ कमाते हैं रोज़ नूंन तेल आटा खरीद कर भरपेट आधा पेट खाना खाते हैं. मज़दूरी भी पाँच सौ रूपये से कम ही होती हैं. यदि अपवादों को छोड़ दिया जाय तो देश के करीब 20 करोड़ लोग बचत करने की स्थिति में नहीं होते.
जहाँ तक किसानों की बात हैं तो आज भी देश की करीब 60% जन संख्या खेती पर निर्भर करती हैं. इस बार खरीफ की फसल अच्छी हुई हैं. मतलब यह हैं खेती करने वाले लोगों और खेती पर निर्भर मजदूरों के घर में खाने के लिए काफी अनाज. गाँव की दुकानों से उधार सामान ही जाता हैं. महीने पंद्रह दिन पर भुगतान किया जाता हैं. मतलब यह कि रोज़मर्रा की चीजो के लिए भी गाँव मे कोई दिक्कत नहीं हैं.
हाँ किसानों के पास पैसे का अभाव है. यदि वे अपनी पैदावार बेच दिये होते तो उनके मुनाफाखोर व्यापारियों का काला धन अवश्य खप गया होता. इसी तरह से फैक्टरी मे काम करने वाले मज़दूरों के पास भी पैसा नही हैं क्योंकि जिन स्रोतों ( काला धन) का इस्तेमाल उन्हें वेतन के रूप होता उसी स्रोत को बँद कर दिया है.
आज के दिन सरकारी कर्मचारियों -कार्यरत या सेवा निवृत, का भुगतान नकद मे नहीं होता. प्राइवेट कम्पनियों में काम करने वालों का वेतन भी उनके खाते मे जाता हैं. उन्हें भी कोई खास परेशानी नहीं हैं.
परेशानी यदि हैं तो किसको हैं? परेशानी हैं मुनाफाखोर व्यापारियों भवन निर्माण कर्ताओं को , राजनीतिक पार्टियों को, आतंक वादियों को, नक्सलियों को. इनका जो पैसा किसानो और मजदूरों के पास आता था वह अब नहीं आ रहा हैं. इसी तरह से बैंको में जो भीड़ हो रही हैं वह नकदी की कमी के कारण नही बल्कि उन लोगों की वजह से हो रही हैं जो येन केन प्रकारेण काले धन को सफेद करने में जुटे हैं. इस लिए मेरा मानना यह है कि काले धन की वजह से जो तकलीफ हैं उसके सामने लाइन मे खड़े होने वाली तकलीफ नगण्य हैं.हमें याद रखना चाहिए कि आई एफ़ सी के गोदामों मे अनाज सड़ रहे थे और देश की 20 करोड़ जनता भूखों मर रही थी. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद भी वह अनाज गरीबों को नहीं दिया. शोर मचाने वालो के लिए लाइन मे खड़ा होना तो तकलीफदेह है लेकिन सर्दी मे लाखो लोगों का ठिठूरना, गर्मी मे लाखो लोगों का प्यास से तड़पाना, बरसात मे लाखों घरों का उजडना तक़लीफ़ देह नही हैं. वाह रे संगदिल नेता! और वाह रे ऐसे नेताओं के समर्थक!

Sunday 23 October 2016

चीन और पाकिस्तान:

चीन और पाकिस्तान: 
चीन का मतलब क्या है? पाकिस्तान का मतलब क्या हैं ? चीन या पाकिस्तान का मतलब क्या वहाँ की सरकारो से है या वहां के लोगों से हैं ? मेरी समझ से चीन या पाकिस्तान का मतलब वहां के लोगों से है न कि वहां की सरकारों से या इन देशों की भौगोलिक सीमाओं से. उसी तरह से भारत का मतलब भारत के लोगों से है न कि भारत की सरकार से. यदि चीन और पाकिस्तान भारत की राह मे कांटे बिछा रहें हैं तो उसका सीधा तात्पर्य यह है कि वहां के लोग भारत की सरकार की राह मे नहीं बल्कि भारत की जनता की राह मे कांटे बिछा रहे है. चूंकि पाकिस्तान के कलाकार भी पाकिस्तान के लोगों मे शामिल है इस लिए पाकिस्तान जो कुछ हमारे साथ कर रहा उसके लिए प्रत्यक्ष रूप से भले न सही लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से वे भी ज़िम्मेदार है. यदि पाकिस्तान हमसे दुश्मनी देश करता है तो इसका अर्थ यह है कि वहां की जनता जिसमें वहां के कलाकार भी शामिल है हमसे दुश्मनी कर रही है. क्या ऐसी जनता के हित का ख़याल रखना तर्क संगत है ? पाकिस्तान के कलाकार जो भारत से पैसा कमाते है उस पैसे से पाकिस्तान की सरकार की कमाई होती है और उस कमाई का इस्तेमाल हमें चोट पहुँचाने के लिए क्या नहीं होता ? यकीकन ऐसा होता है. इस स्थिति मे पाकिस्तान का खजाना हमारा फिल्म जगत क्यों भरता है ? क्यों पाकिस्तानी कलाकारों के लिए हमारा फिल्म जगत पलक पावडे बिछाता है? क्यों हम पाकिस्तान से कला और कलाकारों का आयात करते है ? जब चाइनीज सामानों के बहिष्कार की बात हो रही है तो पाकिस्तानी सामानों, कलाओं का बहिष्कार क्यों नहीं ? यदि फिल्म जगत अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए पाकिस्तान की अर्थ व्यवस्था को मज़बूत बनाता है तो क्या फिल्म जगत अपने ही देश के लिए खतरा पैदा नहीं करता ? मैं समझता हूँ कि इन प्रश्नों मे ही उत्तर अंतर्निहित है. इस लिए जब तक पाकिस्तान हमारे साथ अपने रवैये मे बदलाव नहीं करता तब तक न फिल्म जगत को पाकिस्तानी कलाकारों का आयात नहीं करना चाहिए जबकि हमारे देश मे ही कलाकारों की भरमार है.

Saturday 8 October 2016

Surgical Strike - 2

उन्नत किश्म की बंदूक हैं. उसमें गोली भरी है. बंदूक मेरे हाथ में है. मेरी अंगुलियाँ बंदूक के ट्रिगर पर है. दुश्मन मेरे सामने खड़ा हैं -सीना ताने हुए , आँखें तरेरते हुए. उसे देख कर या किसी और आशंका से मेरी उंगलिओ में कम्पन शुरू हो जाती हैं. ट्रिगर पर मेरी पकड़ ढीली पड़ जाती है. ट्रिगर नहीं दब पाता. मैं बंदूक को ज़मीन पर रख देता हूँ. दुश्मन मेरे ऊपर अट्टहास करता है. उसका दुस्साहस बढ़ जाता है. 
सवाल है कि क्या मैं बुजदिल नही हूँ ? क्या मेरे परिवार के लोग मुझ पर शर्मिंदा नहीं होंगे ? मेरी बुज्दीली पर क्या मेरे परिवार वाले अपना सर नहीं पिटेंगे ?
मेरी जगह आप हैं. आपने दुश्मन को सुधरने का अवसर दिया. गिले शिकवे भुला कर दोस्ती का हाथ बढ़ाया. अपने आस पास के लोगों के दिल में आपने जगह बनाई. दुश्मन को गले लगाते हुये आप सावधान रहै कि वह कभी भी छूरा भोंक सकता हैं. आप अपनी शक्ति बढ़ाते रहें. आप सही समय का इंतजार करते रहे. आपने चालाकी की. आप ने दुश्मन पर उसी बंदूक से उस समय गोली दागी जब वह सोया था. आपके सामने सीना तानकर खड़े होने और आँखे तरेरने का उसे मौका ही नहीं मिला.
सवाल यह है कि क्या आपके परिवार वाले आपके ऊपर गर्व नहीं करेंगे ? क्या आपके परिवार वाले आपकी सूझ बूझ सोच और कौशल का गुणगान नहीँ करेंगे, जश्न नहीं मनाएंगे?
बंदूक तो एक ही हैं. सवाल यह है कि ट्रिगर दबाने वाला कौन है? सब कुछ निर्भर करता हैं उस शख्श के ऊपर जिसके हाथ में बंदूक हैं.
यही स्थिति सेना का हैं. सेना वह बंदूक है जिसके ट्रिगर पर सरकार का हाथ है. उक्त उदाहरण में मेरी जगह विगत कुछ सरकारें थी और आप की जगह 1965, 1971 और 1999 में जो सरकारें थी वे थी और वर्तमान सरकार है. उदाहरण में जिस तरह आपके परिवार के लोग जश्न मनाएंगे उसी तरह उक्त सरकारों के परिवारों की तरह वर्तमान सरकार का परिवार अर्थात वह पार्टी जश्न मना रही है और श्रेय ले रही है तो यह स्वाभाविक है. यदि उदाहरण में मेरा परिवार जलन की वजह से आप पर उंगली उठा रहा है तो वह सरासर गलत हैं.
मुझे आशा है कि मेरी मित्र समझ गए होगे कि मेरे कहने का अर्थ क्या हैं. सेना वही है. सेना की कमान सरकार के हाथ में है. सेना की गति सरकार के निर्णय पर आधारित है. सर्जिकल स्ट्राइक का फ़ैसला सरकार का था और उस फैसले को अंजाम देने का काम सेना ने किया. यह इतनी सामान्य सी बात हैं कि इसको समझने के लिए ज्यादा माथापच्ची करने की ज़रूरत ही नहीं हैं. किसी भी दृष्टि से इसका पूरा श्रेय बर्तमान सरकार को जाता हैं. स्वाभाविक हैं सरकार की किसी उपलब्धि पर सबसे अधिक खुशी उस पार्टी को होती हैं जिसकी सरकार होती है.

Thursday 6 October 2016

Surgical Strike - 1

एल ओ सी में सर्जिकल ऑपरेशन का सबूत माँगने वालों देश तुम लोगों से पूछ रहा है कि भारत सरकार सेना के निर्देश का पालन करती है या सेना भारत सरकार के निर्देश का पालन करती है ? 1947 में काश्मीर में सेना स्वयं गई थी या नेहरू जी के आदेश पर गई थी. 1971 में पाकिस्तान के साथ लोहा लेने का फैसला इंदिराजी की सरकार का था या सेना का ? श्रीलंका में हमारी सेना अपनी मर्ज़ी से गई थी या तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गाँधी जी के निर्देश पर गई थी ? लेकिन आप लोगों से तो सवाल ही पूछना बेकार है. इन प्रश्नों का आप कुछ भी जवाब दें सकते हो. जिस समय आप किसी विषय पर बोलते हो उस संयम आपका सारा ध्यान अपने हित साधन पर रहता है. आपकी बातों से भले देश का अहित हो रहा हो लेकिन आप वहीं कहेंगे जिससे आप के क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति हो. आप अपने व्यवसाय को बचाने के लिए दुश्मन देश से हाथ मिला सकते है. हैं तो आप कूप मंडूक लेकिन अग्रेजो की विरासत को कंधो पर लादकर अपने आपको सर्व ज्ञाता समझते है. क्या बेचते है अजित डोवाल आपके सामने ! बजाय डोवाल के सरकार को तो आपसे सलाह लेनी चाहिए !
मेरा सवाल इतना सरल है कि सरल हृदय का कोई भी आदमी सरलता से जवाब दें सकता है. सरल जवाब यह है कि हमारे देश की सेना बेहद अनुशासित है. वह जो भी क़दम उठाती है राष्ट्र पति जी के नाम पर उठाती है जो सेना के उच्चतम कमांडर है. भारत सरकार ने सेनाध्यक्ष राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहार इत्यादि विशेषज्ञों से सलाह लिया और उसके उपरांत सर्जिकल स्ट्राइक की सलाह राष्ट्रपति जी को दिया. यह किसी पार्टी का फैसला नही बल्कि सरकार का फैसला था. भारत सरकार सुरक्षा के मामले में कोई भी फ़ैसला सुरक्षा तंत्र से जुड़े हुये अधिकारियों की सलाह के बगैर नहीँ ले सकती. सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत किसने इकट्ठे किए होगे? जाहिर है कि सेना ने. यदि सेना सलाह देती है कि सबूत को सार्वजनिक करना सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक है तो क्या सरकार मनमानी कर सकती है ? कदापि नहीं. सरकार ने यदि किसी से कहा कि उसने सर्जिकल स्ट्राइक करवाया है तो उसको आधार सेना की रिपोर्ट है. सरकार को घेरने के लिए , उसको नीचा दिखाने के लिए आप सेना की रिपोर्ट पर ही सवाल खड़े कर रहें हैं ? क्या समझा जाय आपको ? मुझे तो यह भी लगता है कि जब सरकार कहेगी कि देश हित सबूतों को सार्वजनिक करना उचित नहीं हैं तो आप यह माँग कर सकते हैं जिसने सरकार से यह कहा है वह सरकार की भाषा बोल रहा है. आप जिस पार्टी की सरकार उस पर अपनी भड़ास निकाले लेकिन उस सरकार को काम करने दें जिसे देश की जनता ने चुन कर भेजा हैं. देश के आंतरिक मामलों में भले ही आप अपनी असहति जाहिर करें लेकिन सुरक्षा और विदेश नीति के मामले में अपने विचार व्यक्त करते हुये देश हित को सर्वोपरि रखें.

Tuesday 4 October 2016

सवाल

मैं यह सवाल उन राजनीति लोगों से नहीं पूछ रहा हूँ जो यह माँग कर रहें हैं कि पाकिस्तान के मिथ्या प्रचार की धार कुंद करने के लिए सरकार को संसार के सामने सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत पेश करना चाहिए. मेरा सवाल देश के मतदाताओं से हैं जिन्होंने ऐसे राजनीतिज्ञों को शक्ति प्रदान की है. मैं ऐसे मतदाताओं से पूछना चाहता हूँ कि कब तक ऐसे नेताओं को पैदा करते रहेंगे? ऐसे नेताओं से पूछने चाहिए कि क्या सरकार के निर्णय के बगैर भारतीय सेना एल ओ सी पार कर सकती थी. 1971 में यदि भारत की सेना ने पाकिस्तान से लोहा लिया था तो वह किसके आदेश से लिया था. 1971 के युद्ध के बारे मे यदि कोई सेना का अधिकृत अधिकारी बयान देता है और उस बयान का पाकिस्तान खंडन करता है तो क्या पाकिस्तान या किसी अन्य देश को आश्वस्त करने के लिए क्या हमें सबूत देना चाहिए? मसूद अजहर के आतंक मे लिप्त होने के हमने सबूत दिए तो क्या पाकिस्तान और चीन ने उसे मान लिया ? आखिर कार पाकिस्तान ने कभी हमारी बात सुनी हैं? 1947 से ले कर आज़ तक जब पाकिस्तान ने हमारी बात पर गौर नहीं किया तो आज़ वह कैसे मान लेगा कि जो सबूत हम वे सही हैं? क्या ऐसे नेताओं और अभिनेताओं को शर्म नहीं आनी चाहिए जिनके बयानों को मसूद अजहर भारत की खिल्ली उडाने के लिए इस्तेमाल करता हैं ? लेकिन नहीं. ऐसे नेता और राजनेता पूरी तरह बेशर्म हैं. घर फूटे गँवार लूटे. अब तक पाकिस्तान का कोई नही सुन रहा था. लेकिन क्या पाकिस्तान ऐसे नेताओं के बयानों का उल्लेख अपने नापाक इरादों के लिए नहीं करेगा? क्या इतनी सी छोटी बात ऐसे नेताओं की समझ में नहीं आती ? अवश्य आती है. मेरा यह मानना है कि ऐसे नेता सब कुछ समझते हुये भी क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए देश की अस्मिता से खिलवाड़ करने से भी परहेज़ नहीं करते. ऐसे नेताओं को मुहतोड़ जवाब देने की ज़रूरत है.

Sunday 2 October 2016

Depth of Gandhi Ji.

Depth of Gandhi ji can't be fathomed with shallow thinking. He can be fathomed only by a keen observer who has immense patience, deep thinking and great feelings. The tragedy is that he has been read since independence by eyes of mind and eyes of narrowness and not by eyes of heart.

Saturday 17 September 2016

एक सवाल

गुमान है हमें विश्व का सबसे बड़ा लोक तंत्र कहलाने का. मैं एक सवाल करना चाहता हूँ. लोक तंत्र में व्यक्ति बड़ा होता है या संस्था बड़ी होती है ? जिस व्यवस्था मे संस्था की नहीं बल्कि किसी व्यक्ति और उसके बाल बच्चों की पूजा होती हो उस व्यस्था को क्या कहेंगे - लोक तंत्र या राज़ तंत्र ? जिस व्यवस्था के अन्तर्गत कभी नारा दिया गया हो कि आधी रोटी खाएंगे इंदिरा जी को लाएंगे उस व्यस्था को क्या कहेंगे ? सवाल यह है क्या ऐसा नारा लगाने वाले लोग गुलामी मानसिकता के रोगी नहीँ थे ? क्या ऐसे लोगों के लिए लोकतंत्र का कोई अर्थ था या है ? इसका उत्तर बिल्कुल सरल है. उत्तर यह है कि लोक तंत्र मे तंत्र बड़ा होता व्यक्ति नहीं. दुर्भाग्य से हमारे देश में लोकतंत्र की आड़ में व्यक्ति और परिवार की पूजा होने लगी. देव कान्त बरुआ जी ने तो इंदिरा जी को तो देश का पर्याय ही बना डाला था. इसमें इंदिरा का कोई कसूर नहीं था. कसूर था तो देव कान्त बरुआ और उन जैसे लोगों का था.
कूछ लोग कह सकते है कि यह पुरानी बात हो गई. तर्क दिया जा सकता है कि उस समय शिक्षा का स्तर बहुत निम्न था, लेकिन आज़ वैसी स्थिति नहीं है. यह भी कहा जा सकता है कि आज़ साक्षरता का स्तर ऊँचा है. मतदाता जागरूक हो गया है और लोकतंत्र मजबूत हुआ है. मैं यहाँ तक सहमत हूँ कि मतदाता जागरूक हो गया है. लेकिन इस बात से सहमत नहीं हूँ कि लोक तंत्र मज़बूत हुआ. आजादी के बाद पूरे देश में सिर्फ एक परिवार का वर्चस्व था. उस संयम लोक तंत्र केर सभी संस्थाएं उसी परिवार के और उस परिवार से संबंधित लोगों से संचालित होती थी. लेकिन आज़ कुछ प्रदेशों की संस्थाओं पर ख़ास व्यक्ति , परिवारों और उनके सगे संबंधियों का ही कब्जा है. यह लोक तंत्र के मजबूत होने का या कमज़ोर होने का प्रमाण है ? क्या ऐसा ब्रिटेन , कनाडा और अमेरिका मे भी होता है ? क्या कर रहें है जॉर्ज बुश सीनियर और जूनियर , बिल क्लिंटन ? क्या करेंगे बराक ओबामा ? मारग्रेट थैचर के परिवार वाले कहा है ? डेविड कैमरून से किसने कहा था इस्तीफा देने के लिए ? क्या हमारे देश की पार्टियों मे प्रतिभा को आगे बढ़ने का पूरा मौका मिलता है? जाहिर है कि एक दो पार्टियों को छोड़ दिया जाय तो किसी भी पार्टी में लोक तंत्र नहीं है. जब पार्टियों मे लोकतंत्र नहीं है तो उस प्रदेश मे लोकतंत्र कैसे हो सकता है जिन प्रदेशों मे ऐसी पार्टियाँ शासन कर रहीं है? निष्कर्ष यह है कि हमारे देश में जो लोक तंत्र है उसमें सडान्ध आ गई है. अवसर है हमारे पास ? आइए हम सब मिल कर उस सडान्ध को दूर करें. यह तभी सम्भव है कि हम दूर द्रष्टि का परिचय देते हुये व्यक्ति वाद और परिवार बाद से देश और प्रदेशों को मुक्त कराने का हर संभव प्रयास करें. तभी हम सबसे बड़े लोकतंत्र का खिताब पाने के हकदार होंगे.

Monday 5 September 2016

शिक्षक दिवस

गुरुर्बह्मा गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वर:, गुरुर्साक्षात परम ब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः
ध्यान मूलं गुरुर्मूर्ति, पूजा मूलं गुरुर्पदम्, मंत्र मूलं गुरुर्वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरुर्कृपा
आज शिक्षक दिवस है. शिक्षक दिवस समस्त विश्व में मनाया जाता है. विभिन्न देशों में यह दिवस विभिन्न तिथियों को मनाया जाता है. शिक्षक दिवस के दिन शिष्य अपने शिक्षकों को याद करते हैं और उन्हें विभिन्न तरीकों से सम्मानित करते हैं. हमारे देश में यह दिवस डॉ. सर्वपल्ली राधा कृष्णन के जन दिवस अर्थात पाँच सितम्बर को मनाया जाता है.
संसार में कोई भी ऐसा नहीं है जिसके व्यक्तित्व के निर्माण में उसके शिक्षकों का योगदान न हो. दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद भी हमारे देश में ऐसे वातावरण का निर्माण नहीं हुआ जिसमें शिक्षक अपने आप को उपेक्षित महसूस करते है. मैं उन गिने चुने शिक्षकों की बात कर रहा हूँ जो अपने मन वचन और कर्म से शिक्षक हैं. मैं उन तथाकथित शिक्षकों की बात नहीं कर रहा हूँ जो हड़ताल करते हैं और अपने अधिकारों की माँग करते हुए सड़क पर उतर आते हैं. मैं उन तथाकथित शिक्षकों की बात नहीं कर रहा हूँ जिन्होंने ने अपने हित के लिए संगठन बना रखा है और जो अपने वचन और कर्म से विद्वान कम राजनीतिक अधिक पैदा करते हैं. यह दिवस उन तथाकथित शिक्षको को समर्पित नहीं है जिन्होंने शिक्षा संस्थानों को राजनीति का अखाड़ा बना दिया है. ऐसे शिक्षक मेरे हिसाब से शिक्षक के नाम पर कलंक है.
क्या ऐसा तथाकथित शिक्षक सम्मान पाने के अधिकारी है जो घर बैठे वेतन लेते हैं. मुझे कहने में संकोच नहीं है कि आज हमारे देश में अपवाद स्वरूप ही शिक्षक बचे हैं और जो हैं भी उन्हें कभी मौका नहीं मिलता कि वे समाज को रास्ता दिखाएं. आज हमारे देश में यदि किसी वर्ग को सबसे अधिक सम्मान मिलता है तो वह वर्ग यकीनन शिक्षक नहीं है. वह राजनीतिज्ञों वर्ग है. परिणाम स्वरूप रोजगार के नाम पर भले ही कोई शिक्षक बन जाय, लेकिन सम्मान और इज्जत के लिए व्यक्ति किसी दूसरे क्षेत्र का चयन करता है. सम्मान और इज्जत के लिए कोई शिक्षक नहीं बनना चाहता.
शिक्षक प्रतिभावान और विद्वान होता है. समाज का चेहरा यदि कोई बदल सकता है तो वह शिक्षक है. लेकिन आज के दिन शिक्षकों का अकाल है. हमारे सामने जो भी दिखाई देता है वह शिक्षक कम वेतन भोगी कर्मचारी अधिक है.
निजी क्षेत्र के विद्यालयों की निम्न कक्षाओं में तो फिर भी गनीमत है लेकिन विश्वविद्यालय स्तर के शिक्षकों का चरित्र कैसा है, इसका जीता जागता उदाहरण दिल्ली का एक विश्वविद्यालय है. जिस विश्वविद्यालय के छात्र अपने आपको शिक्षक से भी बड़ा समझते हो, शिक्षक का मजाक उड़ाते हों, देश द्रोह का नारा लगाने को अभिव्यक्ति की आज़ादी बताते हो, जिस विश्व विद्यालय के छात्र जाति और धर्म के नाम पर बटे हुए हों और राजनीतिज्ञों द्वारा पोषित हो, उस विश्वविद्यालय के और उसी तरह के अन्य विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के बारे में क्या कहा जा सकता है. आज अधिकाँश विश्वविद्यालय राजनीति का आखाड़ा बन गए हैं. इन विश्वविद्यालयों से शोध कर्ता और विद्वान कम, राजनीतिक और नौकर शाह अधिक निकलते है. यही कारण है कि हमारे देश के विश्वविध्यालय विश्व में कहीं नहीं ठहरते. आवश्यकता इस बात की है कि देश में इस तरह के महौल का निर्माण हो कि सबसे अधिक सम्मान शिक्षकों को मिले ताकि शिक्षक बनना हर आदमी का सपना हो. काबिले गौर है कि ए.पी.जे. अब्दुल कलाम साहब की सबसे बड़ी इच्छा यह थी कि वैज्ञानिक और राष्ट्रपति से अधिक उन्हें शिक्षक कहलाना अधिक पसंद था.

Friday 26 August 2016

A message to TIMES OF INDIA

मिस्टर टाइम्स ऑफ इंडिया, मैं आपको पढ़ता हूँ. किस लिए पढ़ता हूँ ? सिर्फ समाचार के लिए. आपका सम्पादकीय पढ़ कर मुझे हमेशा हँसी आती है. मैं जानता हूँ कि आप मेरे जैसे लोगों के लिए किस तरह के विशेषण का प्रयोग करेंगे. मुझे यह भी पता है कि आप मेरे और मेरे जैसे लोगों पर हँसेंगे. हँसिए और जी भर कर हँसिए. उसी तरह हँसिए जिस तरह अँग्रेज हमारे ऊपर हँसते थे. 
मिस्टर टाइम्स ऑफ इंडिया, आप माने या न माने लेकिन मैं यहीं कहूँगा कि आप भौतिक रूप से स्वतंत्र ज़रूर हैं मगर मानसिक रूप से अब भी गुलाम हैं. आप के अन्दर हीनता की भावना मुझे दिखाई देती है.
मैंने आज़ का आपका सम्पादकीय पढा. आपने अपने सम्पादकीय की शुरुवात "oudated moralism" शब्दों से की है. इन शब्दों का हिंदी में मतलब पुराने ज़माने की नैतिकता से हैं. भइया मिस्टर टाइम्स ऑफ इंडिया, मैं पुराने ज़माने का नहीं हूँ. जिन लोगों के संदर्भ में आपने उन शब्दों का प्रयोग किया है, वे भी शायद पुराने ज़माने के नहीं है. हम में और आप में जो सबसे बड़ा फर्क है वह यह है कि आपके लिए नैतिकता भी नई और पुरानी है. जबकि हमारे लिए नैतिकता अजर है. नैतिकता सदा सर्वदा नूतन है.
आपने नैतिकता के रूप को कभी देखा ही नहीं. भौतिकता के चश्मे से नैतिकता नहीं दिखाई देती. आपके लिए नैतिकता का कोई मूल्य नहीं है. जबकि मेरे और मेरे जैसे लोगों के लिए नैतिकता समाज की आत्मा हैं. नैतिकता कभी भी outdated नहीं हो सकती. यदि समाज से नैतिकता ख़त्म हो गई तो हम अपने आप तक उसी तरह सीमित हो जाएंगे जिस तरह जानवर अपने आप तक सीमित रहते है. समाज और नैतिकता का निर्माण आपने नहीं की है, अत: आप नैतिकता शब्द के मूल तत्व को नहीं समझ सकते. मुझे तो लगता है कि आपने कभी नैतिकता का पाठ पढ़ा ही नहीं है.
मिस्टर टाइम्स ऑफ इंडिया , कृपया व्यक्ति केंद्रित सिद्धांत की वकालत करके समाज की आत्मा अर्थात नैतिकता के साथ ऐसा सलूक मत कीजिए. जिस तरह से प्राण निकल जाने पर चलता फिरता शरीर मुर्दा हो जाता है उसी तरह से समाज से यदि नैतिकता निकल गई तो समाज भी बेजान हो जाएगा.

Wednesday 17 August 2016

पाखंड एक राज़ नेता का

यदि हम अपने देश की राजनीति पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि कुछ राजनेता या नेत्री ऐसे हैं जो खुले आम जाति, धर्म, औऱ क्षेत्र की बात करते हैं. उनके समर्थको की सोच सिर्फ उनकी जाति, धर्म औऱ क्षेत्र के लोगों तक सीमित रहती है. उनके लिऐ देश उतना महत्वपूर्ण नहीं हैं जितना कि उनके नेता. अपने नेता के आगे वे किसी तरह का प्रश्न चिन्ह बर्दाश्त नहीं कर पाते. ऐसे लोगों के बारे में कहा जा सकता है कि उनकी आस्था लोकतंत्र में नहीं राजतंत्र में हैं. ऐसा राज़ तंत्र जिसका राजा ऐसे लोगों की जाति, धर्म का या क्षेत्र का व्यक्ति होता हैं. ऐसे लोग फ़िर भी समझ में आते हैं. वे खुल्लम खुल्ला जाति, धर्म या क्षेत्र की बात करते हैं. वे पाखंडी नहीं हैं.वे धोखेबाज़ नहीं हैं. ऐसा नहीं हैं कि वे राम राम की माला जपते हैं औऱ जब कोई राम भक्त उनके करीब जाता हैं वे अपने बगल में रखे हुये छूरे से उसे घायल कर देते हैं. इसके विपरीत कुछ ऐसे राजनेता हैं जो पाखंडी हैं. वे औऱ उनके परिवार वाले जाति, धर्म औऱ क्षेत्र की संकीर्णता में आकंठ डूबे होते हैं मगर दिखावा ऐसा करते हैं कि वे जाति औऱ धर्म की राजनीति नहीं करते. वे धर्म निरपेक्ष होने का नाटक करते हैं. पर वे सबसे बड़े धोखे बाज औऱ पाखंडी हैं.
एक ऐसे राजनीतिज्ञ है, जो कभी नौकर शाह थे. उन्होंने राजनीति में शुचिता लाने का हम सबसे वादा किया. लगा था कि वे राजनीति में आकर आदर्श पस्तुत करेंगे. नीर क्षीर विवेक का उनमें दर्शन होगा. वे किसी की आलोचना नहीं बल्कि गुण दोष के आधार पर समालोचना करेंगे. लेकिन हुआ उसका उल्टा. उन्होंने संकीर्णता की सारी सीमायें तोड़ दी हैं. उनको ऐसी पार्टियों और नेताओं में कोई कमी नज़र नहीं आती जिनका दामन दागदार रहा हैं. उनके साथी भी ऐसे है जिनमें से किसी ने समाज सेवा नहीं की हैं. मैं जब पहले से स्थापित नेताओं से उनकी तुलना करता हूँ तो पाता हूँ कि उनकी राजनीति निकृष्टतम स्तर की हैं. उनकी राजनीति में शुचिता का लेश मात्र भी नहीं हैं.
मैं उस किसी भी नेता या व्यक्ति को सही नहीं मानता जिसे किसी अन्य पार्टी या नेता या व्यक्ति में सिर्फ बुराइयां ही नज़र आती हैं और कोई भी अच्छाई नज़र नहीं आती. मुझे उम्मीद थी कि जिस नेता की मै बात करता हूँ उसकी सभी बातें सारगर्भित होगी, उसकी दृष्टि सम्यक होगी
, वह उच्च शिक्षित लोगों के लिऐ एक मॉडल होगा. मगर अफसोस कि वह नेता उच्च शिक्षा के नाम पर एक धब्बा बन कर रह गया है. उसमें नम्रता का अभाव हैं. उनके रोम रोम में अहंकार भरा हुआ हैं. आज़ की तारीख में यदि मुझसे कोई पूछे कि चर्चतित नेताओं में सबसे सारहीन और सबसे बड़ा पाखंडी नेता कौन हैं तो मेरी निगाह में वही हैं. वह पूरी तरह से संकीर्णता में डूब चुके हैं. मै उस नेता का नाम नहीं ले रहा हूँ. मेरे मित्र समझ गये होगे कि आखिर वह हैं कौन.

Tuesday 16 August 2016

हीनता की भावना:

मूझे लगता हैं कि जो लोग अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन करने की कोशिश करते हैं वे वास्तव में कुलीनता के भाव से नहीं बल्कि हीनता के भाव से ग्रसित होते है. मै एक वाकया का जिक्र कर रहा हूँ. वाकया इलाहाबाद मेडिकल कॉलेज की हैं. मेडिकल कॉलेज के परिसर में ही मेरे एक दूर के रिश्तेदार रहते थे. मैं उनके यहाँ गया था. सितम्बर का महीना था. हल्की हल्की बूदा बादी हो रहीं थी. मैंने पैंट औऱ शर्ट पहन रखी थी. बूंदा बांदी से सर को बचाने के लिऐ मैंने सर पर एक तौलिया रखा था. मेरे पहुँचने के पहले मेडिकल कॉलेज के फोर्थ ईयर के एक छात्र बैठे थे. उन्होने एक टाई बाँध रखी थी. जब मै ड्राइंग रूम में दाखिल हुआ तो उन्होने बड़े गौर से मुझे दो तीन बार देखा. मैं समझ नहीं पाया कि उन्होंने मुझे दो तीन बार क्यों देखा. खैर उनसे नहीं रहा गया. वे मुझसे पूछ ही बैठे -भाई साहब आप बलिया के तो नहीं हैं ? मैंने कहा कि मैं बलिया का ही हूँ. मेरा जवाब सुनकर वे हल्का सा मुस्कराए. मैंने पूछा -भाई साहब आपको कैसे पता चला कि मैं बलिया का रहने वाला हूँ. उन्होंने बलिया वालों का मजाक उडाने के लहजे में कहा - बलिया वाले पैंट शर्ट के साथ साथ गमछा भी लिए रहते हैं. मैने कहा कि हाँ आपका कहना बिल्कुल सही हैं. मैंने पूछा कि क्या पैंट शर्ट पर गमछा नहीं लेना चाहिए ? उन्होने ने जवाब दिया कि पैंट औऱ शर्ट पर गमछा ठीक नहीं लगता. मैने कहा कि बलिया वाले पैंट शर्ट के ऊपर गमछा लेते हैं उसका तर्क संगत कारण हैं.ऐसा कहने के बाद मैंने पूछा कि आपने जो टाई बांध रखी है उसके पीछे क्या तर्क हैं ? हैं इसका कोई लॉजिक हैं? इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था. मैंने कहा कि आपके अन्दर हीनता की भावना हैं. आपने मान लिया हैं अंग्रेजों की वेष भूषा ही सर्व श्रेष्ठ थी. आपने मान लिया हैं वे कुलीन थे औऱ उनके जैसा वेष भूषा औऱ रहन सहन ही कुलीनता का प्रतीक हैं. आपको भारतीय होने पर शर्म आएगी. मुझे बलियाटिक औऱ भारतीय होने पर गर्व हैं. मेरी बातें सुन कर वे हक्का बक्का रह गए थे. उन्होने मेरी योग्यता पूछी. यह भी पूछा कि आप कहाँ काम करते हैं. उसी समय मेरे रिश्तेदार नहा कर बाथ रूम से बाहर आये औऱ मेरी तरफ़ से उनके सवालों के जवाब दिए. पाश्चात्य संस्कृति में जो लोग आकंठ डूबे हैं औऱ जो साधारण वेष भूषा वालों को हिकारत की नज़र से देखते हैं वे हीन भावना के शिकार हैं.

Sunday 14 August 2016

सत्तर साल आज़ादी के: हमने क्या पाया क्या खोया?

सत्तर साल आज़ादी के: हमने क्या पाया क्या खोया? कौन जीता औऱ कौन हारा? सवाल यह भी है कि हमारी आज़ादी का स्वरूप क्या है ? 
कल पंद्रह अगस्त है. आज़ादी की सत्तरहवी वर्षगांठ है कल. हर वर्ष की तरह कल भी हम पुरानी लीक पर चलेंगे. कल के बाद हम उसी ढर्रे पर वापस आ जाएंगे जिस ढर्रे पर हम चल रहें है. हम इस बात पर शायद ही विचार करें कि गत सत्तर सालों में हमारा भारत किस हद तक स्वस्थ हुआ है औऱ किस हद तक अस्वस्थ. अत : आज़ादी की सत्तरहवी वर्ष गाँठ की पूर्व तिथि को मैं इसका आकलन करने की कोशिश कर रहा हूँ.
सबसे पहले मै आज़ादी के स्वरूप पर दृष्टिपात कर रहा हूँ. यदि हम 15 अगस्त 1947 के पहले के भारत के स्वरूप पर गौर करेंगे तो हम पाएंगे कि हम भौतिक रूप से ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी गुलाम थे. हम अपनी पहचान खो चुके थे. दिन लोगों ने हमारे देश पर कब्जा कर रखा था उनकी सोच ही हमारी सोच बन गयी थी. हमारे देश में जो अभिजात्य वर्ग था उसकी वेषभूषा, रहन सहन, खान पान , भाषा इत्यादि बिल्कुल तत्कालीन विदेशी शासकों के नक्सल थे. उस नक़ल की वजह से वे विदेशियों के दरबार में सम्मान पाते थे. उन्हीं लोगों के माध्यम से विदेशियों का हित साधा जाता है. सवाल यह है कि आज़ादी के बाद क्या उक्त सोच से देश को निजात मिल गयीं ? मेरे हिसाब से नहीं. उस सोच में कमी नही बल्कि वृद्धि ही हुई. आज़ भी हमारे ऊपर पाश्तात्य संस्कृति औऱ सोच का भूत सवार है. अत: मेरा यह मानना है कि आज भी हमारे देश को विदेशी सोच औऱ विदेशी संस्कृति से आज़ादी का इंतज़ार है. हम कह सकते कि हमारे देश की आज़ादी का स्वरूप भौतिक है न कि मानसिक औऱ सांस्कृतिक.
दूसरा सवाल यह है कि हमने क्या पाया औऱ क्या खोया. आज़ादी के बाद हमने पाया, कम खोया अधिक. आज़ादी के बाद जो हमें ऊर्जा मिली उस ऊर्जा को हमने देश को मज़बूत बनाने में नहीं बल्कि कमज़ोर करने में किया. गांधी औऱ पटेल जैसा लोक नायक हमें जय प्रकाश में मिला था. ये तीनों किसी खास वर्ग के नायक नहीं थे. उनकी सोच के दायरे में सभी लोग आते थे. दुर्भाग्य से आज़ तीनों हाशिए पर है. इन लोगों पर
खाश तबके औऱ क्षेत्र का प्रतिनिधीत्व करने वाले औऱ संकीर्ण सोच वाले लोग हावी हो गए. बड़ी मेहनत औऱ सूझ बूझ से पटेल ने इस देश को एक अखंड स्वरूप दिया था. आज़ उस स्वरूप को ख़तरा नज़र आ रहा है. खतरा बाहर से वहीं अन्दर से है. जाति धर्म औऱ क्षेत्र की संकीर्णता कैंसर का रूप लेती जा रहीं है. यह सब देख कर गाँधी, पटेल औऱ जयप्रकाश की आत्मा कराह रहीं होगी.निष्कर्ष यह है कि आज़ हमने लोक नायकों को कहो दिया है. एक आदमी है जो जूझ रहा है देश को समस्याओं के दलदल से बाहर निकालने के लिऐ. लेकिन उसकी जितनी टांग खींची जा रहीं है वैसी टाँग खिचायी आज़ादी के लोक नायको की भी नहीँ हुई थी.
अब सवाल यह है कि आज़ादी के सत्तर सालों में कौन हारा कौन जीता? इसका उत्तर स्पष्ट है. स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है कि सम्यक सोच औऱ दृष्टि वाले हार गये है. जो लोग इस देश में जाति, वर्ग , धर्म, क्षेत्र औऱ भाषा की राजनीति करते है वे जीत गये है.
निष्कर्ष यह है कि हमने सत्तर सालों में आज़ादी के शहीदों के अरमानो को कुचल दिया है. देश को तोड़ने की बात करने वाले लोग देश में समर्थन पास रहें है. देश की एकता औऱ अखंडता की बात करने वाले लोगों का मजाक उडाया जा रहा है.
उक्त बातों के मद्देनज़र मै अपने मित्रों का एतद्द्वारा आह्वान कर रहा हूँ कि हमने जो सत्तर साल में खोया उन्हें पुनः प्राप्त करने के किए आगे बढ़े.

स्वरूप काली पूजा का तब औऱ अब

 मेरे गाँव में एक वर्ग पूरे गाँव की तरफ़ से काली पूजा करता आ रहा है. काली पूजा को सम्पन्न करने के लिऐ गाँव के प्रत्येक परिवार से सदस्य संख्यानुसार चंदा लिया जाता था. बिना किसी भेदभाव के गाँव के सभी लोग काली पूजा में भाग लेते थे. आज़ जब मै सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि इस सार्वजनिक पूजा से गाँव में एकता बनती थी. काली पूजा का अवसर आपसी वैमनस्य को ख़त्म करने में सहायक होता था.
एक परिवार पहले से ही चंदा तैयार रखता था. चंदा पगडी औऱ चूल्हे की संख्या के आधर पर होता. पुरूष ( बच्चो सहित ) को पगडी औऱ औरत ( बच्ची सहित ) को चुल्हा कहा जाता था. प्रत्येक परिवार ईमानदारी के साथ चंदा देता था.
काली पूजा में बकरे की बलि दी जाती थी. तेज धार वाले हथियार से बकरे के सर को धड़ से अलग कर देते थे. बकरे के शरीर के दोनों हिस्से अलग अलग तड़पने लगते थे. कुछ देर बाद दोनों हिस्से शांत हो जाते थे. नजारा बहुत दर्दनाक औऱ हृदय विदारक हो जाता था. एक बार देखने के बाद मैंने कभी काली पूजा नहीं देखी थी. मेरे जैसे बहुत से लोग थे.
शुक्रवार अर्थात 12.8.2016 को भी काली पूजा थी. इसका पता मुझे 11.8.2016 को उस समय चला जब काली पूजा के लिऐ चंदा लिया जा रहा था. चंदा लेने वाला आदमी जब चला गया तो मैंने एक आदमी से पूछा कि क्या काली पूजा के दौरान बकरे की बलि दी जाएगी ? उस आदमी की बात सुन कर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई.
12.8.2016 को बाजे गाजे के साथ गाँव जुलूस निकाला गया. उसी दिन शाम को गाँव से मै बलिया मुख्यालय जा रहा था. रास्ते में हर जगह काली पूजा का आयोजन होते मैंने देखा. मेरी जिज्ञासा यहीं थी कि उनमें उक्त प्रथा कायम थी कि नहीं. मुझे उक्त प्रथा के कायम रहने के संकेत कहीं से नहीं मिल रहें थे. मैंने इसके बारे में ड्राइवर से भी पूछा. उसने बताया कि उसके गाँव में भी अब बकरे की बलि नहीं दी जाती. निष्कर्ष यह है कि हमारे क्षेत्र में इस पुरानी प्रथा का खात्मा हो चुका है. अब सवाल यह है कि यह प्रथा ख़त्म कैसे हुई ? कानून से ? जनान्दलन से ? बकरे की बलि देने वालों को डराने धमकाने या मारने पीटने से? नहीं. यदि यह प्रथा ख़त्म हुई है तो सोच में परिवर्तन से ख़त्म हुई. यह उदाहरण इस बात की ओर संकेत करता है कि समाज में सुधार कानून बना कर, आंदोलन से, या ज़बरदस्ती करके नहीं लाया जा सकता. उसके लिये ऐसा माहौल बनाना ज़रूरी है जिसमें लोगों की सोच में बदलाव आ सके.

Saturday 13 August 2016

ज़रा सोचिए,कहीं हम समस्या तो नहीं हैं ?

ज़रा सोचिए,कहीं हम समस्या तो नहीं हैं ?
एक बार एक उच्चाधिकारी ने हम लोगों को सम्बोधित करते हुए कहाँ था कि जब आप लोग मेरे पास कोई समस्या ले कर आएं तब उसके साथ समाधान भी ले कर आयें. बिना समाधान के यदि सिर्फ समस्या लेकर आते हैं तो आप खुद समस्या हैं. उनकी यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी थी. आज़ भी उनकी कहीं हुई बात को अक्सर मैं दुहराता हूँ. 
मुझे लगता हैं उक्त बात सार्वभौमिक औऱ सर्वकालिक हैं. आज़ हम देखते हैं कि अत्र, तत्र, सर्वत्र हम सिर्फ समस्याओं को गिनाते हैं औऱ समस्याओं पर चर्चा करते हैं. टीवी पर औऱ यहाँ तक कि हमारी सर्वोच्च संवैधानिक संस्था में भी हमें समस्याओं पर मात्र चर्चा सुनने को मिलती हैं. हाँ , कभी कभी समस्या के साथ साथ माँग भी की जाती है. लेकिन यदि अपवादों को नज़रंदाज़ कर दिया जाय हम या कोई सुझाव ले कर सामने नहीं आता. माँग करने वाला व्यक्ति या संगठन जब किसी चीज़ की माँग करता हैं तो वह यह नहीं बताता कि उसकी मांगे कैसे पूरी की सकती हैं. ऐसी स्थिति में मुझे लगता हैं कि यदि कोई व्यक्ति या संगठन किसी भी प्लेटफ़ॉर्म से बिना किसी सम्यक समाधान के समस्या की बात करता है या मांग रखता है तो वह व्यक्ति या संगठन खुद समस्या है. ऐसे व्यक्ति या संगठन की इस प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना राष्ट्र की प्रगति में अवरोध उत्पन्न करना है.

Sunday 7 August 2016

मन मे सम्मान एक पुत्र का पिता के प्रति

आज़ ही सुबह मैंने ' मतलब दोस्ती का शीर्षक' से एक पोस्ट लिखा है. इस समय अपने उसी दोस्त के बारे में बताना चाहता हूँ. मेरा वह दोस्त अपने पिता का बहुत सम्मान करता था. उनकी सभी आज्ञाओ का पालन करता था. अपने पिता के लिऐ उसके दिल मे बहुत सम्मान था. वह अपने पिता से कभी बहस नहीं करता था. उसके पिता भी अपने पुत्र पर गर्व था. वह एम.ए. कर चुका था. 
मैं जिस वाकया का जिक्र करने जा रहा हूँ , वह भी एक बारात का है. हमारे यहाँ बारात के आगमन पर शामियाने मे ही शाम को आवभगत और अगले सुबह विदाई के समय एक ट्रे मे छोटा छोटा कटा हुआ सूखा नारियल, किशमिश, खजूर इत्यादि का मिश्रण और दूसरे ट्रे मे सिगरेट, बीडी,पान , तम्बाकू इत्यादि रख कर लड़की पक्ष लड़के पक्ष के प्रत्येक सदस्य के सामने ले जाता है. जिसको जो चाहिए होता है वह ट्रे में से उठा लेता है. हम लोग एक बारात में गए थे. कुछ लड़को ने शौकिया सिगरेट उठा लिया. मेरे दोस्त ने भी अन्य लड़को की तरह सिगरेट लिया. मुझे उसका सिगरेट लेना अच्छा नहीं लगा. मुझे उसकी पिताजी की उस दिन की बात याद गई जिस दिन शराब पीने की अफवाह सुन कर मेरे पास आये थे मुझसे अपने पुत्र के सम्बंध में पूछताछ की थी. मुझे लगा कि मेरा दोस्त अपने पिताजी का विश्वास तोड़ रहा है.वह उस पिता का विश्वास तोड़ रहा था जिन्हें अपने पुत्र पर गर्व था. मुझे लगा कि अपने दोस्त को सिगरेट पीने से रोकना चाहिए. मैंने उसे शामियाने के बाहर के गय़ा और बताया कि उसके पिता जी उस पर कितना विश्वास करते है. मैंने कहा कि उस पिता का विश्वास तोड़ रहें हो जिसका तुम्हारे ऊपर अटूट विश्वास ही नही है बल्कि गर्व भी है. जब उसने मेरी बातें सुनी तो वह भावुक हो गया और वहीं पर सिगरेट के टुकडे तुकडे कर के फेक दिया. मैं अपने दोस्त पर पहले से ही गर्व करता था. मगर उस घटना के बाद मुझे ऐसा लगा कि मेरा सिर और ऊँचा हो गया. इस वाकया से यह भी निकल कर सामने आता है कि दोस्त वही है जो दोस्त को सही सलह दे , उसको गलत रास्ते पर जाने से रोके.

मतलब दोस्ती का

कल के पोस्ट में मैंने शिक्षा और दम्भ शीर्षक के अन्तर्गत इस बात पर जोर दिया था कि सम्मान पाने के लिऐ मात्र उच्च शिक्षा ही पर्याप्त नहीं हैं. सम्मान पाने के लिऐ आवश्यक हैं कि शिक्षित व्यक्ति के अंदर संस्कार और इंसानियत हो. आज मैं दोस्ती का मतलब क्या हैं उस पर अपना विचार करने जा रहा हूँ.

जैसा कि मैंने कल के पोस्ट में लिखा हैं , गाँव की बारातों में अक्सर चारपाई के लिऐ मारा मारी रहती थी. हम लोग एक बारात में गए थे. नाई की बारात थी. वहाँ भी रात में सोने के लिऐ पर्याप्त चारपाईया नहीं था. अक्सर ऐसा होता था कि जो बुजुर्ग होता था उसको बारात में प्राथमिकता दी जाती थी. कम उम्र का आदमी बुजुर्ग के लिऐ अपने आप चारपाई छोड़ देता था. यदि कोई अपने आप चारपाई खाली नहीं करता था तो जिसकी बारात होती थी वह अनुनय विनय करके चारपाई खाली करवा था. उस बारात में दो तीन दबंग किश्म के युवकों ने पहले से ही चारपाईया हथिया रखी थी. एक बुजुर्ग आए. उनका गाँव मे कोई विशेष स्थान नहीं था. कुछ युवकों को उन दबंग युवकों का आचरण कभी ठीक नही लगता था. उन युवकों में मैं और मेरा दोस्ती भी था. संयोग से वह बुजुर्ग मेरे दोस्ती की की खानदान का था. उसने नाई से कहाँ कि आप एक चारपाई खाली करवा दो. नाई गय़ा. उसने हिम्मत की चारपाई खाली करवाने की मगर वह सफल नहीं हो पाया.उसने वापस आ कर अपनी असमर्थता बताई. फ़िर क्या था? कुछ युवक ज़बरदस्ती चारपाई खाली करवाने लगे. उस दौरान मेरे दोस्त और उन दबंग युवकों मे कहा सुनी हो गई. मैंने अपने दोस्त की बात का समर्थन किया. उसी दौरान एक दो बुजुर्ग जग गए. दबंग युवकों ने उन बुजुर्गो की बात मान ली और चारपाईया खाली कर दी. 


गाँव वापस आ कर उन दबंग युवकों ने अफवाह फैला दी कि मेरे दोस्त ने शराब के लिऐ तकरार की थी. दोस्त के साथ मेरा भी नाम उन सबों ने जोड़ दिया. मेरे पिता जी को तो मेरे ऊपर अंध विश्वास था. इतना विश्वास था कि मेरे खिलाफ किसी भी बात पर वे यकीन नहीं कर सजते थे. लेकिन मेरे दोस्त के पिता जी को अपने बेटे से अधिक मेरे ऊपर यकीन था. जब यह बात उन तक पहुँची तो उन्हें भी विश्वास नहीं हुआ. फ़िर भी वो मेरे पास आये. जब मैंने उक्त घटना को विस्तार से बताने लगा तो उन्होंने मुझसे कहा कि सफाई देने की कोई ज़रूरत नहीं. तुम्हारा इतना कहना ही काफी है वैसा कूछ नहीं हुआ था. तुम्हारे ऊपर मुझे पूरा भरोसा है.


मैंने इस वाकया का जिक्र सिर्फ यह रेखांकित करने के लिये किया कि दोस्ती की आत्मा विश्वास हैं. विश्वास भी ऐसा जो दोस्तो से आगे बढ़कर उनके परिजनों के दिल मे उतर जाय. यदि ऐसा नहीं है तो मेरी समझ में वह दोस्ती नहीं है. दुर्भाग्य से आज सिर्फ एक साथ बैठ कर गप शाप करना, हा हा ही ही करना , मौज मस्ती करना और इसी तरह का काम करने को दोस्ती की संज्ञा दी जाती है. मैं उन तमाम लोगों से माफी चाहता हूँ जो ऐसे क्रियाकलापों को ही दोस्ती समझते है

Saturday 6 August 2016

शिक्षा और दम्भ

शिक्षा और दम्भ : मैं बहुत पहले की एक बात का जिक्र करने जा रहा हूँ. उस समय तक मुझे विज्ञान मे स्नातक की डिग्री मिल चुकी थी. मैं एक बारात मे गया था. बारात मेरे गाँव से गई थी. रात मे सोने के लिए बहुत कम चारपाइया उपलब्ध थी. कूछ लोगों ने पहले से ही चारपाइयो पर कब्जा कर रखा था. उन लोगों मे एक युवक भी था जिसकी उम्र उन बाकी लोगों से कम थी जो चारपाईयों पर लेते हुए थे. वह युवक कला में परास्नातक था. बारात में एक सम्मानित व्यक्ति भी थे. वे भी परास्नातक थे. वे खाना खा कर आए तो उनके सोने के लिए कोई भी चारपाई नही थी. वे एक कुर्सी पर बैठे थे. मैं भी उनके पास ही बैठा था. मैं भी गाँव के अग्रणी युवकों मे था. हमारे ही बीच का एक युवक यह देखने गया कि उक्त सम्मानित व्यक्ति के लिए कौन चारपाई छोड़ सकता था. हमारे बीच का युवक उस युवक के पास गया जिसका मैं ऊपर जिक्र कर चुका. हमारे बीच के उस युवक ने यही सोचा कि उम्र जो सबसे कम है उसी से चारपाई छोड़ने के लिए कहना उचित होगा. हमारे बीच के उक्त युवक ने जब उस लड़के से चारपाई छोड़ने के लिए कहा तो उसने पूछा किसको सोना है. जब उक्त सम्मानित व्यक्ति का नाम लिया गया तो उक्त लड़के ने सवाल दागा.बोला कि मुझमें और उक्त सम्मानित व्यक्ति मे क्या फर्क हैं. वे भी परास्नातक हैं और मैं भी परास्नातक हूँ.
उसके कहने का मतलब क्या था ? शायद वह यह कहना चाहता था कि समाज मे उसी व्यकि को सम्मान का अधिकार हैं जो शिक्षित हो.
जब इस बात का पता मुझे लगा तो मैं उसके पास गया. वह मेरा सम्मान करता था. रिश्ते मे मेरा भतीजा भी लगता था. मै जब उसके पास गया तो वह उठ कर बैठ गया. मैंने उससे पूछा कि तुम मुझे क्यों सम्मान देते हो. मैं तो स्नातक हूँ और तुम परास्नातक हो. उसने कहा कि चाचा आपकी बात अलग हैं. मैंने उससे कहा कि तब यह कहो न सम्मान के लिऐ मात्र शिक्षा ही काफी नहीं है. शिक्षा के अलावा आदमी के अंदर कूछ खास भी होना चाहिए. मैने उससे यह भी कहा कि भारतीय संस्कॄति में यदि कोई उम्र दराज़ है वह सम्मान पाने का हक़दार हैं भले ही एह अशिक्षित हो या किसी ऊँचे पद पर न हो. मैने कहा कि जिस व्यक्ति के चारपाई चाहिए वे सिर्फ परास्नातक ही नहीं है बल्कि बहुत कुछ है. सभी लोग उनका सम्मान करते हैं , मैं भी करता हूँ. मेरी बात का उसके पास कोई उत्तर नहीं था. वह मुस्कराते चारपाई से उठ गय़ा.
वैसे तो मैं इस वाकया के माध्यम से क्या कहना चाहता हूँ ,सुस्पष्ट हैं. फ़िर भी उपसंहार के तौर पर मैं कहना चाहता हूँ कि उच्च शिक्षित हो कर यदि हम आदमी नहीं बन पाते, शिक्षा का इस्तेमाल हम समाज की बेहतरी के लिऐ नही करते बल्कि निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिऐ करते हैं तो हमें सम्मान की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. हमें उसी से सम्मान की अपेक्षा करनी चाहिए जिसको हम सम्मान देते हैं. बद्किश्मति से आज का शिक्षित वर्ग मात्र बौधिक क्षमता और शिक्षा के बल पर सम्मान की अपेक्षा करता है. उसकी एक ही वजह हैं पुरातन संस्कृति का क्षय होना.

Tuesday 2 August 2016

‘मनोविज्ञान- परम्परा, प्रचलन और कर्मकांड कांड का : भाग-3

‘मनोविज्ञान- परम्परा, प्रचलन और कर्मकांड कांड का’ शीर्षक से पोस्ट भाग –1 और भाग-2 में मैंने इस बात पर प्रकाश डालने की कोशिश की है कि गाँवों में जो प्रचलन हैं उनका संबंध धार्मिकता से अधिक मनोवैज्ञानिकता से है. अंतिम संस्कार तक जिन परम्पराओं का पालन किया जाता है, उनका आधार किस तरह से मनोवैज्ञानिक है. उस पर मैं चर्चा कर चुका हूँ. अब मैं उससे आगे बढ़ रहा हूँ. 
अंतिम संस्कार सम्पन्न करने के बाद मुखाग्नि देने वाले व्यक्ति ‘घंट’ टाँगता है. ‘घंट’ मिट्टी का एक छोटा सा घड़ा होता है. घड़े की पेंदी में छेद कर दिया जाता है. उस छेद से कपड़े की एक बाती बाहर निकली रहती है. मुखाग्नि देने वाला व्यक्ति उस घंड़े में पानी भरता है. उसके बाद उस घड़े को पीपल के पेड़ के तने में रस्सी के सहारे लटका दिया जाता है. मुखाग्नि देने वाला व्यक्ति रोज सुबह और शाम नहा कर भीगे कपड़े में ही पीपल के पेड़ के पास जाता है. वह पेड़ का पाँच चक्कर लगाता है. मुझे याद नहीं है कि वह प्रत्येक बार घड़े में पानी डालता है या पेड़ के तने में पानी डालता है. घड़े का पानी बूंद बूंद कर टपटकता रहता है. वह पानी पेड़ के तने पर गिरता है. उस पानी का वाष्पीकरण बहुत कम होता है क्योंकि सूरज की किरणे उस पर नहीं पड़ पाती. परिणाम यह होता है कि वह पानी रिसता हुआ पेड़ की जड़ तक पहुँचता है. 
पीपल के पेड़ के बारे में हमें पता है कि वह पेड़ रात को ऑक्सीजन का उत्सर्जन करता है. इसी लिए पीपल के पेड़ को पवित्र माना जाता है. गाँव के लोग पीपल और नीम के पेड़ की पूजा करते है. पीपल का पेड़ तो गाँव के बाहर लगया जाता है लेकिन नीम का पेड़ गाँव के भीतर लगाया जाता है. कहा जा सकता है कि पीपल के पेड़ पर देवताओं का वास रहता है और नीम के पेड़ पर देवियों का. 
जब देवी पूजा होती है उस समय हमारे यहाँ देवी गीत गाया जाता है. वह गीत इतना मधुर होता है कि सुनने वाला भक्ति में डूब जाता है. गीत है: ‘निमिया के डार मइया लावेली हिलोरवा की की झुली झुली ना. मइया 
गावेली गितिया की झुली झुली न.’ ऐसा गीत गा कर महिलाएं देवी को प्रसन्न करती है. इतना नहीं जब बड़ी माता (चेचक) का प्रकोप होता है जिस व्यक्ति को चेचक होता है उसकी राहत के लिए नीम के पत्ते का इश्तेमाल किया जाता है. 
इन दोनों पेड़ों की पूजा गाँवो में कबसे हो रही है, इसका किसी को पता नहीं है. मुझे लगता है कि अनुसंधान, प्रयोग अनुभव के आधार पर जब लोगों को पता चला होगा कि वे पेड़ हमारे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है, तब से उन पेड़ों की पूजा शुरू हुई होगी.
पर्यावरण के संरक्षण और सम्बर्धन के लिए आज लिखित कानून है. लेकिन उस समय शायद लिखित कानून नहीं रहा होगा. उस समय के लोग धर्म भीरु थे. मुझे लगता है कि पीपल और नीम जैसे औषदीय महत्व के पेड़ों के संरक्षण और सम्बर्धन के लिए लोगों में आस्था का प्रादुर्भाव किया गया होगा. बताया जाता है कि मृत्यु के उपरांत आत्मा भटकती रहती है. वह भूखी प्यासी रहती है. इस लिए आत्मा की तृप्ति के लिए ग्यारह दिन तक पीपल के पेड़ को पानी दिया जाता है. ऐसा करते हुए व्यक्ति के मन में सवाल नहीं उठता कि वह जो कर रहा है, कहाँ तक तार्किक है. ऐसा सोचना भी उसको अपराध जैसा लगता है. वह अपने दिवंगत प्रिय के नाम पर हर तरह का कष्ट उठाने के लिए तैयार रहता है. उसको यह भी लगता है कि वह पश्चाताप कर रहा है. किसका पश्चाताप? उन गुनाहों का जिसे उसने जाने अनजाने अपने प्रिय को तकलीफ पहुँचा कर की होती है. पश्चाताप करके उसको शांति मिलती है. वह अपने आप को हल्का महसूस करता है. उसके दिल पर जो बोझ होता है वह धीरे धीरे कम होने लगता है. वह यह समझ कर पानी देता है कि वह पानी उसके दिवंगत प्रिय जन को पहुँच रहा है. लेकिन वह पानी रिसते हुए के पेड़ की जड़ में जाता है पेड़ को हरा भरा रखता है. इस प्रकार वह अपने मन को शांत तो करता ही है समाज का भी भला करता है. 
घंट टंगवाने के काम एक वर्ग करता है जिसे महापात्र कहा जाता है. यह माना जाता है कि महापात्र के माध्यम से ही दिवंगत आत्मा को सामग्री पहुँचाई जाती है. उस दिन जब तक महापात्र आ कर अन्न ग्रहण नहीं कर लेते तब तक कोई भी अन्न ग्रहण नहीं करता. कुछ लोगों को यह कर्म कांड लगेगा. उनको इसमें कोई सार्थकता नजर नहीं आती. लेकिन मुझे नजर आती है. इस कर्म कांड का मेरे अनुसार भावनात्मक पक्ष है. जिस व्यक्ति का स्वर्गवासी व्यक्ति से खास लगाव था उस व्यक्ति को कुछ भी अच्छा नहीं लगता. हर वक्त उसकी याद उसे आती रहती है. जब वह खाना खाने जाता तो उसको यह याद आज जाता कि जिसके साथ वह खाना खाता था आज वह नहीं है. ऐसी स्थिति में उसके गले से निवाला नीचे नहीं जा सकता था. इसी लिए घंट टंगने के पहले वह अन्न ग्रहण नहीं करता. यह भी सही है कि कोई भी व्यक्ति बहुत दिन तक बिना अन्न के नहीं रह सकता. इस लिए महापात्र के माध्यम से पहले दिवंगत आत्मा को अन्न पहुँचाया जाता है उसके बाद वह व्यक्ति और बिरादरी के लोग एक साथ बैठ कर अन्न ग्रहण ग्रहण करते हैं. जिस व्यक्ति ने दाह लिया होता है सबसे पहले वह अपने मुँह में निवाला डालता है. उसके बाद सभी लोग खाना शुरू करते हैं. उस समय भी उस व्यक्ति के गले से निवाला नीचे नहीं जा पाता. लेकिन जब वह देखता है कि उसके साथ साथ बाकी लोग भी भूखे हैं तो न चाहते हुए भी उसको अपने गले के नीचे निवाला उतारना पड़ता है. यह रश्म है, कर्म कांड है , प्रचलन है लेकिन इसका उस व्यक्ति के लिए ही नहीं, समाज के लिए भी बहुत बड़ा महत्व है. इससे दु:ख और सुख में एक साथ रहने की भावना विकसित होती है जो समाज के लिए अति आवश्यक है. 
घंट टंगने के बाद जो खाना खाया जाता है वह बिल्कुल सादा होता है. सिर्फ चावल और अरहर की दाल होती है. दाल में बिना नमक और हल्दी की होती है. उसके साथ सब्जी वगैरह नहीं होती. दाल में सेधा नमक डाला जा सकता है. 
बिरादरी के बाकी लोग तो पत्तल में खाते है और दाह संस्कार करने वाला आदमी मिट्टी के बर्तन में खाता है. एक बार जो उसको दे दिया जाता है वही वह खाता है. दुबारा नहीं माँग सकता. उसका जूठन कोई दूसरा नहीं उठाता. उसे ही उठाना पड़ता है. 
उस दिन के बाद से सभी लोग अन्न ग्रहण करना शुरु कर देते है. लेकिन खाना वैसा होता है जिस तरह का दाह संस्कार करने वाला व्यक्ति खाता है. खाने में सरसो का तेल, हल्दी , नमक, लहसुन, प्याज का इस्तेमाल नहीं होता. तड़का भी नहीं लगाया जाता. मतलब यह है कि उस व्यक्ति के साथ पूरी बिरादरी फीका खाना खाती है. ऐसा खाना जिसमें खूशबू न हो. मेरी समझ से यह सब इस लिए किया जाता है कि गमगीन व्यक्ति यश समझे कि गम में वह अकेले नहीं है बल्कि पूरी बिरादरी उसके साथ है. बिरादरी द्वारा उस व्यक्ति के लिए कष्ट उठाना उस व्यक्ति की पीड़ा को कम करने में सहायक होता है. 
दाह कर्म से तेरह दिन तक के समय को गमी कहा जाता है गमी के दौरान बिरादरी में कोई भी नया काम नहीं होता, उस दौरान कोई नया कपड़ा नहीं खरीदता. अच्छा खाने से और नये कपड़े पहनने से क्यों परहेज किया जाता है? उसके पीछे क्या कारण हो सकता है? इसका कोई सीधा सादा जवाब नहीं मिलता. लेकिन यदि हम यदि इस पर विचार करें तो पाएंगें कि अच्छा खाना खाना और अच्छे कपड़े पहनना एन्ज्वॉय करने की श्रेणी में आता है. जिस व्यक्ति का प्रिय बिछुड़ गया है उसको तो खाना ही अच्छा नहीं लगता तो वह अच्छा खाना कैसे खा पाएगा. इस लिए उसका साथ देने के लिए पूरी बिरादरी ही न अच्छा खाना खाती है और न नया कपड़ा पहनती है. इसका उस व्यक्ति पर सकारात्मक असर पड़ता है जब वह पाता है कि उसके साथ साथ पूरी बिरादरी ही दु:खी है. उस उक्त प्रचलन का मेरे हिसाब से यह मनोविज्ञानिक ही नहीं बल्कि सामाजिक पक्ष है. 
दाह लेने वाले व्यक्ति को रात में अकेला नहीं छोड़ते. ऐसा माना जाता है कि अकेले में दिवंगत आत्मा जो भटक रही है उसके पास सकती है. दिवंगत आत्मा के प्रभाव में वह आदमी सकता है. दिवंगत आत्मा के प्रभाव से उस आदमी का कहीं नुकसान न हो, इस लिए वह व्यक्ति जहाँ पर सोता है उसके कमरे के बाहर कोई अवश्य सोता है. पता नहीं आज यह प्रचलन है कि नहीं है. ऐसा क्यों होता है, उसका कारण मेरे समझ से यह है कि जब आदमी रात में अकले होगा तो वह दिवंगत व्यक्ति के बारे में सोचेगा. एक बार दिवंगत व्यक्ति उसके खयालों में आ गया तो फिर वह आसानी से बाहर नहीं निकल सकता. उस दौरान वह आदमी भावना में बहकर कुछ भी कर सकता है. वह अपनी जान भी दे सकता है. इस चीज की सम्भावना को खत्म करने के लिए उस आदमी को अकेला नहीं छोड़ा जाता.
उक्त आदमी के सामने दिन में गरुड़ पुराण का पाठ किया जाता है. गरुण पुराण में जिस तरह से वर्णन किया गया है, वह बहुत ही भयावह है. बहुत ही बीभत्स दृष्य को उसमें दर्शाया गया है. उसमें यह भी लिखा गया कि यदि दाह लेने वाला व्यक्ति तेरह दिनों तक संयम का परिचय नहीं दिया तो उसे मृत्यु के उपरांत उसे तरह तरह की यातना से गुजराना पड़ता है. यह सब जान कर वह आदमी इतना भयभीत हो जाता है कि उसका सारा का सारा ध्यान संयम बरतने, नियमों का पालन करने और कर्मकांडों पूरा करने मे लग जाता है. 
कहने का मतलब यह है कि किसी भी व्यक्ति के देहांत के बाद आचरण के लिए जो नियम बनाए गए हैं उनका मनोवैज्ञानिक और सामाजिक आधार है. इस लिए जो तथाकथित प्रगतिशील सोच के लोग हैं उनको पुरानी परम्पराओं, रूढ़ियों और कर्मकांडों का मजाक न उड़ा कर उनकी सार्थकता पर विचार करना चाहिए और यह भी देखना चाहिए कि क्या वे आज भी सार्थक हो सकती है.

Sunday 31 July 2016

मनोविज्ञान, परम्परा, प्रचलन और कर्मकांड कांड का: भाग-2


मनोविज्ञान, परम्परा, प्रचलन और कर्मकांड कांड का: भाग-1 में मैंने लिखा है कि गाँव पर जब शव यात्रा शुरू होती थी तो ‘राम नाम सत्य’ और घंटे की ध्वनि के साथ होती थी. शायद आज भी ऐसा होता है. मैंने लिखा है कि उक्त प्रचलन, परम्परा या कर्मकांड का क्या आखिर उद्देश्य था? मैंने यह भी लिखा है कि इस पर मैंने कोई शोध नहीं किया है. इस लिए मैं जो कुछ लिखने जा रहा हूँ, वह मूल रूप से मेरी समझ पर आधारित है. 
गाँव के लोग देश के कानून से परिचित नहीं थे. उन्हें कानून का उतना भय नहीं था जितना कि लोक लाज और समाज का था. सामाजिक वहिस्कार से सभी लोग डरते थे. इसी लिए सामाजिक बहिस्कार के भय से कोई गलत करने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी. समाज का भय इतना अधिक था कि हत्या जैसे जघन्य अपराध से लोग घबराते थे. गाँव का हर व्यक्ति एक दूसरे से जुड़ा होता है. गाँव में रह कर कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे की आँख में धूल नहीं झोक सकता था. पूरा गाँव एक धागे में पिरोया हुआ था. कुछ अपराध तो क्षम्य थे लेकिन हत्या जैसे संगीन अपराध तो बिल्कुल क्षम्य नहीं थे. इस लिए यदि किसी के घर में मौत हो जाती थी तो लोग बड़ी जल्दी इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते थे कि वह मौत स्वाभाविक है या हत्या है. यदि लोगों को शक हो जाता था कि मृत्यु स्वाभाविक नहीं बल्कि हत्या का परिणाम थी तो गाँव के लोग उस परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर देते थे जिसके घर मौत हुई थी. कोई भी आदमी शव को कंधा देने नही आता था. शव यात्रा में कोई भाग नहीं लेता था. कोई भी आदमी उस घर का पानी नहीं पीता था. वह घर गाँव में बिल्कुल अलग थलग पड़ जाता था. यदि किसी का अंतिम संस्कार चुपचाप कर दिया था तो वह भी शक के घेरे में आ जाता था. ऐसी स्थिति न आए इस लिए ऐसी परम्परा डाल दी गई कि जब शव यात्रा शुरू होगी तो उसकी घोषणा कर दी जाएगी. घोषणा का सबसे उत्तम तरीका यही था कि शव को कंधा देने वाले और शव यात्रा में भाग लेने वाले जोर जोर से ‘राम नाम सत्य है’ की ध्वनि निकालें और घंटा बजाते हुए चले. इससे क्या होता था कि जिन लोगों को शव यात्रा में भाग लेना होता था वे आगे पीछे उस यात्रा में शामिल हो जाते थे या वहाँ पर पहुँच जाते थे जहाँ पर अंतिम संस्कार होता था. शव यात्रा में यदि अधिक से अधिक लोगों भाग लेते थे तो जिस आदमी का प्रिय बिछुड़ गया होता था उसे लगता था कि उससे पूरे गाँव की सहानुभूति है. दु:ख की घड़ी में वह अकेला नहीं है. उसके घर वाले ही नहीं बल्कि पूरा गाँव या कम से कम उसकी विरादरी उसके साथ है. यह सब देख कर उसको अपने प्रिय के खोने का गम कुछ हद कम हो जाता था. उसका मानसिक कष्ट बहुत हद तक कम हो जाता था. उसके स्वास्थ्य पर सकारात्मक मनो वैज्ञानिक असर पड़ता था. 
अंतिम संस्कार कौन करता था? जो दिवंगत व्यक्ति का सबसे करीबी होता था वह करता था. यदि दिवंगत व्यक्ति महिला थी और उसका पति जीवित था तो अंतिम संस्कार उसका पति करता था. यदि उसका पति नहीं था या था भी तो वह तपस्या पूरी करने में सक्षम नहीं था तो उसका ज्येष्ट पुत्र अंतिम संस्कार करता था. मतलब यह है कि हर सम्भव कोशिश यही होती थी कि दिवंगत व्यक्ति का संस्कार उसके सबसे नजदीकी व्यक्ति के हाथों सम्पन्न हो और सभी नजदीकी लोगों की उपस्थिति में हो. ऐसा किसी कानून में नही था. लेकिन एक स्वस्थ परम्परा थी. अंतिम संस्कार मुखाग्नि से सम्पन्न होती है. 
स्वाभाविक है कि शव यात्रा से लौटने के बाद सभी लोग अपने अपने घर चले जाते हैं. उसके बाद क्या होता है? उक्त सबसे अधिक प्रभावित व्यक्ति को उसके बाद भी अकेला नहीं छोड़ा जाता था. मुखाग्नि के बाद उसको ऐसे कर्मकांडों में बाँध दिया जाता है कि उसका पूरा का पूरा ध्यान कर्मकांड को सम्पन्न करने में ही लगा रहता है. मुखाग्नि के बाद वह अन्न नहीं खाता. उसको जमीन पर या लकड़ी की चौकी पर दरी बिछा कर सोता है. वह तब तक अन्न नहीं ग्रहण करता, जब तक कि दूसरा कर्म कांड सम्पन्न नहीं हो जाता. 
सवाल यह है कि यदि वह अन्न नहीं ग्रहण कर रहा है और घर के बाकी सदस्य अन्न ग्रहण कर रहे हैं तो वह अपने आप को थोड़ा अलग थलग महसूस करेगा. उसको लगेगा कि अपने प्रिय जन को खोने का दु:ख सिर्फ उसको है परिवार के बाकी लोगों को नहीं. इस लिए उसका साथ देने के लिए पूरा का पूरा परिवार अन्न ग्रहण नही करता. परिवार ही नहीं, पूरा का पूरा खानदान अन्न नहीं ग्रहण करता. इस तरह वह व्यक्ति महसूस करता है कि उसका पूरा परिवार उसके साथ है और परिवार पहसूस करता है उसका पूरा खानदान उसके साथ. इसका उस व्यक्ति और उस व्यक्ति के परिवार पर स्कारात्मक मनो वैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है. इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव कैसे पड़ता है मैं एतद्द्वारा व्यक्त करने की कोशिश कर रहा हूँ. 
मान लीजिए कि आप को बहुत भूख लगी है. इतनी भूख लगी है कि भूख आपसे सहन नहीं हो रही है. उसी समय यदि कोई आ जाय और आपके बगल मैं बैठ कर खाना खाना शुरू कर दे तो भूख से जो आपको पीड़ा हो रही थी उस पीड़ा में कई गुना वृद्धि हो जाएगी. इसके विपरीत यदि उस व्यक्ति को पता है कि आप भूखे हैं और आपके पास आ कर कहता है कि जब तक आपको खाना नहीं मिल जाता तब तक मैं भी नहीं खाऊँगा तो आपके भूख की तीब्रता कम हो जाएगी. आपको लगेगा कि आप अकेले उस पीड़ा से व्यथित नहीं है बल्कि आपके साथ कोई और भी है. परिणाम स्वरूप आपका ध्यान आपकी पीड़ा से हट जाएगा. आपकी पीड़ा कुछ कम हो जाएगी. यही स्थिति उस व्यक्ति के साथ होती है जब उसके साथ उसका सारा का परिवार और खानदान उसी तरह का खाना खाता है जिस तरह का खाना वह व्यक्ति खाता है. उक्त प्रभावित व्यक्ति के साथ अन्न ग्रहण न कर पूरा खानदान यह संकेत देता है कि सभी उसके साथ हैं. 
शुक्रवार की शाम को हमने भी अन्न ग्रहण नहीं किया. रात में आलू उबाल कर और उसमें सेंधा नमक डाल कर हमने खाया. मेरे बेटे और बहू ने भी सिर्फ फल खाए. इसके बाद का कर्म कांड क्या है उसके बारे में मैं अगले भाग अर्थात भाग-3 में प्रकाश डालूँगा.

मनोविज्ञान, परम्परा, प्रचलन और कर्मकांड कांड का: भाग-1


मुझे मालूम है कि इस शब्द से बहुत लोगों को चिढ़ है. चिढ़ क्यों हैं, इस पर मैं इस समय कुछ नहीं कहना चाहता. बस मैं इतना कहना चाहता हूँ, कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी लोग किसी न किसी रूप में कर्मकांड का उपयोग करते हैं. उन्हें अपने जैसे लोगों का कर्म कांड तो उचित लगता है, मगर दूसरे द्वारा किया गए कर्मकांड में उन्हें किसी तरह की सार्थकता नहीं दिखाई देती. 
मेरा यह मानना है कि कोई भी कर्मकांड अपनी उत्पत्ति के समय सार्थक रहा होगा. उसकी सार्थकता समय और स्थान के साथ खत्म हो जाती है. जैसे कि जो कर्म कांड कभी गावों में सम्पन्न होता था वह शहर के लिए आज के दिन सार्थक नहीं है. क्यों सार्थक नहीं? इसका जवाब भी संक्षेप में देना सम्भव नहीं है. इस लिए मैं उसका मैं इस अवसर पर जवाब नहीं देना चाहता. मेरा सिर्फ यह कहना है कि किसी भी कर्म कांड की सार्थकता पर विचार किए बिना आलोचना करने का हमें कोई अधिकार नहीं है. 
प्राय: सभी लोग जानते है कि अधिकांश कर्मकांडों की उत्पत्ति गाँवों में हुई थी. मेरा लालन पालन गाँव में हुआ है. मेरा शहरी जीवन अड़तीस वर्ष का है. मुझे शहर और गाँव का दोनों का विस्तृत अनुभव है. आज भी गाँव से मेरा सम्बंध बना हुआ है. इस लिए मैं कह सकता हूँ कि मेरे पास दोनों दृष्टि है गाँव की भी और शहर की भी. मैं यह भी कह सकता हूँ कि मेरी दृष्टि गाँव से शहर तक व्यापक है. मेरी ही नहीं बल्कि मेरी जैसे उन तमाम लोगों की दृष्टि गाँव से शहर तक व्यापक है जिनका लालन पालन गाँव में हुआ है मगर वे शहर में एक लम्बे समय से रह रहे हैं.
शुक्रवार को मेरे बहुत ही करीबी महिला का निधन हो गया. उनका निधन मोहन नगर में हुआ. वे 72 वर्ष की थी. कुछ दिनों पहले ही वे गाँव से अपने बेटे के यहाँ आई थी. मुझे जब सूचना मिली तो मैं गया. मैंने उनका अंतिम दर्शन करने के लिए उनके पार्थीव शरीर से वस्त्र हटाया. जब मैंने उनका चेहरा देखा तो मेरी आँखों में आँसू आ गये. यदि मैं उस दिन उन्हें नहीं दिखता तो मैं उनको भूल नहीं पाता. जब भी मैं गाँव जाता, मेरी नजरें उन्हें खोजती. लोग कहते कि जिसको मैं खोज रहा हूँ अब वे इस दुनियाँ में नहीं हैं, फिर भी मेरा दिल नहीं मानता. क्योंकि मेरे मन पर उनका जो अक्श था वह एक चलती फिरती महिला का था. वे नहीं मिलती तो मैं बेचैन रहता. लेकिन अब ऐसा नहीं होगा. मैं शाँत हो गया हूँ. मैंने उनके सदा के लिए खामोश चेहरे को अपनी आँखों देख लिया है. मेरी आँखों से आँसू बह चुके है. मनोविज्ञान के अनुसार आँसू गिर जाने के बाद मन हल्का हो जाता है. मेरी तरह जिन सगे सम्बंधियों ने उन्हें देखा और उनके आँसू निकल गए, वे भी कुछ हद तक सामान्य हो जाएंगे. समय समय पर आँसू निकलते रहेंगे सभी लोग सामन्य होते रहेंगे. 
आदमी के लिए व्यस्त रहना जरूरी है. अन्यथा तन्हाई में उसने जो पाया है उसको याद करके खुश कम होता है, जो खोया है उसको याद करके दु:खी बहुत होता है. किसी सागे सम्बंधी की मृत्यु के बाद जो कर्मकाँड किए जाते है उनकी सार्थकता मुझे यही पर नजर आती. किसी व्यक्ति के गुजर जाने पर उसका जो सबसे करीबी होता है उसी को सबसे ज्यादा दु:ख होता है. यदि वह खाली रहेगा तो उसने जिसको खोया है उसे भूल नहीं पाएगा. इसी लिए उसे ऐसे कर्मकाँडो में जकड़ दिया जाता है कि उसका ध्यान अपने दिवंगत करीबी के हट जाता है और कर्म काँड को सम्पन्न करने में लगा रहता है. लगभग दो हप्ते तक उसे तपस्वी का जीवन व्यतीत करना होता है. अपने करीबी की आत्मा की शाँति के लिए उसे कष्ट सहना उसे अच्छा लगता है. दो हप्ते बाद जब वह सामन्य जीवन चर्या आरम्भ कर देता है तो उसकी स्मृति में उसके दिवंगत करीबी की याद उसे कष्ट देती है उसके लिए की गई दो हप्ते की तपस्या उस कष्ट को कम कर देती है. कर्मकांड की सार्थकता मुझे उस समय नजर आई थी जब मेरी माँ और पिता जी के स्वर्गवास के उपरांत मुझे कठिन साधना से गुजरना पड़ा था. 
कावड़ियों की वजह से शव वाहन नहीं मिल पाने की वजह से हम लोगों को शव ले कर पैदल ही मोहन नगर से हिंडन आना पड़ा था. जिन चार लोगों ने शव को कंधे पर उठाया था उसमें उस महिला के तीन बेटे थे और मैं था. मैं और महिला का मझला बेटा आगे थे. आगे चल कर किसी रिश्तेदार ने मेरी जगह ले ली. उसके बाद मुझे मिट्टी का एक वर्तन जो किसी दूसरे के पास था मुझे दे दिया गया. उस बर्तन में अगरबत्ती जल रही थी. मैं उस को ले कर आगे आगे चलने लगा. मैं आगे आगे ‘राम नाम सत्य’, ‘राम नाम सत्य’ बोलता रहा. पीछे सभी लोग उसको दुहराते रहे. गाँव पर मैं देखता था कि लोग घन्टा भी बजाते थे. यदि किसी बहुत अधिक उम्र के बुजुर्ग का स्वर्गवास हो जाता था तो बंड़े धूम धाम से उनकी अर्थी निकाली जाती थी. आखिर इस प्रचलन, परम्परा या कर्मकांड का क्या उद्देश्य था. इस पर मैंने कोई शोध नहीं किया है. इस लिए मैं जो कुछ लिखने जा रहा हूँ, वह मूल रूप से मेरी समझ पर आधारित है. 
पोस्ट लम्बा न हो इस लिए इस समय मैं यहीं पर विराम लगा रहा हूँ. आगे जो पोस्ट मैं लिखूँगा उस में उक्त विषय पर विस्तार से विचार करने की कोशिश करूँगा.

Sunday 24 July 2016

संकीर्णता

हम कहाँ जा रहे हैं ? जाएंगे कहाँ ? आज़ादी के पहले अंग्रेजों जो बीज बोया था वह आज पल्लवित और पुष्पित ही नहीं फलित भी हो रहा हैं. कौन था एह बीज? बीज था संकीर्णता का. बीज था क्षेत्र , धर्म और जाति के नाम की संकीर्णता का. मैं नाम तो नहीं लूँगा लेकिन इतना मैं कह सकता हूँ कि यह देश तीन अग्रणी नेताओं की राजनीतिक स्वार्थ और संकीर्णता का दंश आज भी झेल रहा. यह तो गाँधी का त्याग और पटेल का संकल्प था कि हमारे देश कई टुकडे नहीं हुए. उन्होंने अपनी सूझबूझ और दृढ़ निश्चय से देश को और टूटने से बचा लिया. मगर आज वे नहीं हैं. आज हम जिस दिशा मे जा रहे हैं उसकी परिणति क्या होगी उसका हमें अनुमान नही हैं. आजादी के बाद जिस तरह से रियासतों ने संकीर्णता का परिचय दिया था उसी तरह की संकीर्णता का परिचय आज क्षेत्रीय पार्टियाँ डे रहीं हैं. जिस तरह से रियासतों ने केन्द्र को ललकारा था उसी तरह से आज राज्य केन्द्र को ललकार रहे हैं. मुझे कहने मर संकोच नहीं कि हमारे दुश्मन देश भी चाहते हैं कि हम इतनी समस्याओं से घिर जाएं कि हम उन्हीं समस्यायों से जूझते रहे और हमें दुश्मन की गतिविधियों पर नज़र रखने का मौका ही न मिले. 

कहा जा सकता हैं कि क्षेत्रीय पार्टियाँ और मात्र कुछ जातियों की ही चिंता करने वाली पार्टियाँ दुश्मन देशों के लिए ऐसा महौल बना रहीं जिससे दुश्मन देशों का हित हमारे देश मे फूले फले. हमें सोचना पड़ेगा कि जब देश नही रहेगा तो राज्य नही रहेंगे. राज्य नहीं रहेंगे तो गाँव और शहर बिखर जाएंगे. जहाँ तक परिवार की बात हैं तो वह तो बिखर ही रहा हैं . इस लिए यही कहना समीचीन होगा कि यदि शहर और गाँव नहीं रहेंगे तो हम भी बिखर जाएंगे. इस लिए सबसे पहले हमें जाति धर्म और क्षेत्र की राजनीति करने वाले नेताओं से बचना होगा. बदकिस्मति से अपढ़ लोगों की अपेक्षा पढ़े लिखे लोग उक्त संकीर्णता के दलदल मे डूबे हैं.

Saturday 23 July 2016

' आजादी ' के अर्थ

शब्द ' आजादी ' के आज कितने अर्थ है? हमने तो आजादी का एक मतलब समझा था. हमने यही समझा था कि आजादी का मतलब इस देश का अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त होना है. लेकिन आज ? आज बौद्धिक विलासिता के निमित्त आजादी शब्द पर ही अत्याचार हो रहा है. बौद्धिक विलासिता मे डूबे हुए तथा कथित बुद्धिजीवी आजादी शब्द पर इतना प्रहार कर रहे है कि इस पाक शब्द का मूल ही ख़त्म हो चुका है. कभी आर्थिक आजादी की बात कही जाती है तो कभी अभिव्यक्ति की आज़ादी. अरे भाई तुम्हारी आज़ादी का कौन हनन कर रहा है ? किससे तुम्हें आज़ादी चाहिए. लोक तंत्र मे यदि लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी हुई सरकार से - चाहे वह केन्द्र की सरकार हो किसी राज्य की -से आज़ादी माँग रहे हो तो तुम लोकतंत्र का अपमान कर रहे हो.
कुछ महीने पहले एक शक्स ने कश्मीर जो हमारे देश का अभिन्न अंग है उसकी आजादी के पक्ष नारा लगा रहा था या नारा लगाने वालों के साथ था उसको हीरो बना दिया गया. उसने स्पष्टीकरण दिया कि वह आर्थिक आज़ादी के लिए नारा लगाया था. उसको सहयोग मिला था कुतर्क करने वाले टीवी चैनलों और बुद्धि विलासिता मे लिप्त तथा कथित बुद्धिजीवियों से. अभी हाल मे ही एक व्यक्ति किसी विशेष संदर्भ एक शब्द का प्रयोग किया था. उस शब्द का प्रयोग गाँधीजी जी ने भी शराबियों के सम्बन्ध मे दिया था. उनका इशारा एक बुरी लत की तरफ़ था. शायद गाँधी जी आज होते और ऐसे शब्द का प्रयोग करते तो उनको भी लोग नहीं छोड़ते.
सबसे ज्यादा आजाद तो जानवर होता है. जंगल मे हर तरह की आज़ादी होती है. कोई भी जानवर अपने शरीर को नहीं ढंकता. कोई भी जानवर अपनी ईच्छा के अनुसार कही भी जा सकता है. किसी तरह का प्रतिबंध नही है किसी जानवर पर. कोई भी जानवर किसी कर्तव्य से बड़ा हुआ नहीँ है. प्रत्येक जानवर के पास असीमित अधिकार होता है. जब कि समाज मे ऐसा नहीं है. क्या आज़ादी की बात करने वाले उसी जंगल राज़ की तरफ़ समाज को नहीं धकेल रहे है. कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है. इस लिए मेरा तथाकथित बुद्धिजीवियों से नम्र निवेदन है कि वे अपनी अकूत बौद्धिक सम्पदा का इस्तेमाल समाज को बनाने मे करें इसी खब्डित करने मे नही.

Friday 22 July 2016

अर्थ का अनर्थ.

मै एक बार नहीं कई बार अपना विचार व्यक्त कर चुका हूँ कि आजादी के सत्तर साल बाद भी लोक तंत्र के नाम पर लकीर पीट रहे है. सत्तर साल के बाद भी हम विवेक शील नहीँ हो पाये है. हमारे देष में लोक तंत्र यदि मजबूत हुआ है तो सिर्फ पत्रकारों, टीवी चैनलों , तथा कथित बुद्धिजीवियों के लिए है, जिनका काम बहस के नाम सिर्फ तिल का ताड़ बनाना, बाल की खाल निकालना और अर्थ का अनर्थ करना है. किसी शब्द का अर्थ हम तभी समझ सकते है जब हम उस प्रसंग को समझे जिसके अन्तर्गत उस शब्द का इश्तेमाल हुआ है. यदि हम प्रसंग को छोड़ देंगे तो हम भटक जाएंगे. जिन लोगों का मै ऊपर जिक्र कर चुका हूँ किसी शब्द पर चर्चा करते वक्त यह नहीं बताते कि उस शब्द का प्रयोग किसी तथ्य को व्यक्त करने के लिए हुआ है. दर असल आजादी के बाद जिस चीज़ का हमारे देश में लोक तंत्र की ज़मीन पर सबसे ज्यादा विकास हुआ है वह है नकारात्मकता. हमारे देश के राजनीतिज्ञों ने नकारात्मकता की खेती करने में प्रवीणता हासिल की है और उस खेती को खाद पानी तथा कथित बुद्धिजीवियों और टीवी चैनलों पर मुँह चुथौवल कर रहे पत्रकारों से मिलती है. ये लोग बुझ रही आग जो हवा देने का प्रयास करते है. जैसे ही कोई जख्म भरता है उस पर ये नमक मल का ताजा कर देते. अभी कुछ दिन पहले केर घटना है. एक स्कूल ने शायद चंद्र शेखर आजाद के नाम के साथ आतंकवादी शब्द का इस्तेमाल किया था. बस क्या था ? ऐसी हाय तौबा मचाई गई कि मत पूछिए. किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि क्या पोस्टर मे चंद्र शेखर आजाद को उसी तरह का आतंक वादी बताया गया था जिस तरह के आज के आतंकवादी है? क्या उक्त पोस्टर मे स्कूल ने चंद्र शेखर आजाद की भर्त्सना की थी ? शायद ऐसा नहीं था. ऐसी चीजो पर मै विशेष ध्यान नहीँ देता. सरसरी निगाह से ही ऐसी खबरों को मैं देखता हूँ. उक्त ख़बर को भी मैंने सरसरी तौर पर ही देखा था. उसमे चंद्र आजाद का गुडगान ही किया गया था. मेरी समझ से स्कूल की मंशा चंद्र शेखर आजाद को आज के आतंक वादियों की श्रेणी मे रखने का नहीं था. लेकिन बवाल मचाने वाले लोगों ने उसी अर्थ में लिया. उस स्कूल का कितना नुकसान हुआ. एक तरह भारत के टुकड़े टुकड़े करने का नारा लगाने वालों के साथी को हीरो बना दिया जाता है और दूसरी ओर एक स्कूल की फिसलन को इतना तूल डे दिया जाता है. क्या यही लोक तंत्र है ? क्या इसी को विवेक पूर्ण आचरण कहते है ? ऐसे लोक तंत्र को भीड़ तंत्र कहना अधिक समीचीन होगा. तथा कथित बुद्धिजीवी और टीवी चैनल अपने आचरण से लोक तंत्र को मजबूत नही बल्कि भीड़ को उकसा कर लोक तंत्र और समाज को खंडित करने का कुत्सित काम कर रहे है. मित्रों इस लिए बिना प्रसंग और संदर्भ को समझे किसी भी शब्द के अर्थ का अनर्थ न करें और तथा कथित बुद्धिजीवियों टीवी चैनलों और राजनीतिक लोगों के हाथ की कठपुतली हम न बने और विवेक से काम लें.

Tuesday 28 June 2016

'बागबान’

“बागबान’ का एक रियल सिक्वल
मित्रों, आज कल दु:ख भरी कहानी सुनने के लिए बहुत कम लोग तैयार होगें. किसी के पास समय नहीं हैं तो कोई अपनी समस्याओं से इतना ग्रसित है कि ऐसी कहानी सुन कर वह और अधिक दु:खी नहीं होना चाहता. कुछ लोग ऐसे भी होंगे जिनको सिर्फ मौज मस्ती वाली बातों में ही रूचि रहती होगी. 
इन तमाम बातों के मद्देनज़र मुझे इस बात का अहसास है कि मेरा यह पोस्ट जो बुजुर्गों की व्यथा से जुड़ा है बहुत से लोगों को अच्छा नहीं लगेगा. अत: ऐसे लोगों से पोस्ट लिखने के पहले ही मैं क्षमा माँगता हूँ. 
“बागबान’, एक जाना पहचाना शब्द- एक फिल्म, जिसमे अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी ने बेहतरीन प्रदर्शन किया है. इस फिल्म को बच्चे, बूढ़े, जवान सबने देखा. कहने की आवश्यकता नहीं कि सभी लोगों ने उक्त फिल्म को अलग अलग नजरिए से देखा. फिल्म में किसी को कुछ पसंद आया तो किसी को कुछ. किसी को अभिनेता और अभिनेत्रियों का अभिनय अच्छा लगा तो किसी को फिल्म की कहानी अच्छी लगी. किसी को फिल्म के गाने पसंद आए तो किसी को फिल्म के डायलॉग पसंद आए. लेकिन फिल्म के जिस हिस्से ने सबसे ज्यादा मुझे प्रभावित किया या यह कहिए मुझे झकझोरा, वह था जिसमें अमिताभ बच्चन का बागबान की सफलता पर आयोजित समारोह के दौरान दिया गया सम्बोधन. मेरे हिसाब से वह लक्ष्यदार भाषण नहीं था, बल्कि यथार्थ का शब्द छाया था. मैं उसको यथार्थ के शब्द छाया के बजाय यथार्थ का शब्द प्रतिविम्ब भी कह सकता था. लेकिन वैसा मैं नहीं कर रहा हूँ. वह इस लिए की प्रतिविम्ब तो हूबहू होता है. जबकि बागबान में जो भी दर्शाया गया है वह हकीकत से काफी दूर है. जिस स्थिति में अभिताभ बच्चन और हेमा मालिनी उक्त फिल्म में है उनसे विकट परिस्थितियों में करोड़ों बुजुर्ग दम्पत्ति है. 
आज मेरे सामने एक बागबान दुहराया जा रहा है. एक बुजुर्ग दम्पत्ति है. उनके चार लड़के और एक बेटी है. मुझे याद आता है उन बुजुर्ग का वह चेहरा जब वह बुलंदी पर थे. चेहरा रोबदार था. माथा चौड़ा था. बड़ी-बड़ी आँखे थी. आवाज कड़क थी. चहरे से आत्म विश्वास साफ झलकता रहता था. चमचमाती धोती, चमचमाता कुर्ता और जैकेट पहन कर जब वे निकलते थे तो देखने वाले देखते ही रह जाते थे. ऐसा लगता था जैसा कोई राजकुमार आ रहा हो. तीन तीन चार चार नौकर चाकर. उनकी पत्नी ने कभी खाना नहीं बनाया होगा. लेकिन आज? उसकी थोड़ी सी भी झलक नहीं बची है. कृशकाय हो गए है. कुपोषण के शिकार है वे. उनके देखने से साफ झलकता है कि उन्हें ठीक से खाना नहीं मिल पा रहा है. 
उनकी पत्नी भी कभी हृष्ट पुष्ट थी. रानी की तरह वह भी रहती थी. घर का कोई भी काम उन्हें नहीं करना पड़ता था. दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे. आज उनकी स्थिति बहुत दयनीय है. दयनीय क्यों हैं, मैं उसका जिक्र नहीं करना चाहता. राजा से रंक कैसे बने, इस पर चर्चा करने का यह समय नहीं है. बुजुर्ग दम्पत्ति गाँव पर ही रहता है. उनके बेटे अपनी बीबी-बच्चों के साथ बाहर रहते है. जब तक हाथ पैर काम करते थे, तब तक कोई समस्या नहीं होती थी. यदि रात में उनके प्राण पखेरु उड़ जाय तो किसी को पता भी नहीं चलेगा.
आज उनके सामने सबसे बड़ी समस्या है कि उनके लिए खाना कौन बनाएगा. बूढ़ी महिला प्राय: हमेशा बीमार रहती है. जिस दिन वह ठीक रहती है तो खाना बनता है अन्यथा नहीं. आज भी बुजुर्ग महिला दीपक की रोशनी में लकड़ी पर खाना बनाती है. मैले कुचैले कपड़े पहनने के लिए वह विवश है. कौन पानी भरेगा? हैंड पम्प भी उनसे नहीं चल पाता. पड़ोस में एक घर है, उससे उनको मदद मिल जाती है जिसकी वजह वे अभी तक ज़िंदा है. लेकिन पड़ोस का परिवार भी उनकी मदद कब तक कर पाएगा? पड़ोस का परिवार भी किसी न किसी समस्या से परेशान रहता है. ऐसी स्थिति में कब तक उनसे मदद मिलती रहेगी? 
पास के गाँव में उनकी लड़की रहती है. उसका भी अपना भरा पूरा परिवार है. कभी कभी वह अपनी माँ को देखने के लिए आती है लेकिन वह ठहरती नहीं है. उसी दिन चली जाती है.
मुझे पता चला कि बुजुर्ग दम्पत्ति के एक बेटे ने प्रस्ताव रखा है कि माँ बाबू जी में से किसी एक को वह अपने साथ रख सकता है. मतलब यह है कि यदि वह अपनी माँ को अपने पास रखता है तो उसके पिता किसी दूसरे भाई के पास रहेंगे. बुढ़ापे में – पति पत्नी अलग अलग ! 
कहा जा सकता है कि पति को पत्नी की और पत्नी को पति की बुढ़ापे में सबसे अधिक जरूरत रहती. बुढ़ापे में पति पत्नी आपस मे दोस्त बन जाते है. जब उन्हें हँसना होता है तो वे बीते दिनों की स्मृतियाँ याद करके हँस लेते है. वो शरारतें जो उन्होंने कभी आपस में की थी याद आने लगती है तो वे अपनी अवस्था को भूल जाते है और बीते दिनों के सपनों में खो जाते है. उन्हें सुनने वाला कोई दूसरा नहीं मिलता. वे एक दूसरे को ही सुनते हैं और सुनाते है. अत: यदि पति पत्नी को बुढ़ापे में एक दूसरे से अलग रहना पड़े तो उनकी पीड़ा का अनुमान लगाना मुश्किल है. ऐसे बुजुर्गों को सिर्फ अपनी उदर पूर्ति के लिए अलग रहना पड़ता है. एक तरफ उनके लड़के अपनी बीबी-बच्चों के साथ ठहाका लगाते है, और दूसरी तरफ उसी घर के कोने में एक बुजुर्ग के रूप में एक ज़िंदा लाश रहती है जिसका मुँह सिर्फ खाना खाने के समय खुलता है और दिन भर बंद रहता है. क्या यही है विकास? लानत है ऐसे विकास पर जिसमे व्यक्ति का अंत ही बुरा हो. 
मैं समझता हूँ कि बुजुर्गों के साथ अत्याचार उस देश में हो रहा है जिस देश ने स्वामी विवेकानंद जी के माध्यम से पूरे विश्व को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होने संदेश दिया था. हमारे देश के बुद्धि जीवियों, राजनेताओं, मानवाधिकर की बात करने वालों को जाति और धर्म के नाम पर वर्गीकृत कमजोर वर्गों की चिंता तो है लेकिन असख्य निरीह, बेजुबान, अशक्त बुजुर्गों की फिक्र नहीं है. आखिर क्यों? बुजुर्गों को क्यों सजा मिल रही है? क्या अपराध है उनका? क्या निरपराध बुजुर्गों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करने वाले अपराधी नहीं है? क्या बुजुर्गों को घुटन भरी ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर करना मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं है? क्या यह समाज बुजुर्ग को बोझ समझता है और जल्द से जल्द उनसे छुट्टी पाना चाहता है? यदि ऐसा नहीं है तो बुजुर्गों की चिंता कोई नेता, कोई अभिनेता, समाजसेवी, बुद्धीजीवी, धरमाचार्य, मानवाधिकार की बात कराने वाला क्यों नहीं करता? 
मित्रों, मैं इस बात से अवगत हूँ कि मेरी बातों से बहुत से लोग असहमत होंगे. मेरे कुछ मित्र यह भी कह सकते है कि बुजुर्गों की जिस दशा का वर्णन क्या है वैसी स्थिति नहीं है. इस सम्बंध में सिर्फ यह कह सकता हूँ कि जो कुछ मैंने देखा है और महसूस किया है उसके आधार पर मैंने यह जिक्र किया है. 
मित्रों हम सभी अपनी आँखों पर पट्टी बाँधे आराम से बैठे हुए है. जब वर्षा होगी तो देखा जाएगा! पानी की बूदों के साथ साथ छुपने के लिए छत भी आ जाएगी! जब आग लगेगी तो कुँआ खोदने के बारे में सोचेंगे! लेकिन मित्रों एक कहावत है कि अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत. इस लिए मेरा अनुरोध है कि हम यह न सोचें कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. हम ऐसे ब्रेकर के बारे में विचार करें जो बुजुर्गों को तेजी से गर्त में जाने से रोके, उनको असमय काल का ग्रास बनने से रोके. 
अंत में उन सभी लोगों से क्षमा माँगता हूँ जिनको मेरी बातों से ठेस पहुँची हो.

Sunday 26 June 2016

नोएडा Vs बलिया

नोएडा Vs बलिया: दोनों में कितना फर्क है? एक यूरोप है तो दूसरा अफ्रीका. आखिर क्यों? नोएडा को देख कर लगता ही नही की वह उत्तर प्रदेश का का अंग हैं. ज़मीन आसमान का फर्क है दोनों में. 
दोनों जनपदों को मैं करीब से देख रहा हूँ. कमोवेश बलिया के आसपास के जनपदों की वही स्थिति है जो बलिया की है.
राज्यों के बीच संसाधनों का आबंटन केन्द्र सरकार के अधीन और जनपदों के अंदर संसाधनों का आबंटन राज्य सरकार करती है. इसके अतिरिक्त केन्द्र सरकार जो योजनाए बनाती हैं उसका क्रियान्वयन राज्य सरकार करती.
कहा जा सकता हैं कि नोएडा और बलिया में आज जो ज़मीन आसमान का फर्क है उसका मुख्य कारण अब तक की जो सरकारे रही है, उनका बलिया और आसपास के इलाकों के साथ सौतेला व्यवहार रहा है.
उत्तर प्रदेश में 2017 में चुनाव होने जा रहा है. मेरे प्रिय जनपद बलिया के मित्रों , आपसे मेरा अनुरोध हैं कि जाति वर्ग और धर्म के दायरे से बाहर निकल उन लोगों से यह सवाल अवश्य पूछे जो आपके पास वोट माँगने आते हैं. पूछे उनसे कि उनकी पार्टी की सरकारों ने ऐसा भेद भाव क्यों क्या ? पूछिए उनसे कि आजादी के साठ साल बीत जाने के बावजूद भी बलिया में आधार भूत ढाँचे का विकास क्यों नहीं हुआ ? राजनीतिक रूप से सचेत बलिया में भौतिक संसाधनों का अभाव क्यों है. बौद्धिक रूप से सशक्त बलिया की दुर्दशा क्या बलिया के छुटभैये नेताओ की वजह से नहीं हुई है जिनका लक्ष्य दलाली मात्र है. मित्रों यदि आपने समय रहते इस पर विचार नहीं किया तो हमारी संतति हमें माफ नही करेगी. जय बलिया ! जय हिंद !

Saturday 25 June 2016

"बुलंद बलिया"

"बुलंद बलिया" के नाम से काफी पहले मैंने एक पेज बनाया था. उस पेज पर बलिया के बारे में और बलिया की एक बहुत बड़ी समस्या के बारे में लिखा था. कुछ लोगों ने उसे पढ़ा भी. उस पोस्ट में बलिया के बारे में मैंने जो तथ्य दिये थे उनको बार बार दुहराने की ज़रूरत है ताकि बलिया की ज़मीन से जुड़ा हुआ हर व्यक्ति बलिया पर गर्व कर सके.
मैंने उक्त पोस्ट में इस बात का भी जिक्र किया था मैंने " बुलंद बलिया " शीर्षक क्यों चुना. मैंने लिखा है कि बलिया के प्राचीन इतिहास पर गौर करने पर स्वत: परिलक्षित होता है कि बलिया बुलंद था.
मै यहाँ पर ईमानदारी के साथ स्वीकार करता हूँ कि मैंने बलिया पर कोई प्रामाणिक किताब नहीं पढी है. मेरी जानकारी दैनिक जागरण में नॉर्थ ईस्ट रेलवे द्वारा प्रदत्त विज्ञापन पर आधारित है. दुर्भाग्य से मुझे तिथि याद नहीं हैं. मुझे लगता है कि यह 2004 की बात हैं.
उस विज्ञापन के माध्यम से उत्तर प्रदेश में पर्यटन हेतु कौन कौन शहर हैं उनकी जानकारी उपलब्ध करायी थी. उसमे बलिया के अलावा उत्तर प्रदेश के सभी प्रमुख शहरों और स्थानों की विशेषताओं के बारे में जानकारी दी गई थी. ध्यान देने वाली बात यह है कि विज्ञापन में बलिया को सबसे अधिक स्थान दिया गया था. उस विज्ञापन मे बलिया के बारे मे दो जानकारी दी गई थी उनका क्रमशः विवरण निम्नलिखित हैं :
1. बलिया ऋषि मुनियों की साधाना स्थली रहा है.
2. बलिया भृगु मुनि की तपोस्थली थी.
3. बलिया का मनियर गा भगवान परशुराम का जम स्थान हैं.
4. ब्रह्मा जी का निवास स्थान ब्रह्माईन में था जो बलिया मे हैं.
5. राम चंद्र जी के पुत्र कुश की जन्म स्थली बलिया का कुसौरा गाँव हैं.
6. बलिया के सीतकुंड मे सीता जी नहाया करती थी.
7. व्यास मुनि जिन्होंने महाभारत की रचना की का जन्म स्थान बलिया का बाँस थाना था.
8. ऋषि दुर्वासा की तपो स्थली बलिया का दुबहर गाँव था.
9. बलिया का परसिया गाँव पराशर मुनि का साधना स्थल था .
10. ऋषि वाल्मीकि जिन्होंने ने रामायण की रचना की का कार्य क्षेत्र बलिया का बहुआरा गाँव था.
11. सम्राट सहसार्जुन की राजधानी बलिया के खैरा गढ़ में थी.
12. बलिया शहर राजा बली की राजधानी था. 

Ek ghazal

व्हाट्सेप के माध्यम से निम्न ग़ज़ल मेरे पास आई थी. इस ग़ज़ल के माध्यम से जो संदेश दिया गया है वह वास्तव में सामयिक है. बस मै इतना अवश्य जोड़ना चाहूँगा कि बहुत कम लड़के ऐसे होते है जो अपनी माँ के दर्द को महसूस नही करते. अधिकांश लड़के अपनी माँ की दुर्दशा देख कर आहत होते हैं. मगर वे इस कदर मजबूर होते हैं कि अपनी माँ की दुर्दशा पर आह भी नहीं कर सकते. लडको को कौन मज़बूर करता है इसका उत्तर इस अवसर पर देना समीचन नहीं होगा. निम्न ग़ज़ल को मैं इस लिए प्रेषित कर रहा हूँ कि हम सब जागे दूसरे को भी जगाए. कृपया ग़ज़ल को पढ़े
शख्सियत ए 'लख्ते-जिगर' कहला न सका ।
जन्नत के धनी "पैर" कभी सहला न सका । 😭
दुध पिलाया उसने छाती से निचोड़कर
मैं 'निकम्मा, कभी 1 ग्लास पानी पिला न सका । 😭
बुढापे का "सहारा,, हूँ 'अहसास' दिला न सका
पेट पर सुलाने वाली को 'मखमल, पर सुला न सका । 😭
वो 'भूखी, सो गई 'बहू, के 'डर, से एकबार मांगकर
मैं "सुकुन,, के 'दो, निवाले उसे खिला न सका । 😭
नजरें उन 'बुढी, "आंखों से कभी मिला न सका ।
वो 'दर्द, सहती रही में खटिया पर तिलमिला न सका । 😔
जो हर "जीवनभर" 'ममता, के रंग पहनाती रही मुझे
उसे "ईद/होली" पर दो 'जोड़ी, कपडे सिला न सका । 😭
"बिमार बिस्तर से उसे 'शिफा, दिला न सका ।
'खर्च के डर से उसे बड़े अस्पताल, ले जा न सका । 😔
"माँ" के बेटा कहकर 'दम,तौडने बाद से अब तक सोच रहा हूँ,
'दवाई, इतनी भी "महंगी,, न थी के मैं ला ना सका । 😭

Sunday 12 June 2016

Hindutva - Brief Definition

To 

The supporters and opponents of Hindutwa and also to the people who claim to be seclurasts.
Hindutwa is a 'Dharm' and not a religion. Hindutwa, a Dharm, is as diverse as the nature is. I am afraid, this cannot be said about a religion. The word ' religion' has its origin in Europe. The system for which the word 'religion' is used is altogether different from the Hindutwa system. So please do not ser the system of Hindutwa from the prism of the concept of relgion. 

Thanks

Saturday 11 June 2016

लक्ष्मण रेखा - The Borderline

अश्लीलता , आखिर है क्या ? कौन देगा इसका जवाब ? फिल्म जगत या एलेक्ट्रॉनिक मिडिया जिनका काम सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना है, राजनीतिक गण जिनका काम येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करना है, स्वछंद प्रकृति के लेखक जिनके लिये अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ही सब कुछ हैं, वकील या न्यायपालिका जिनका काम सिर्फ कानून की व्याख्या करना है ? मैं समझता हूँ कि एक स्वस्थ समाज के लिये हर मामले मॆं एक लक्ष्मण रेखा होती है. यदि समाज का कोई अवयव उस लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन करता है तो वह समाज को कमजोर करता है. सवाल यह है कि कौन बताएगा हमें कि आखिर वह लक्ष्मण रेखा कौन सी है ? समाज के ऊपरि वर्णित अवयवों के पास इसका सरल जवाब है. जवाब यह है कि हमारे संविधान में और देश के कानून मे जो प्रतिबंध है वही लक्ष्मण रेखा है. ऊपरि वर्णित अवयवों के अनुसार संविधान और देश के कानून में व्यक्ति को अभिव्यक्ति की आजादी दी गई है अतः व्यक्ति अपने व्यक्तिगत आनंद के लिऐ कुछ भी करने के लिऐ आजाद है. उसको इससे कोई लेना देना नहीँ है कि उसकी आजादी का दूसरे पर क्या पड़ रहा है. उदाहरण स्वरूप यदि दो पडोसियो मे से एक के घर में मातम है और दूसरा पडोसी अपने घर मे तेज म्यूज़िक पर डाँस कर सकता है तो संविधान और कानून में इसके लिऐ कहीं रोक टोक नहीं है. मुझे लगता है कि यह एक स्वस्थ समाज की निशानी नहीं है. दूसरे शव्दो में कहा जा सकता है कि मात्र संविधान के अनुसार आचरण करके और कानून का पालन करके एक स्वस्थ समाज का निर्माण नहीं हो सकता. उसके लिऐ मानवीय संवेदनाओं का विकास होना आवश्यक है.
कंगना रानौट द्वारा उड़ता पंजाब पर व्यक्त किए गये विचार ने मुझे ऊपरोक्त टिप्पणी करने के लिऐ विवश किया. उनके अनुसार ब्रा का प्रदर्शन करने में कोई अश्लीलता नहीं है. मुझे लगता है कि फिल्म जगत एक मायावी दुनियाँ में सोता है और जागता है. उसके लिये समाज का मतलब एक व्यक्ति केंद्रित भीड़ है. उसके लिऐ समाज का मतलब मात्र एक मेला है. फिल्म जगत की रचनात्मकता समाज के लिऐ नहीँ बल्कि व्यक्ति के लिऐ है. उसके लिऐ दर्शक का मतलब परिवार नहीँ बल्कि व्यक्ति है. ऐसी फिल्में और धारावाहिक हमारे सामने परोसे जाते है कि हम अपनी बेटी, बहन, माँ, और बच्चों के साथ नहीं देख सकते. और यह सब अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर होता है. हो सकता है कि मेरा सोचना गलत हो मगर मुझे लगता है कि संविधान और कानून के होते हुए और शिक्षित लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी के बावजूद भी समाज में दिनो दिन अव्यवस्था फैल रही है. उसका कारण यही है कि सामाजिक मूल्यों के विकास के बारे में किसी को सोचने की ज़रूरत ही नही है. क्या कंगना रानौत भारतीय समाज की प्रतिबिम्ब है? मैं समझता हूँ कि उन्होंने भारत को देखा ही नही होगा या देखा भी होगा तो अपने व्यवसाय के हक में सामाजिक मूल्यों को जान बूझ कर तिलाँजली दे दी होगी.अंत में यही कहना है कि लक्ष्मण रेखा का निर्धारण व्यक्ति को ध्यान में रख कर नहीं बल्कि परिवार और समाज को ध्यान में रख कर होना.