सत्तर साल आज़ादी के: हमने क्या पाया क्या खोया? कौन जीता औऱ कौन हारा? सवाल यह भी है कि हमारी आज़ादी का स्वरूप क्या है ?
कल पंद्रह अगस्त है. आज़ादी की सत्तरहवी वर्षगांठ है कल. हर वर्ष की तरह कल भी हम पुरानी लीक पर चलेंगे. कल के बाद हम उसी ढर्रे पर वापस आ जाएंगे जिस ढर्रे पर हम चल रहें है. हम इस बात पर शायद ही विचार करें कि गत सत्तर सालों में हमारा भारत किस हद तक स्वस्थ हुआ है औऱ किस हद तक अस्वस्थ. अत : आज़ादी की सत्तरहवी वर्ष गाँठ की पूर्व तिथि को मैं इसका आकलन करने की कोशिश कर रहा हूँ.
सबसे पहले मै आज़ादी के स्वरूप पर दृष्टिपात कर रहा हूँ. यदि हम 15 अगस्त 1947 के पहले के भारत के स्वरूप पर गौर करेंगे तो हम पाएंगे कि हम भौतिक रूप से ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी गुलाम थे. हम अपनी पहचान खो चुके थे. दिन लोगों ने हमारे देश पर कब्जा कर रखा था उनकी सोच ही हमारी सोच बन गयी थी. हमारे देश में जो अभिजात्य वर्ग था उसकी वेषभूषा, रहन सहन, खान पान , भाषा इत्यादि बिल्कुल तत्कालीन विदेशी शासकों के नक्सल थे. उस नक़ल की वजह से वे विदेशियों के दरबार में सम्मान पाते थे. उन्हीं लोगों के माध्यम से विदेशियों का हित साधा जाता है. सवाल यह है कि आज़ादी के बाद क्या उक्त सोच से देश को निजात मिल गयीं ? मेरे हिसाब से नहीं. उस सोच में कमी नही बल्कि वृद्धि ही हुई. आज़ भी हमारे ऊपर पाश्तात्य संस्कृति औऱ सोच का भूत सवार है. अत: मेरा यह मानना है कि आज भी हमारे देश को विदेशी सोच औऱ विदेशी संस्कृति से आज़ादी का इंतज़ार है. हम कह सकते कि हमारे देश की आज़ादी का स्वरूप भौतिक है न कि मानसिक औऱ सांस्कृतिक.
दूसरा सवाल यह है कि हमने क्या पाया औऱ क्या खोया. आज़ादी के बाद हमने पाया, कम खोया अधिक. आज़ादी के बाद जो हमें ऊर्जा मिली उस ऊर्जा को हमने देश को मज़बूत बनाने में नहीं बल्कि कमज़ोर करने में किया. गांधी औऱ पटेल जैसा लोक नायक हमें जय प्रकाश में मिला था. ये तीनों किसी खास वर्ग के नायक नहीं थे. उनकी सोच के दायरे में सभी लोग आते थे. दुर्भाग्य से आज़ तीनों हाशिए पर है. इन लोगों पर
खाश तबके औऱ क्षेत्र का प्रतिनिधीत्व करने वाले औऱ संकीर्ण सोच वाले लोग हावी हो गए. बड़ी मेहनत औऱ सूझ बूझ से पटेल ने इस देश को एक अखंड स्वरूप दिया था. आज़ उस स्वरूप को ख़तरा नज़र आ रहा है. खतरा बाहर से वहीं अन्दर से है. जाति धर्म औऱ क्षेत्र की संकीर्णता कैंसर का रूप लेती जा रहीं है. यह सब देख कर गाँधी, पटेल औऱ जयप्रकाश की आत्मा कराह रहीं होगी.निष्कर्ष यह है कि आज़ हमने लोक नायकों को कहो दिया है. एक आदमी है जो जूझ रहा है देश को समस्याओं के दलदल से बाहर निकालने के लिऐ. लेकिन उसकी जितनी टांग खींची जा रहीं है वैसी टाँग खिचायी आज़ादी के लोक नायको की भी नहीँ हुई थी.
अब सवाल यह है कि आज़ादी के सत्तर सालों में कौन हारा कौन जीता? इसका उत्तर स्पष्ट है. स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है कि सम्यक सोच औऱ दृष्टि वाले हार गये है. जो लोग इस देश में जाति, वर्ग , धर्म, क्षेत्र औऱ भाषा की राजनीति करते है वे जीत गये है.
निष्कर्ष यह है कि हमने सत्तर सालों में आज़ादी के शहीदों के अरमानो को कुचल दिया है. देश को तोड़ने की बात करने वाले लोग देश में समर्थन पास रहें है. देश की एकता औऱ अखंडता की बात करने वाले लोगों का मजाक उडाया जा रहा है.
उक्त बातों के मद्देनज़र मै अपने मित्रों का एतद्द्वारा आह्वान कर रहा हूँ कि हमने जो सत्तर साल में खोया उन्हें पुनः प्राप्त करने के किए आगे बढ़े.
कल पंद्रह अगस्त है. आज़ादी की सत्तरहवी वर्षगांठ है कल. हर वर्ष की तरह कल भी हम पुरानी लीक पर चलेंगे. कल के बाद हम उसी ढर्रे पर वापस आ जाएंगे जिस ढर्रे पर हम चल रहें है. हम इस बात पर शायद ही विचार करें कि गत सत्तर सालों में हमारा भारत किस हद तक स्वस्थ हुआ है औऱ किस हद तक अस्वस्थ. अत : आज़ादी की सत्तरहवी वर्ष गाँठ की पूर्व तिथि को मैं इसका आकलन करने की कोशिश कर रहा हूँ.
सबसे पहले मै आज़ादी के स्वरूप पर दृष्टिपात कर रहा हूँ. यदि हम 15 अगस्त 1947 के पहले के भारत के स्वरूप पर गौर करेंगे तो हम पाएंगे कि हम भौतिक रूप से ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी गुलाम थे. हम अपनी पहचान खो चुके थे. दिन लोगों ने हमारे देश पर कब्जा कर रखा था उनकी सोच ही हमारी सोच बन गयी थी. हमारे देश में जो अभिजात्य वर्ग था उसकी वेषभूषा, रहन सहन, खान पान , भाषा इत्यादि बिल्कुल तत्कालीन विदेशी शासकों के नक्सल थे. उस नक़ल की वजह से वे विदेशियों के दरबार में सम्मान पाते थे. उन्हीं लोगों के माध्यम से विदेशियों का हित साधा जाता है. सवाल यह है कि आज़ादी के बाद क्या उक्त सोच से देश को निजात मिल गयीं ? मेरे हिसाब से नहीं. उस सोच में कमी नही बल्कि वृद्धि ही हुई. आज़ भी हमारे ऊपर पाश्तात्य संस्कृति औऱ सोच का भूत सवार है. अत: मेरा यह मानना है कि आज भी हमारे देश को विदेशी सोच औऱ विदेशी संस्कृति से आज़ादी का इंतज़ार है. हम कह सकते कि हमारे देश की आज़ादी का स्वरूप भौतिक है न कि मानसिक औऱ सांस्कृतिक.
दूसरा सवाल यह है कि हमने क्या पाया औऱ क्या खोया. आज़ादी के बाद हमने पाया, कम खोया अधिक. आज़ादी के बाद जो हमें ऊर्जा मिली उस ऊर्जा को हमने देश को मज़बूत बनाने में नहीं बल्कि कमज़ोर करने में किया. गांधी औऱ पटेल जैसा लोक नायक हमें जय प्रकाश में मिला था. ये तीनों किसी खास वर्ग के नायक नहीं थे. उनकी सोच के दायरे में सभी लोग आते थे. दुर्भाग्य से आज़ तीनों हाशिए पर है. इन लोगों पर
खाश तबके औऱ क्षेत्र का प्रतिनिधीत्व करने वाले औऱ संकीर्ण सोच वाले लोग हावी हो गए. बड़ी मेहनत औऱ सूझ बूझ से पटेल ने इस देश को एक अखंड स्वरूप दिया था. आज़ उस स्वरूप को ख़तरा नज़र आ रहा है. खतरा बाहर से वहीं अन्दर से है. जाति धर्म औऱ क्षेत्र की संकीर्णता कैंसर का रूप लेती जा रहीं है. यह सब देख कर गाँधी, पटेल औऱ जयप्रकाश की आत्मा कराह रहीं होगी.निष्कर्ष यह है कि आज़ हमने लोक नायकों को कहो दिया है. एक आदमी है जो जूझ रहा है देश को समस्याओं के दलदल से बाहर निकालने के लिऐ. लेकिन उसकी जितनी टांग खींची जा रहीं है वैसी टाँग खिचायी आज़ादी के लोक नायको की भी नहीँ हुई थी.
अब सवाल यह है कि आज़ादी के सत्तर सालों में कौन हारा कौन जीता? इसका उत्तर स्पष्ट है. स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है कि सम्यक सोच औऱ दृष्टि वाले हार गये है. जो लोग इस देश में जाति, वर्ग , धर्म, क्षेत्र औऱ भाषा की राजनीति करते है वे जीत गये है.
निष्कर्ष यह है कि हमने सत्तर सालों में आज़ादी के शहीदों के अरमानो को कुचल दिया है. देश को तोड़ने की बात करने वाले लोग देश में समर्थन पास रहें है. देश की एकता औऱ अखंडता की बात करने वाले लोगों का मजाक उडाया जा रहा है.
उक्त बातों के मद्देनज़र मै अपने मित्रों का एतद्द्वारा आह्वान कर रहा हूँ कि हमने जो सत्तर साल में खोया उन्हें पुनः प्राप्त करने के किए आगे बढ़े.
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