मनोविज्ञान, परम्परा, प्रचलन और कर्मकांड कांड का: भाग-1 में मैंने लिखा है कि गाँव पर जब शव यात्रा शुरू होती थी तो ‘राम नाम सत्य’ और घंटे की ध्वनि के साथ होती थी. शायद आज भी ऐसा होता है. मैंने लिखा है कि उक्त प्रचलन, परम्परा या कर्मकांड का क्या आखिर उद्देश्य था? मैंने यह भी लिखा है कि इस पर मैंने कोई शोध नहीं किया है. इस लिए मैं जो कुछ लिखने जा रहा हूँ, वह मूल रूप से मेरी समझ पर आधारित है.
गाँव के लोग देश के कानून से परिचित नहीं थे. उन्हें कानून का उतना भय नहीं था जितना कि लोक लाज और समाज का था. सामाजिक वहिस्कार से सभी लोग डरते थे. इसी लिए सामाजिक बहिस्कार के भय से कोई गलत करने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी. समाज का भय इतना अधिक था कि हत्या जैसे जघन्य अपराध से लोग घबराते थे. गाँव का हर व्यक्ति एक दूसरे से जुड़ा होता है. गाँव में रह कर कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे की आँख में धूल नहीं झोक सकता था. पूरा गाँव एक धागे में पिरोया हुआ था. कुछ अपराध तो क्षम्य थे लेकिन हत्या जैसे संगीन अपराध तो बिल्कुल क्षम्य नहीं थे. इस लिए यदि किसी के घर में मौत हो जाती थी तो लोग बड़ी जल्दी इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते थे कि वह मौत स्वाभाविक है या हत्या है. यदि लोगों को शक हो जाता था कि मृत्यु स्वाभाविक नहीं बल्कि हत्या का परिणाम थी तो गाँव के लोग उस परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर देते थे जिसके घर मौत हुई थी. कोई भी आदमी शव को कंधा देने नही आता था. शव यात्रा में कोई भाग नहीं लेता था. कोई भी आदमी उस घर का पानी नहीं पीता था. वह घर गाँव में बिल्कुल अलग थलग पड़ जाता था. यदि किसी का अंतिम संस्कार चुपचाप कर दिया था तो वह भी शक के घेरे में आ जाता था. ऐसी स्थिति न आए इस लिए ऐसी परम्परा डाल दी गई कि जब शव यात्रा शुरू होगी तो उसकी घोषणा कर दी जाएगी. घोषणा का सबसे उत्तम तरीका यही था कि शव को कंधा देने वाले और शव यात्रा में भाग लेने वाले जोर जोर से ‘राम नाम सत्य है’ की ध्वनि निकालें और घंटा बजाते हुए चले. इससे क्या होता था कि जिन लोगों को शव यात्रा में भाग लेना होता था वे आगे पीछे उस यात्रा में शामिल हो जाते थे या वहाँ पर पहुँच जाते थे जहाँ पर अंतिम संस्कार होता था. शव यात्रा में यदि अधिक से अधिक लोगों भाग लेते थे तो जिस आदमी का प्रिय बिछुड़ गया होता था उसे लगता था कि उससे पूरे गाँव की सहानुभूति है. दु:ख की घड़ी में वह अकेला नहीं है. उसके घर वाले ही नहीं बल्कि पूरा गाँव या कम से कम उसकी विरादरी उसके साथ है. यह सब देख कर उसको अपने प्रिय के खोने का गम कुछ हद कम हो जाता था. उसका मानसिक कष्ट बहुत हद तक कम हो जाता था. उसके स्वास्थ्य पर सकारात्मक मनो वैज्ञानिक असर पड़ता था.
अंतिम संस्कार कौन करता था? जो दिवंगत व्यक्ति का सबसे करीबी होता था वह करता था. यदि दिवंगत व्यक्ति महिला थी और उसका पति जीवित था तो अंतिम संस्कार उसका पति करता था. यदि उसका पति नहीं था या था भी तो वह तपस्या पूरी करने में सक्षम नहीं था तो उसका ज्येष्ट पुत्र अंतिम संस्कार करता था. मतलब यह है कि हर सम्भव कोशिश यही होती थी कि दिवंगत व्यक्ति का संस्कार उसके सबसे नजदीकी व्यक्ति के हाथों सम्पन्न हो और सभी नजदीकी लोगों की उपस्थिति में हो. ऐसा किसी कानून में नही था. लेकिन एक स्वस्थ परम्परा थी. अंतिम संस्कार मुखाग्नि से सम्पन्न होती है.
स्वाभाविक है कि शव यात्रा से लौटने के बाद सभी लोग अपने अपने घर चले जाते हैं. उसके बाद क्या होता है? उक्त सबसे अधिक प्रभावित व्यक्ति को उसके बाद भी अकेला नहीं छोड़ा जाता था. मुखाग्नि के बाद उसको ऐसे कर्मकांडों में बाँध दिया जाता है कि उसका पूरा का पूरा ध्यान कर्मकांड को सम्पन्न करने में ही लगा रहता है. मुखाग्नि के बाद वह अन्न नहीं खाता. उसको जमीन पर या लकड़ी की चौकी पर दरी बिछा कर सोता है. वह तब तक अन्न नहीं ग्रहण करता, जब तक कि दूसरा कर्म कांड सम्पन्न नहीं हो जाता.
सवाल यह है कि यदि वह अन्न नहीं ग्रहण कर रहा है और घर के बाकी सदस्य अन्न ग्रहण कर रहे हैं तो वह अपने आप को थोड़ा अलग थलग महसूस करेगा. उसको लगेगा कि अपने प्रिय जन को खोने का दु:ख सिर्फ उसको है परिवार के बाकी लोगों को नहीं. इस लिए उसका साथ देने के लिए पूरा का पूरा परिवार अन्न ग्रहण नही करता. परिवार ही नहीं, पूरा का पूरा खानदान अन्न नहीं ग्रहण करता. इस तरह वह व्यक्ति महसूस करता है कि उसका पूरा परिवार उसके साथ है और परिवार पहसूस करता है उसका पूरा खानदान उसके साथ. इसका उस व्यक्ति और उस व्यक्ति के परिवार पर स्कारात्मक मनो वैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है. इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव कैसे पड़ता है मैं एतद्द्वारा व्यक्त करने की कोशिश कर रहा हूँ.
मान लीजिए कि आप को बहुत भूख लगी है. इतनी भूख लगी है कि भूख आपसे सहन नहीं हो रही है. उसी समय यदि कोई आ जाय और आपके बगल मैं बैठ कर खाना खाना शुरू कर दे तो भूख से जो आपको पीड़ा हो रही थी उस पीड़ा में कई गुना वृद्धि हो जाएगी. इसके विपरीत यदि उस व्यक्ति को पता है कि आप भूखे हैं और आपके पास आ कर कहता है कि जब तक आपको खाना नहीं मिल जाता तब तक मैं भी नहीं खाऊँगा तो आपके भूख की तीब्रता कम हो जाएगी. आपको लगेगा कि आप अकेले उस पीड़ा से व्यथित नहीं है बल्कि आपके साथ कोई और भी है. परिणाम स्वरूप आपका ध्यान आपकी पीड़ा से हट जाएगा. आपकी पीड़ा कुछ कम हो जाएगी. यही स्थिति उस व्यक्ति के साथ होती है जब उसके साथ उसका सारा का परिवार और खानदान उसी तरह का खाना खाता है जिस तरह का खाना वह व्यक्ति खाता है. उक्त प्रभावित व्यक्ति के साथ अन्न ग्रहण न कर पूरा खानदान यह संकेत देता है कि सभी उसके साथ हैं.
शुक्रवार की शाम को हमने भी अन्न ग्रहण नहीं किया. रात में आलू उबाल कर और उसमें सेंधा नमक डाल कर हमने खाया. मेरे बेटे और बहू ने भी सिर्फ फल खाए. इसके बाद का कर्म कांड क्या है उसके बारे में मैं अगले भाग अर्थात भाग-3 में प्रकाश डालूँगा.