Sunday, 31 July 2016

मनोविज्ञान, परम्परा, प्रचलन और कर्मकांड कांड का: भाग-2


मनोविज्ञान, परम्परा, प्रचलन और कर्मकांड कांड का: भाग-1 में मैंने लिखा है कि गाँव पर जब शव यात्रा शुरू होती थी तो ‘राम नाम सत्य’ और घंटे की ध्वनि के साथ होती थी. शायद आज भी ऐसा होता है. मैंने लिखा है कि उक्त प्रचलन, परम्परा या कर्मकांड का क्या आखिर उद्देश्य था? मैंने यह भी लिखा है कि इस पर मैंने कोई शोध नहीं किया है. इस लिए मैं जो कुछ लिखने जा रहा हूँ, वह मूल रूप से मेरी समझ पर आधारित है. 
गाँव के लोग देश के कानून से परिचित नहीं थे. उन्हें कानून का उतना भय नहीं था जितना कि लोक लाज और समाज का था. सामाजिक वहिस्कार से सभी लोग डरते थे. इसी लिए सामाजिक बहिस्कार के भय से कोई गलत करने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी. समाज का भय इतना अधिक था कि हत्या जैसे जघन्य अपराध से लोग घबराते थे. गाँव का हर व्यक्ति एक दूसरे से जुड़ा होता है. गाँव में रह कर कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे की आँख में धूल नहीं झोक सकता था. पूरा गाँव एक धागे में पिरोया हुआ था. कुछ अपराध तो क्षम्य थे लेकिन हत्या जैसे संगीन अपराध तो बिल्कुल क्षम्य नहीं थे. इस लिए यदि किसी के घर में मौत हो जाती थी तो लोग बड़ी जल्दी इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते थे कि वह मौत स्वाभाविक है या हत्या है. यदि लोगों को शक हो जाता था कि मृत्यु स्वाभाविक नहीं बल्कि हत्या का परिणाम थी तो गाँव के लोग उस परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर देते थे जिसके घर मौत हुई थी. कोई भी आदमी शव को कंधा देने नही आता था. शव यात्रा में कोई भाग नहीं लेता था. कोई भी आदमी उस घर का पानी नहीं पीता था. वह घर गाँव में बिल्कुल अलग थलग पड़ जाता था. यदि किसी का अंतिम संस्कार चुपचाप कर दिया था तो वह भी शक के घेरे में आ जाता था. ऐसी स्थिति न आए इस लिए ऐसी परम्परा डाल दी गई कि जब शव यात्रा शुरू होगी तो उसकी घोषणा कर दी जाएगी. घोषणा का सबसे उत्तम तरीका यही था कि शव को कंधा देने वाले और शव यात्रा में भाग लेने वाले जोर जोर से ‘राम नाम सत्य है’ की ध्वनि निकालें और घंटा बजाते हुए चले. इससे क्या होता था कि जिन लोगों को शव यात्रा में भाग लेना होता था वे आगे पीछे उस यात्रा में शामिल हो जाते थे या वहाँ पर पहुँच जाते थे जहाँ पर अंतिम संस्कार होता था. शव यात्रा में यदि अधिक से अधिक लोगों भाग लेते थे तो जिस आदमी का प्रिय बिछुड़ गया होता था उसे लगता था कि उससे पूरे गाँव की सहानुभूति है. दु:ख की घड़ी में वह अकेला नहीं है. उसके घर वाले ही नहीं बल्कि पूरा गाँव या कम से कम उसकी विरादरी उसके साथ है. यह सब देख कर उसको अपने प्रिय के खोने का गम कुछ हद कम हो जाता था. उसका मानसिक कष्ट बहुत हद तक कम हो जाता था. उसके स्वास्थ्य पर सकारात्मक मनो वैज्ञानिक असर पड़ता था. 
अंतिम संस्कार कौन करता था? जो दिवंगत व्यक्ति का सबसे करीबी होता था वह करता था. यदि दिवंगत व्यक्ति महिला थी और उसका पति जीवित था तो अंतिम संस्कार उसका पति करता था. यदि उसका पति नहीं था या था भी तो वह तपस्या पूरी करने में सक्षम नहीं था तो उसका ज्येष्ट पुत्र अंतिम संस्कार करता था. मतलब यह है कि हर सम्भव कोशिश यही होती थी कि दिवंगत व्यक्ति का संस्कार उसके सबसे नजदीकी व्यक्ति के हाथों सम्पन्न हो और सभी नजदीकी लोगों की उपस्थिति में हो. ऐसा किसी कानून में नही था. लेकिन एक स्वस्थ परम्परा थी. अंतिम संस्कार मुखाग्नि से सम्पन्न होती है. 
स्वाभाविक है कि शव यात्रा से लौटने के बाद सभी लोग अपने अपने घर चले जाते हैं. उसके बाद क्या होता है? उक्त सबसे अधिक प्रभावित व्यक्ति को उसके बाद भी अकेला नहीं छोड़ा जाता था. मुखाग्नि के बाद उसको ऐसे कर्मकांडों में बाँध दिया जाता है कि उसका पूरा का पूरा ध्यान कर्मकांड को सम्पन्न करने में ही लगा रहता है. मुखाग्नि के बाद वह अन्न नहीं खाता. उसको जमीन पर या लकड़ी की चौकी पर दरी बिछा कर सोता है. वह तब तक अन्न नहीं ग्रहण करता, जब तक कि दूसरा कर्म कांड सम्पन्न नहीं हो जाता. 
सवाल यह है कि यदि वह अन्न नहीं ग्रहण कर रहा है और घर के बाकी सदस्य अन्न ग्रहण कर रहे हैं तो वह अपने आप को थोड़ा अलग थलग महसूस करेगा. उसको लगेगा कि अपने प्रिय जन को खोने का दु:ख सिर्फ उसको है परिवार के बाकी लोगों को नहीं. इस लिए उसका साथ देने के लिए पूरा का पूरा परिवार अन्न ग्रहण नही करता. परिवार ही नहीं, पूरा का पूरा खानदान अन्न नहीं ग्रहण करता. इस तरह वह व्यक्ति महसूस करता है कि उसका पूरा परिवार उसके साथ है और परिवार पहसूस करता है उसका पूरा खानदान उसके साथ. इसका उस व्यक्ति और उस व्यक्ति के परिवार पर स्कारात्मक मनो वैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है. इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव कैसे पड़ता है मैं एतद्द्वारा व्यक्त करने की कोशिश कर रहा हूँ. 
मान लीजिए कि आप को बहुत भूख लगी है. इतनी भूख लगी है कि भूख आपसे सहन नहीं हो रही है. उसी समय यदि कोई आ जाय और आपके बगल मैं बैठ कर खाना खाना शुरू कर दे तो भूख से जो आपको पीड़ा हो रही थी उस पीड़ा में कई गुना वृद्धि हो जाएगी. इसके विपरीत यदि उस व्यक्ति को पता है कि आप भूखे हैं और आपके पास आ कर कहता है कि जब तक आपको खाना नहीं मिल जाता तब तक मैं भी नहीं खाऊँगा तो आपके भूख की तीब्रता कम हो जाएगी. आपको लगेगा कि आप अकेले उस पीड़ा से व्यथित नहीं है बल्कि आपके साथ कोई और भी है. परिणाम स्वरूप आपका ध्यान आपकी पीड़ा से हट जाएगा. आपकी पीड़ा कुछ कम हो जाएगी. यही स्थिति उस व्यक्ति के साथ होती है जब उसके साथ उसका सारा का परिवार और खानदान उसी तरह का खाना खाता है जिस तरह का खाना वह व्यक्ति खाता है. उक्त प्रभावित व्यक्ति के साथ अन्न ग्रहण न कर पूरा खानदान यह संकेत देता है कि सभी उसके साथ हैं. 
शुक्रवार की शाम को हमने भी अन्न ग्रहण नहीं किया. रात में आलू उबाल कर और उसमें सेंधा नमक डाल कर हमने खाया. मेरे बेटे और बहू ने भी सिर्फ फल खाए. इसके बाद का कर्म कांड क्या है उसके बारे में मैं अगले भाग अर्थात भाग-3 में प्रकाश डालूँगा.

मनोविज्ञान, परम्परा, प्रचलन और कर्मकांड कांड का: भाग-1


मुझे मालूम है कि इस शब्द से बहुत लोगों को चिढ़ है. चिढ़ क्यों हैं, इस पर मैं इस समय कुछ नहीं कहना चाहता. बस मैं इतना कहना चाहता हूँ, कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी लोग किसी न किसी रूप में कर्मकांड का उपयोग करते हैं. उन्हें अपने जैसे लोगों का कर्म कांड तो उचित लगता है, मगर दूसरे द्वारा किया गए कर्मकांड में उन्हें किसी तरह की सार्थकता नहीं दिखाई देती. 
मेरा यह मानना है कि कोई भी कर्मकांड अपनी उत्पत्ति के समय सार्थक रहा होगा. उसकी सार्थकता समय और स्थान के साथ खत्म हो जाती है. जैसे कि जो कर्म कांड कभी गावों में सम्पन्न होता था वह शहर के लिए आज के दिन सार्थक नहीं है. क्यों सार्थक नहीं? इसका जवाब भी संक्षेप में देना सम्भव नहीं है. इस लिए मैं उसका मैं इस अवसर पर जवाब नहीं देना चाहता. मेरा सिर्फ यह कहना है कि किसी भी कर्म कांड की सार्थकता पर विचार किए बिना आलोचना करने का हमें कोई अधिकार नहीं है. 
प्राय: सभी लोग जानते है कि अधिकांश कर्मकांडों की उत्पत्ति गाँवों में हुई थी. मेरा लालन पालन गाँव में हुआ है. मेरा शहरी जीवन अड़तीस वर्ष का है. मुझे शहर और गाँव का दोनों का विस्तृत अनुभव है. आज भी गाँव से मेरा सम्बंध बना हुआ है. इस लिए मैं कह सकता हूँ कि मेरे पास दोनों दृष्टि है गाँव की भी और शहर की भी. मैं यह भी कह सकता हूँ कि मेरी दृष्टि गाँव से शहर तक व्यापक है. मेरी ही नहीं बल्कि मेरी जैसे उन तमाम लोगों की दृष्टि गाँव से शहर तक व्यापक है जिनका लालन पालन गाँव में हुआ है मगर वे शहर में एक लम्बे समय से रह रहे हैं.
शुक्रवार को मेरे बहुत ही करीबी महिला का निधन हो गया. उनका निधन मोहन नगर में हुआ. वे 72 वर्ष की थी. कुछ दिनों पहले ही वे गाँव से अपने बेटे के यहाँ आई थी. मुझे जब सूचना मिली तो मैं गया. मैंने उनका अंतिम दर्शन करने के लिए उनके पार्थीव शरीर से वस्त्र हटाया. जब मैंने उनका चेहरा देखा तो मेरी आँखों में आँसू आ गये. यदि मैं उस दिन उन्हें नहीं दिखता तो मैं उनको भूल नहीं पाता. जब भी मैं गाँव जाता, मेरी नजरें उन्हें खोजती. लोग कहते कि जिसको मैं खोज रहा हूँ अब वे इस दुनियाँ में नहीं हैं, फिर भी मेरा दिल नहीं मानता. क्योंकि मेरे मन पर उनका जो अक्श था वह एक चलती फिरती महिला का था. वे नहीं मिलती तो मैं बेचैन रहता. लेकिन अब ऐसा नहीं होगा. मैं शाँत हो गया हूँ. मैंने उनके सदा के लिए खामोश चेहरे को अपनी आँखों देख लिया है. मेरी आँखों से आँसू बह चुके है. मनोविज्ञान के अनुसार आँसू गिर जाने के बाद मन हल्का हो जाता है. मेरी तरह जिन सगे सम्बंधियों ने उन्हें देखा और उनके आँसू निकल गए, वे भी कुछ हद तक सामान्य हो जाएंगे. समय समय पर आँसू निकलते रहेंगे सभी लोग सामन्य होते रहेंगे. 
आदमी के लिए व्यस्त रहना जरूरी है. अन्यथा तन्हाई में उसने जो पाया है उसको याद करके खुश कम होता है, जो खोया है उसको याद करके दु:खी बहुत होता है. किसी सागे सम्बंधी की मृत्यु के बाद जो कर्मकाँड किए जाते है उनकी सार्थकता मुझे यही पर नजर आती. किसी व्यक्ति के गुजर जाने पर उसका जो सबसे करीबी होता है उसी को सबसे ज्यादा दु:ख होता है. यदि वह खाली रहेगा तो उसने जिसको खोया है उसे भूल नहीं पाएगा. इसी लिए उसे ऐसे कर्मकाँडो में जकड़ दिया जाता है कि उसका ध्यान अपने दिवंगत करीबी के हट जाता है और कर्म काँड को सम्पन्न करने में लगा रहता है. लगभग दो हप्ते तक उसे तपस्वी का जीवन व्यतीत करना होता है. अपने करीबी की आत्मा की शाँति के लिए उसे कष्ट सहना उसे अच्छा लगता है. दो हप्ते बाद जब वह सामन्य जीवन चर्या आरम्भ कर देता है तो उसकी स्मृति में उसके दिवंगत करीबी की याद उसे कष्ट देती है उसके लिए की गई दो हप्ते की तपस्या उस कष्ट को कम कर देती है. कर्मकांड की सार्थकता मुझे उस समय नजर आई थी जब मेरी माँ और पिता जी के स्वर्गवास के उपरांत मुझे कठिन साधना से गुजरना पड़ा था. 
कावड़ियों की वजह से शव वाहन नहीं मिल पाने की वजह से हम लोगों को शव ले कर पैदल ही मोहन नगर से हिंडन आना पड़ा था. जिन चार लोगों ने शव को कंधे पर उठाया था उसमें उस महिला के तीन बेटे थे और मैं था. मैं और महिला का मझला बेटा आगे थे. आगे चल कर किसी रिश्तेदार ने मेरी जगह ले ली. उसके बाद मुझे मिट्टी का एक वर्तन जो किसी दूसरे के पास था मुझे दे दिया गया. उस बर्तन में अगरबत्ती जल रही थी. मैं उस को ले कर आगे आगे चलने लगा. मैं आगे आगे ‘राम नाम सत्य’, ‘राम नाम सत्य’ बोलता रहा. पीछे सभी लोग उसको दुहराते रहे. गाँव पर मैं देखता था कि लोग घन्टा भी बजाते थे. यदि किसी बहुत अधिक उम्र के बुजुर्ग का स्वर्गवास हो जाता था तो बंड़े धूम धाम से उनकी अर्थी निकाली जाती थी. आखिर इस प्रचलन, परम्परा या कर्मकांड का क्या उद्देश्य था. इस पर मैंने कोई शोध नहीं किया है. इस लिए मैं जो कुछ लिखने जा रहा हूँ, वह मूल रूप से मेरी समझ पर आधारित है. 
पोस्ट लम्बा न हो इस लिए इस समय मैं यहीं पर विराम लगा रहा हूँ. आगे जो पोस्ट मैं लिखूँगा उस में उक्त विषय पर विस्तार से विचार करने की कोशिश करूँगा.

Sunday, 24 July 2016

संकीर्णता

हम कहाँ जा रहे हैं ? जाएंगे कहाँ ? आज़ादी के पहले अंग्रेजों जो बीज बोया था वह आज पल्लवित और पुष्पित ही नहीं फलित भी हो रहा हैं. कौन था एह बीज? बीज था संकीर्णता का. बीज था क्षेत्र , धर्म और जाति के नाम की संकीर्णता का. मैं नाम तो नहीं लूँगा लेकिन इतना मैं कह सकता हूँ कि यह देश तीन अग्रणी नेताओं की राजनीतिक स्वार्थ और संकीर्णता का दंश आज भी झेल रहा. यह तो गाँधी का त्याग और पटेल का संकल्प था कि हमारे देश कई टुकडे नहीं हुए. उन्होंने अपनी सूझबूझ और दृढ़ निश्चय से देश को और टूटने से बचा लिया. मगर आज वे नहीं हैं. आज हम जिस दिशा मे जा रहे हैं उसकी परिणति क्या होगी उसका हमें अनुमान नही हैं. आजादी के बाद जिस तरह से रियासतों ने संकीर्णता का परिचय दिया था उसी तरह की संकीर्णता का परिचय आज क्षेत्रीय पार्टियाँ डे रहीं हैं. जिस तरह से रियासतों ने केन्द्र को ललकारा था उसी तरह से आज राज्य केन्द्र को ललकार रहे हैं. मुझे कहने मर संकोच नहीं कि हमारे दुश्मन देश भी चाहते हैं कि हम इतनी समस्याओं से घिर जाएं कि हम उन्हीं समस्यायों से जूझते रहे और हमें दुश्मन की गतिविधियों पर नज़र रखने का मौका ही न मिले. 

कहा जा सकता हैं कि क्षेत्रीय पार्टियाँ और मात्र कुछ जातियों की ही चिंता करने वाली पार्टियाँ दुश्मन देशों के लिए ऐसा महौल बना रहीं जिससे दुश्मन देशों का हित हमारे देश मे फूले फले. हमें सोचना पड़ेगा कि जब देश नही रहेगा तो राज्य नही रहेंगे. राज्य नहीं रहेंगे तो गाँव और शहर बिखर जाएंगे. जहाँ तक परिवार की बात हैं तो वह तो बिखर ही रहा हैं . इस लिए यही कहना समीचीन होगा कि यदि शहर और गाँव नहीं रहेंगे तो हम भी बिखर जाएंगे. इस लिए सबसे पहले हमें जाति धर्म और क्षेत्र की राजनीति करने वाले नेताओं से बचना होगा. बदकिस्मति से अपढ़ लोगों की अपेक्षा पढ़े लिखे लोग उक्त संकीर्णता के दलदल मे डूबे हैं.

Saturday, 23 July 2016

' आजादी ' के अर्थ

शब्द ' आजादी ' के आज कितने अर्थ है? हमने तो आजादी का एक मतलब समझा था. हमने यही समझा था कि आजादी का मतलब इस देश का अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त होना है. लेकिन आज ? आज बौद्धिक विलासिता के निमित्त आजादी शब्द पर ही अत्याचार हो रहा है. बौद्धिक विलासिता मे डूबे हुए तथा कथित बुद्धिजीवी आजादी शब्द पर इतना प्रहार कर रहे है कि इस पाक शब्द का मूल ही ख़त्म हो चुका है. कभी आर्थिक आजादी की बात कही जाती है तो कभी अभिव्यक्ति की आज़ादी. अरे भाई तुम्हारी आज़ादी का कौन हनन कर रहा है ? किससे तुम्हें आज़ादी चाहिए. लोक तंत्र मे यदि लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी हुई सरकार से - चाहे वह केन्द्र की सरकार हो किसी राज्य की -से आज़ादी माँग रहे हो तो तुम लोकतंत्र का अपमान कर रहे हो.
कुछ महीने पहले एक शक्स ने कश्मीर जो हमारे देश का अभिन्न अंग है उसकी आजादी के पक्ष नारा लगा रहा था या नारा लगाने वालों के साथ था उसको हीरो बना दिया गया. उसने स्पष्टीकरण दिया कि वह आर्थिक आज़ादी के लिए नारा लगाया था. उसको सहयोग मिला था कुतर्क करने वाले टीवी चैनलों और बुद्धि विलासिता मे लिप्त तथा कथित बुद्धिजीवियों से. अभी हाल मे ही एक व्यक्ति किसी विशेष संदर्भ एक शब्द का प्रयोग किया था. उस शब्द का प्रयोग गाँधीजी जी ने भी शराबियों के सम्बन्ध मे दिया था. उनका इशारा एक बुरी लत की तरफ़ था. शायद गाँधी जी आज होते और ऐसे शब्द का प्रयोग करते तो उनको भी लोग नहीं छोड़ते.
सबसे ज्यादा आजाद तो जानवर होता है. जंगल मे हर तरह की आज़ादी होती है. कोई भी जानवर अपने शरीर को नहीं ढंकता. कोई भी जानवर अपनी ईच्छा के अनुसार कही भी जा सकता है. किसी तरह का प्रतिबंध नही है किसी जानवर पर. कोई भी जानवर किसी कर्तव्य से बड़ा हुआ नहीँ है. प्रत्येक जानवर के पास असीमित अधिकार होता है. जब कि समाज मे ऐसा नहीं है. क्या आज़ादी की बात करने वाले उसी जंगल राज़ की तरफ़ समाज को नहीं धकेल रहे है. कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है. इस लिए मेरा तथाकथित बुद्धिजीवियों से नम्र निवेदन है कि वे अपनी अकूत बौद्धिक सम्पदा का इस्तेमाल समाज को बनाने मे करें इसी खब्डित करने मे नही.

Friday, 22 July 2016

अर्थ का अनर्थ.

मै एक बार नहीं कई बार अपना विचार व्यक्त कर चुका हूँ कि आजादी के सत्तर साल बाद भी लोक तंत्र के नाम पर लकीर पीट रहे है. सत्तर साल के बाद भी हम विवेक शील नहीँ हो पाये है. हमारे देष में लोक तंत्र यदि मजबूत हुआ है तो सिर्फ पत्रकारों, टीवी चैनलों , तथा कथित बुद्धिजीवियों के लिए है, जिनका काम बहस के नाम सिर्फ तिल का ताड़ बनाना, बाल की खाल निकालना और अर्थ का अनर्थ करना है. किसी शब्द का अर्थ हम तभी समझ सकते है जब हम उस प्रसंग को समझे जिसके अन्तर्गत उस शब्द का इश्तेमाल हुआ है. यदि हम प्रसंग को छोड़ देंगे तो हम भटक जाएंगे. जिन लोगों का मै ऊपर जिक्र कर चुका हूँ किसी शब्द पर चर्चा करते वक्त यह नहीं बताते कि उस शब्द का प्रयोग किसी तथ्य को व्यक्त करने के लिए हुआ है. दर असल आजादी के बाद जिस चीज़ का हमारे देश में लोक तंत्र की ज़मीन पर सबसे ज्यादा विकास हुआ है वह है नकारात्मकता. हमारे देश के राजनीतिज्ञों ने नकारात्मकता की खेती करने में प्रवीणता हासिल की है और उस खेती को खाद पानी तथा कथित बुद्धिजीवियों और टीवी चैनलों पर मुँह चुथौवल कर रहे पत्रकारों से मिलती है. ये लोग बुझ रही आग जो हवा देने का प्रयास करते है. जैसे ही कोई जख्म भरता है उस पर ये नमक मल का ताजा कर देते. अभी कुछ दिन पहले केर घटना है. एक स्कूल ने शायद चंद्र शेखर आजाद के नाम के साथ आतंकवादी शब्द का इस्तेमाल किया था. बस क्या था ? ऐसी हाय तौबा मचाई गई कि मत पूछिए. किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि क्या पोस्टर मे चंद्र शेखर आजाद को उसी तरह का आतंक वादी बताया गया था जिस तरह के आज के आतंकवादी है? क्या उक्त पोस्टर मे स्कूल ने चंद्र शेखर आजाद की भर्त्सना की थी ? शायद ऐसा नहीं था. ऐसी चीजो पर मै विशेष ध्यान नहीँ देता. सरसरी निगाह से ही ऐसी खबरों को मैं देखता हूँ. उक्त ख़बर को भी मैंने सरसरी तौर पर ही देखा था. उसमे चंद्र आजाद का गुडगान ही किया गया था. मेरी समझ से स्कूल की मंशा चंद्र शेखर आजाद को आज के आतंक वादियों की श्रेणी मे रखने का नहीं था. लेकिन बवाल मचाने वाले लोगों ने उसी अर्थ में लिया. उस स्कूल का कितना नुकसान हुआ. एक तरह भारत के टुकड़े टुकड़े करने का नारा लगाने वालों के साथी को हीरो बना दिया जाता है और दूसरी ओर एक स्कूल की फिसलन को इतना तूल डे दिया जाता है. क्या यही लोक तंत्र है ? क्या इसी को विवेक पूर्ण आचरण कहते है ? ऐसे लोक तंत्र को भीड़ तंत्र कहना अधिक समीचीन होगा. तथा कथित बुद्धिजीवी और टीवी चैनल अपने आचरण से लोक तंत्र को मजबूत नही बल्कि भीड़ को उकसा कर लोक तंत्र और समाज को खंडित करने का कुत्सित काम कर रहे है. मित्रों इस लिए बिना प्रसंग और संदर्भ को समझे किसी भी शब्द के अर्थ का अनर्थ न करें और तथा कथित बुद्धिजीवियों टीवी चैनलों और राजनीतिक लोगों के हाथ की कठपुतली हम न बने और विवेक से काम लें.